तुम न जाने किस जहां में खो गये
डॉ0 ख्वाजा सैयद मोहम्मद यूनुस के तीसरे यौमे वफात पर ख़ुसूसी मजमून
मोहम्मद आरिफ नगरामी
हर समाज और हर दौर में ऐसे इन्सान जरूर होते हैं जो अपने कारहाये नुमायां से हमेशा जिन्दा रहते हैं। उनकी काविशों और ईसार से समाज और कौमों की सियासी, अखलाकी और तहजीबी मेजाज की तरबियत ही नहंी, बल्कि अस्सरे नव तशकील भी होती रहती है, इस दारे फानी से आलमे बका की तरफ हर एक को जाना है, हर मुतनफिफस और जानदार को एक न एक दिन इस दुनियाये बेसबात को खैराबाद कहना है, लेकिन बाज हस्तियां ऐसी भी होती हैं, जिनकी मौत एक फर्द, एक इन्सान, एक करिया, एक गांव और एक खित्ते के लिये नहीं, बल्कि पूरे आलम के लिये होती है, ऐसी औसाफे आलिया की हामिल अबकरी शख्सियतों में इरम एजूकेशनल सोसायटी लखनऊ व बाराबंकी के बानी, मैनेजर और मुल्ज्क के मशहूर माहिरे तालीम, डॉ0 ख्वाजा सैयद मोहम्मद यूनुस थे।
आंख उदास, रूह परीशां, दिल निढाल
बरपा हुयी है एक केयामत कहां कहां
डॉ0 ख्वाजा सैयद मोहम्मद यूनुस आज से ठीक 3 सालों कब्ल अपने मालिके हकीकी से जा मिले थे, मगर इन तीन सालों में कोई ऐसा दिन नहंी गुजरा है, कि जब इरम परिवार का कोई भी फर्द उनकी याद से गाफिल रहा है। उनकी मौजूदगी का एहसास हमेशा होता रहता है, खास कर उनके साहबजादगान में जिस तरह से ख्वाजा साहब मरहूम के तालीमी मिशनको आगे बढाया है, वह काबिले तहसीन है। ख्वाजा साहब के इन्तेकाल के बाद अक्सर शहर के लोग हम से दरियाफत किया करते थे, कि रेहलत के बाद इरम एजूकेशनल सोसायटी के क्या हाल हैं? और मैंने हमेशा उन तमाम हजरात को मुकम्मल तौर पर मुतमईन करने की कोशिश की, और वाकई मेें ख्वाजा साहब के साहबजादगान ने ख्वाजा साहब की रेहलत के बाद तरक्की की जिन बलंदियों को छुआ है, वह काबिले तहसीन और काबिले तकलीद है।
डॉ0 ख्वाजा यूनुस साहब मरहूम, जिला बाराबंकी के एक मर्दुमखेज कस्बा मेलारायगंज में एक मुतवस्सित घराने में आंखें खोलीं। इब्तेदाई तालीम उन्होंने घर और कस्बे के मकतब में हासिल की। आला तालीम के लिये लखनऊ तशरीफ ले आये, दौराने तालीम मरहूम ख्वाजा साहब ने जिन्दिगी का सफर जारी रखने के लिये कई काम किये, मगर कामयाबी नहीं मिली। ख्वाजा साहब की ख्वाहिश थी कि वह मुल्क, कौम और मिल्लत की बेटियों को तालीम के जेवर से आरास्ता करने में अपना किरदार अदा करें और उस अपनी ख्वाहिश को पूरा करने के लिये उन्होंने 1970 में लखनऊ के कदीम मुहल्ला बारूद खाना के एक कमरे के घर में इरम एजूकेशनल सोसायटी की बुनियाद रखी। मशीअत जिससे जो काम लेना चाहती है, वह ले लेती है, उसने ख्वाजा साहब को इन्तेखाब इस अहेद के सबसे अहेम मसले तालीमे निस्वां के फरोग के लिये किया था। यह वह जमाना था जब पूरी कौम तालीम को नजर अन्दाज किये हुये थी। फिजा में एदारों के अकलियती किरदार और फसादात बाबरी मस्जिद, अलीगढ रिजर्वेशन की बाजगश्त थी। खास कर लखनऊ में शिया सुन्नी मसाएल ओैर जुलूस मदहे सहाबा मौजूए गुफतुगू बने हुये थे। पुरानी तालीमी दर्गगांहें जो किसी जमाने में दीनी और मजहबी तालीम का मम्बा और मखरज थीं, मसलकी एख्तेलाफात का शिकार हो रही थीं ओैर न जाने कितने मसाएल से जिनमेें पूरी कौम उलझी हुयी थी, लोग तालीमी पसमांदगी का जिक्र अपनी दानिश्वरी का सुबूत फराहम करने के लिये करते थे, मगर हमारे ख्वाजा साहब अंदेशये सूदो