केवल सत्य का निर्वचन हिन्दू दर्शन का उद्देश्य नहीं
ह्रदय नारायण दीक्षित
भारतीय राष्ट्रजीवन में आनंदमय जीवन की अभिलाषा है। इस अभिलाषा को पूरा करने की आचार संहिता भी है। यह संहिता हिन्दू धर्म है। इस आचार संहिता में हिंसा का कोई स्थान नहीं है। गांधी जी अहिंसा को उत्कृष्ट जीवन मूल्य बताते थे। इस आदर्श का प्रेरणा केन्द्र हिन्दुत्व है। संप्रति दुनिया में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने की आंधी है। भारत में यह सेकुलरवाद के रास्ते हिन्दू धर्म को भी कालवाह्य घोषित करने पर आमादा है। अन्य पंथ रिलीजन अपनी कट्टरता के चलते वैज्ञानिक दृष्टिकोण को श्रेष्ठ नहीं मानते। वैज्ञानिक दृष्टिकोण अनुचित नहीं है। वैज्ञानिको ने प्रकृति के तमाम रहस्यों को उघाड़ने का काम किया है। अंधविश्वासी मतों, पंथों को भी चुनौती मिली है। विज्ञान सत्य की खोज करता है। समाज ऐसी खोजों का उपयोग करता है। समाज इनका दुरूपयोग भी करता है। हिन्दू दर्शन का उद्देश्य केवल सत्य का निर्वचन करना ही नहीं है। हिन्दू धर्म का उद्देश्य दुख का निवारण और आनंद की प्राप्ति है। समाज में आनंद का आपूरण विज्ञान का लक्ष्य नहीं है। विज्ञान के गले में लोकमंगल की घंटी डालने की आवश्यकता है।
वैज्ञानिक खोजों ने मानव संहार के अनेक उपकरण बनाए हैं। मानवता बारूद के ढेर पर है। विज्ञान निर्मम है। उसका लोकमंगल से कोई लेना देना नहीं है। हिन्दू दृष्टि में पूरी पृथ्वी एक परिवार है। इस परिवार में केवल मानव समाज का हित चिंतन ही नहीं है। वैदिक चिंतन में सभी जीव पशु पक्षी कीट पतिंग भी हमारे परिजन हैं। वनस्पतियां औषधियां भी उपास्य हैं। विज्ञान में ऐसी प्रीतिपूर्ण दृष्टि नहीं है। विज्ञान सिर्फ सत्य तथ्य देता है। सत्य तथ्य शिरोधार्य है। लेकिन सत्य का शिव और सुंदर होना भी जरूरी है। वैदिक दर्शन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। लोकमंगल का उद्देश्य है और विश्व को सुंदर बनाने की अभिलाषा है। इन सबका सार हिन्दुत्व है। हिन्दुत्व में प्रेय श्रेय साथ साथ हैं। विज्ञान और लोक मंगल भी परस्पर प्रीति में हैं।
डा० राधा कृष्णन ने कहा है ”वैज्ञानिक हमें ऐसे विभिन्न ढंग बताते है जिनसे पृथ्वी नष्ट हो सकती है। यह कभी सुदूर भविष्य में चन्द्रमा के बहुत निकट आ पहुंचने से या सूर्य के ठंडा पड़ जाने से नष्ट हो सकती है। कोई पुच्छल तारा पृथ्वी से टकरा सकता है। धरती से ही कोई जहरीली गैस निकल सकती है। परन्तु यह सब बहुत दूर की सम्भावनाएं हैं; जबकि अधिक सम्भावना इस बात की है कि मानव-जाति स्वयं जान-बूझकर किए गए कार्यों से और अपनी मूर्खता और स्वार्थ के कारण, जो मानव-स्वभाव में मजबूती से जमे हुए हैं, नष्ट हो सकती है। संसार हम सब के आनंद लेने के लिए है। यदि आजकल युद्ध यन्त्रजात को पूर्णता तक पहुंचने में लगाई जा रही ऊर्जाओं के केवल थोड़े-से हिस्से का ही इसके लिए उपयोग करें तो सबको आनंदमय बनाया जा सकता है।” भारत का जीवन ध्येय आनंद है। केवल वैयक्तिक आनंद नहीं; सामाजिक सामूहिक आनंद भी। सुख और आनंद के अनेक मानसिक व बौद्धिक तल होते है। ज्ञान का सुख आनंद उच्च तल पर है। कला का आनंद गहरा है। लेकिन सत्य अनुभूति दर्शन का आनंद बहुत गहरा है। तैत्तिरीय उपनिषद् में आनंद की व्याख्या है। शुरुवात में कहते हैं, ‘‘सैषा आनंदस्य मीमांसा भवति – अब उस आनंद की मीमांसा करते हैं।‘‘ बताते हैं, ‘‘मनुष्य युवा हो, श्रेष्ठ आचरण वाला हो। अध्ययनशील हो। संपूर्ण अंग बल युक्त हों। स्वस्थ हो। धन सम्पदा से युक्त हो तो इस लोक में आनंद है।‘‘ यहां आनंद के सभी उपकरण प्रत्यक्ष हैं। भौतिक हैं। संसारी हैं। आनंद का आनंद इसी संसार में है।