जियां से बेगाना, लोगोें की तारीफ व तन्कीद से बेनेयाज, अपने धुनमें पक्के, तालीमी मैदान में आगे ही बढते चले गये। याद रखिये जब कोइ्र आदमी मैदाने अमल में उतरता है तो उससे उन लोगों की तन्कीद का निशाना बनना पडता है, जो खुद कुछ करना नहंी चाहते हैं। ख्वाजा साहब भी महफूज नहंी रह सके। उनकी नामदारी, उनकी शख्सियत, उनके जाती और घरेलू मामलात को लोगों ने मौहूए गुफतुगू बनाया, मगर ख्वाजा साहब सताईश की तमन्ना और सिले से बेनेयाज अपने जादये तालीम पर यकीं मोहकम, और अमल पैहम के साथ आगे बढते ही चले गये। पचास साल के मख्तसर अरसे में चालिस से ज्यादा तालीमी अदारे जिनमें इण्टर कालेज, डिग्री कालेज, पोस्ट ग्रैजुएट कालेज, बी0एड0, एम0एड, इनम यूनानी मेडिकल कालेज, इरम अस्पताल , कई अदबी मदारिस, पब्लििशिंग हाउस और एक रोजनामा अखबार, अपने नामये आमाल में जगमगाते हुये हुरूफ से लिखवा दिया। 1857 के इन्केलाब के बाद सर सैयद की फिक्र ने हमारे मुस्तकबिल को रौशन किया, तो 1947 के बाद ख्वाजा यूनुस साहब के कारनामे हमारी तालीमी और तहजीबी जिन्दिगी का रोशन बाब बन गये हैं।
रसूले करीम सल0 ने जंगे बदर के कैदियों से कहा था कि वह मुसलमानों को पढायें, तो उनके साथ रियायात की जायेगी और यह भी हुक्म दिया था कि इल्म हासिल करना हर मुसलमान और औरत पर फर्ज है। यह भी कहा था कि इल्म हासिल तो करो, चाहे उसके हुसूल के लिये तुम्हें चीन का सफर भी करना पडे।
ख्वाजा साहब मरहूम ने फरोगे इल्म के लिये तालीमी अदारे भी कायम किये मगर इस बात को भी नजर अन्दाज नहंी किया कि इल्म हासिल करना बहैसियते मुसलमान उन पर भी फर्ज है। ख्वाजा साहब अगर एक तरफ दूसरों के लिये इल्म और तालीम के हुसूल के अदारे फराहम करते रहे तो खुद अपनी तालीमी इस्तेदाद बढाने के लिये भी गाफिल नहंी रहे। उन्होंने न सिर्फ उर्दू फारसी, अरबी, अरब कल्चर, में आलीा तालीम हासिल करके एम0ए0 की डिग्री लीं बल्कि फारसी में जैबुल अम्साल पर तहकीकी मकाला लिख कर डॉ0 आफ फिलीास्फी की डिग्री भी हासिल की। ख्वाजा साहब मरहूम की सौ से ज्यादा किताबें तबा हो कर मन्जरे आम पर आ चुकी हैं, ख्वाजा साहब ने तरीकये तालीम को भरपूर तौर पर जानने के लिये बी0एड0 और कानूनी रमूज से वाकफियत के लिये एल-एल0बी0 की डिग्री भी हासिल की।
ख्वाजा साहब मरहूम ने 70 साल के एक मुख्तसर से अरसे में इल्म के इतने बाग लगा दिये जिनका तसव्वुर भी नहंी किया जा सकता है। लोगों का कहना है कि आजाद हिन्दुस्तान में किसी फर्दे वाहिद ने इतना बडा कारनामा अन्जाम नहीं दिया जो कारनाम ख्वाजा साहब ने अन्जाम दिया है।
रसूले करीम सल0 का इरशादे ग्रामी है कि इल्म हासिल करो चाहे इसके लिये तुमको चीन जाना पडे। यह हदीस इशारा है कि इस बात का कि इल्म ही वह कुजी है जिससे हमारी दुनिया व आकबत दोनों सवंर सकती है। इरम एजूकेशनल सोसायटी का नस्बुंल ऐन भी है। इल्म सीखों और सिखाओं। अगर आप इरम की किसी भी तालीम इमारत में कदम रखेंगेें तो गेट के अन्दर दाखिल होते ही एक वसीअ हाल के दरमियान में सबसे पहले आपकी नजर हाथों में खुली किताब और उसके दरमियान रोशन शमा से टकरायेगी। ‘इक्रा बिस्मे रब्बिकल लजी खलक‘ ऐ रसूले करीम सल0 पढिये अल्लाह के नाम के साथ जिसने पैदा किया। यह हाथ इन्सानों की अलामत है, खुली हुयी किताब इल्म की अलामत है और जलती हुयी शमा इल्म की रोशनी का सिममबल है।