आनंद के अनेक तल है। प्रथम तल के आनंद की सूची बताने के बाद कहते हैं कि इस तरह के 100 आनंदो से बड़ा आनंद मनुष्य गंधर्वाण आनंद है। गन्धर्व आनंद काव्य, संगीत, कला और संस्कृति का आनंद है। सांस्कृतिक प्रीति से भरे पूरे लोग साधारण आनंद से 100 गुना आनंद पाते हैं लेकिन यह आनंद अकामहत वेदवेत्ता को सहज प्राप्त है। मनुष्य गंधर्वाण आनंद से 100 गुना देव गंधर्वाण आनंद है। गीत संगीत आदि कलाएं आनंददाता हैं। हिन्दू जीवन दृष्टि व संस्कृति इसे दिव्य बनाती है। कहते है कि ”यह आनंद अकामहत वेदवेत्ता को सहज प्राप्त है।” आगे बताते है कि इससे भी 100 गुना आनंद ‘पितरों का चिरलोक आनंद‘ है। हम सब पितरों की संतान है। वे न होते तो हम न होते। यहां पितरों के प्रति श्रद्धा का आनंद है। यह आनंद भी कामना रहित वेदवेत्ता को सहज प्राप्त है। इसके बाद आजानज देव आनंद है। आजानज विशेष चित्त दशा है। इसकी तुलना में 100 गुना ज्यादा ‘कर्म देवानां‘ आनंद है। कर्म देवानां आनंद लोकमंगल के लिए कर्म से मिलता है। सही बात है। श्रेष्ठ कर्म करते रहने का विशेष आनंद होता है। इसी तरह देवों का आनंद है। इन्द्र देवता का आनंद इससे 100 गुना ज्यादा है। फिर बृहस्पति का आनंद इससे भी 100 गुना है। क्या अपनी तरफ से हिन्दुत्व के आनंद को इसी सूची में नहीं जोड़ सकते?
आनंद की मीमांसा के सभी सूत्रों में हिन्दुत्व का प्रवाह है। युद्ध और हिंसा को धार्मिक तत्व बताने वाले निराश होंगे। इस सूची में जेहाद जैसे तत्व नहीं है। धर्मांतरण से पंथिक मजहबी तत्वों को आनंद मिलता है। इस आनंद मीमांसा में धर्मांतरण कराने का आनंद भी नहीं है। इन सूत्रों में सभी तरह के आनंदों का विवेचन है लेकिन जोर कामना रहित वेदवेत्ता पर है। प्रत्येक सूत्र के अंत में कहा गया है कि ”लेकिन यह आनंद अकामहत वेदवेत्ता को सहज प्राप्त है।” वेदवेत्ता स्वाभाविक रूप से आनंदित रहते हैं। वेदवेत्ताओं और वैदिक ऋषियों का दर्शन आनंदगोत्री है। आनंद उनका गोत्र है। प्रकृति में आनंद के तमाम स्रोत है। हिन्दुत्व में सबका समावेश है।
आनंद अदृश्य है। आनंद दिखाई नहीं पड़ता। आनंदित दिखाई पड़ते हैं। आनंद प्रकृति सृष्टि का नियंता है। आनंद की अभिव्यक्ति सृजन में होती है। आनंदित व्यक्ति में गीत काव्य और कलाएं प्रकट होती हैं। प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था का एक दर्शन होता है। आनंद हिन्दुत्व का प्रेय और श्रेय है। आनंद का भी एक दर्शन है। हिन्दू इसके दृष्टा हैं, हिन्दुत्व इसकी जीवन दृष्टि है। तैत्तिरीय उपनिषद् में आनंद का दर्शन भी है। ऋषि सृष्टि से इस दर्शन की शुरुवात करते है ‘‘चेतन से आकाश का जन्म हुआ। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी, पृथ्वी से वनस्पतियां औषधियां पैदा हुंई। इनसे अन्न और अन्न से पुरुष पैदा हुआ। यह पुरुष अन्नमय है।‘‘ यहां आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी प्रकृति के 5 महाभूत हैं। चेतन इनसे पृथक पहला है। इसी तरह अन्न आदि बाद में हैं। बताते हैं कि अन्न प्राणियों का ज्येष्ठ है – अन्नं हि भूतानां ज्येष्ठम। अन्नमय शरीर के भीतर प्राणमय शरीर है। प्राण ही वायु है।‘‘ प्राणमय शरीर के भीतर मनोमय कोष है। इसके भीतर विज्ञानमय कोष है। विज्ञानमय के सम्बंध में कहते हैं, ‘‘विज्ञानमय कर्म क्षेत्र का विस्तारक है। सभी देवता विज्ञान की ज्येष्ठ ब्रह्म की तरह उपासना करते हैं। इसके भीतर आनंदमय कोष बताते है ‘‘प्रिय उस आनंद का सिर है। मोद दक्षिण भाग है, प्रमोद उत्तरी भाग है।‘‘ आनंद वैदिक धर्म मीमांसा की प्रिय अनुभूति रहा है।