डॉ0 ख्वाजा यूनुस साहब की शानदार तालीमी खिदमात के एतेराफ में तीन बार उनको सदारती एवार्ड से नवाजा गया। इसके अलावा ख्वाजा साहब को बेशुमार एजाजात से नवाजा गया। उत्तर प्रदेश के साबिक कारगुजार वजीरे आला, डॉ0 अम्मार रिजवी ने उनको ‘सर सैयद सानी‘ का लकब अता किया तो हिन्दुस्तान के आलमी शोहरतयाफता शायर, डॉ0 नवाज देवबंदी ने ख्वाजा साहब को तालीम का शाहजहां करार दिया। एक बार हम और ख्वाजा साहब मौलाना राबे हसनी नदवी से मुलाकात की गरज से दारूल उलूम नदवतुल उलमा के दौराने मुलाकात मौलीाना राबे हसनी नदवी ने ख्वाजा साहब की तालीमी खिदमात को सराहते हुये कहा कि आपने तो इल्म और तालीम की एक अलग और बेहद शानदार दुनिया बना रखी है।
इरम एजूकेशनल सोसायटी में एक कारकुन की हैसियत से हमने ख्वाजा साहब को बहुत करीब से देखा है। उनकी नशिस्त व बरख्वास्त उनका बूदो बाश, उनकी मेहनत व लगन सब देखा है। ख्वाजा साहब एक खुली किताब की तरह थे। वह अपनी जात के लेहाज से एक फर्द नहीं बल्कि एक अन्जुमन थे। ख्वाजा साहब ने तालीमी कारनामों के अलावा दीनी और फलाही कामोें में भी बहुत खामोशी के साथ बढ चढ कर हिस्सा लिया। उन्होंने अपने आबाई वतन मेलारायंगंज, और लखनऊ में कई आलीशान मसाजिद की तामीर सिर्फ अपनी जेबे खास से की। ख्वाजा साहब की तामीर कराई हुयी मसाजिद के इमामों, मुअज्जिनों की तन्ख्वा हके अलावा बाकी एखराजात वह खुद उठाते थे और अब उनकी वफात के बाद यह सवाब का काम डॉ0 ख्वाजा बज्मी यूनुस, ख्वाजा फैजी यूनुस और ख्वाजा सैफी यूनुस साहब कर रहे हैं। इरम यूनानी मेडिकल कालेज की ऐसी शानदार मस्जिद तामीर करायी कि लोग उसको देखने आते हैं। इस मस्जिद में ख्वाजा साहब ने एक ऐसा माडर्न मदरसा कायम किया है जिसमें अंग्रेजी स्कूलों और कालेजों में तालीम हासिल करने वालों, तलबा और तालिबात दीनी और मजहबी तालीम हासिल करते हैं। ख्वाजा साहब में हमेशा जरूरतमंदों की दिल खोल कर मदद की। अदबों और शायरों को हमेशा माली मदद किया करते थे। मुझको याद है कि एक बार बाद नमाजे मगरिब ख्वाजा साहब ने हमको गाडी पर बैठाया और पुराने लखनऊ की तरफ चल पडे। हम लोगों मुहाल्ला फिरंगी महल के एक घर में दाखिल हुये जहां उनके उस्ताद जो लखनऊ यूनिवर्सिटी में ख्वाजा साहब को पढ चुके थे, घर में अंधेरा था, ख्वाजा साहब के उस्ताद लेटे हुये थे, सलाम के बाद ख्वाजा साहब ने चुपके एक बडी रकम उनकी तकिया के नीचे रख दिया और हमारा हाथ पकड कर उनके घर के बाहर निकल आये। ख्वाजा साहब ने बहुत से काम हमारे जरिये कराये जो उनकी मगफिरत का जरिया इन्शाअल्लाह बन गये होंगें। ख्वाजा साहब तकरीबन हर साल हज व उमरा की अदायगी के लिये हरमैन शरीफैन जरूर जाया करते थे और खास बात यह है कि वह तनहा नहीं बल्कि कई लोगों के साथ जाया करते थे। यही वजह है कि अल्हमदो लिल्लाह ख्वाजा परिवार के हर फर्द ने उमरा और हज की सआदत हासिल कर ली है।
डॉ0 ख्वाजा यूनुस साहब की जिन्दिगी के इतने दरख्शां पहलू हैं कि हर पहलू को उजागर करने के लिये कई किताबेें दरकार हैं। वैसे हमने अपने इस मजमून में ख्वाजा साहब के बारे में जो कुछ लिखा है वह इससे हजार नहीं बल्कि लखों गुना ज्यादा थे। अल्लाह उनकी मगफिरत फरमाये और जन्नतुल फिरदौस में आला मकाम अता करे।
जिससे मिल कर ज़िन्दगी से इश्क हो जाये
आप ने शायद न देखे हों मगर ऐसे भी थे।