क्या गठबंधन की सरकार में नरेंद्र मोदी संविधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को याद रखेंगे?
(आलेख : मैथ्यू जॉन)
आज देश में राजनीतिक वस्तुस्थिति यह है कि अधिनायकवाद समाप्त तो नहीं हुआ है, लेकिन उसका प्रभाव कुछ हद तक कम हुआ है। पिछले दस वर्षों से वह एक महामानव के रूप में आए और न केवल इस देश को, बल्कि संपूर्ण विश्व को अपने हाथों से संवारने में लग गए और हम छोटे लोग उनके विशाल पैरों के नीचे चले गए। लेकिन लोकसभा चुनावों में खंडित जनादेश, जिसमें किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिला, ने अचानक स्वघोषित देवदूत को एक साधारण पृथ्वीवासी बना दिया है। वह लगातार तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री बने हैं, लेकिन एक ऐसे दलों के गठबंधन के नेता के रूप में, जिनमें कभी भी पाला बदलने की असीम क्षमता है।
किसी ने सच ही कहा है कि बाघ अपने शरीर की धारियों को कभी भी नहीं बदलता। वह जो कभी सर्व-शक्तिमान थे, अब ऐसी परिस्थितियों में काम करने के लिए बाध्य हैं, जहां सभी समान हैं और जहां नए नियमों का पालन किया जाना है।
यह सच है कि उनके पंख काट दिए गए हैं, लेकिन क्या इससे हमारे लोकतंत्र की सुरक्षा सुनिश्चित हो पाएगी? क्या फूले हुए 56 इंच के सीने का आकार कम करने से हमारे लोकतांत्रिक देश में न्याय, समानता, बंधुत्व और प्रत्येक व्यक्ति के प्रति सम्मान का पवित्र संवैधानिक संकल्प फिर से बहाल हो सकेगा?
अधिकांश राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि किसी भी पार्टी को बहुमत न देकर और एक मजबूत और जुझारू विपक्ष का चुनाव करके, भारत के लोगों ने सामान्य राजनीति की पुरज़ोर वापसी सुनिश्चित की है। जनता ने पिछले कुछ वर्षों के उस निरंकुश शासन को पीछे हटने के लिए मजबूर किया है, जो कानून की अवहेलना और क़ानून के नियमों का पालन सुनिश्चित करने वाली संस्थाओं के व्यापक दुरुपयोग के लिए जाना जाता है। लेकिन क्या इससे धर्म के आधार पर बांटने की राजनीति का एक खतरनाक प्रयोग और घोर (क्रोनी) पूंजीवाद के अनुसरण की प्रवृत्ति समाप्त हो जाएगी?
मैं एक ऐसे ज्योतिषी की तरह हूं, जिस पर शायद ही कोई विश्वास करे। मेरी यह झूठी आशाएं शायद ही कभी सच हों, पर उसकी कल्पना मुझे बहुत सुखद और अच्छी लगती है। मुझे इसका पूरी तरह अहसास है कि इस तरह के आमूलचूल परिवर्तन के लिए मोदी जी को अपने चरित्र और शैली के पूर्ण परिवर्तन से गुजरना होगा। अनुदार निश्चयों, अहंकार, स्वयं को तीसरे व्यक्ति के रूप संबोधित कर अतिशयोक्ति से भरी उपलब्धियों के बखान के स्थान पर उन्हें उदारता, मानवीयता, विनम्रता से भरपूर राजनेता के रूप में अपने को प्रतिस्थापित करना होगा। एकाकी तानाशाह की जगह उन्हें एक टीम का सदस्य बनना होगा। लेकिन यह सब झूठी काल्पनिक आशाएं ही तो हैं।
लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री के रूप में देश का नेतृत्व करने वाले व्यक्ति की वास्तविक प्रकृति को समझने के लिए आशीष नंदी द्वारा 1992 में किए गए नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व के विश्लेषण को याद दिलाने की जरूरत है। तब वे एक साधारण आरएसएस प्रचारक हुआ करते थे। नंदी ने लिखा था:
‘यह एक फासीवादी व्यक्तित्व का एक सटीक उदाहरण था… मोदी ने असल में उन सभी मानकों को पूरा किया है, जिन्हें मनोचिकित्सकों, मनोविश्लेषकों आदि ने बरसों के अनुभवों के बाद किसी तानाशाह व्यक्तित्व के लिए तय किए हैं। उनमें वह सब था — बेहद कठोर होना, भावनात्मक तंगी, अहंकार और डर…”।
लोकतांत्रिक कामकाज के स्थापित मानदंडों के अनुसार उनके काम करने की संभावना लगती तो नहीं है। चुनाव परिणामों के बाद मोदीजी के पहले दो भाषणों में (पहले अपनी पार्टी के सदस्यों के लिए और फिर 7 तारीख को संसद में एनडीए की बैठक में) आत्मप्रशंसा, विरोधियों के प्रति अवमानना, वही बासी और घिसी-पिटी अतिशयोक्ति से ओत-प्रोत विकास गाथा और विकसित देश के सपनों का मिश्रण दिखाई पड़ा। वह विपक्ष पर यह घटिया तंज कसने से खुद को रोक नहीं सके : ‘ईवीएम जिंदा है!’ अपने पिछले बयानों से इतर एक परिवर्तन अवश्य दिखाई पड़ा ; इन उद्बोधनों में वह स्वयं को तीसरे व्यक्ति के रूप में संबोधित करने से बचते हुए दिखे। शायद मजबूरी में ही हो, विनम्रता का यह रूप काफ़ी स्पष्ट दिखाई पड़ा।
बैठक में एनडीए के अपने सहयोगियों की चाटुकारिता को देखने और सुनने के बाद, यह स्पष्ट था कि यह लोग पद और सत्ताजनित सुविधाओं के बदले उनकी इच्छाओं के अनुरूप ही कार्य करेंगे। भाजपा को स्पष्ट जनादेश न मिलने के उत्साह के बीच हमें इस तथ्य को नहीं भूलना चाहिए कि जब तक मोदी सत्ता में हैं, हमारे लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा मंडराता रहेगा।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि मोदी और उनके सहयोगियों ने इस चुनाव से पहले ही ‘अच्छे पुराने दिनों’ को वापस लाने की योजना बना ली होगी, जब उनके पास पूर्ण बहुमत था और उन्होंने जैसा चाहा वैसा किया था। वे सभी प्रकार के प्रलोभनों के साथ आज के भारतीय राजनीतिक परिवेश में निर्दलीय और कमजोर दलों को लुभाने के लिए अपनी पूरी कोशिश करेंगे, हालांकि ब्लैकमेल करने की कोशिशों को कुछ समय के लिए स्थगित करना पड़ सकता है। ऐसी पूरी संभावना है कि वे नए सहयोगी बनाने में सफल होंगे, क्योंकि उनके पास अकल्पनीय धन शक्ति जैसे संसाधन हैं और उन्हें बड़े कॉरपोरेट्स का समर्थन प्राप्त है, जिनके व्यवसाय पिछले दस वर्षों में बहुत बढ़ गए हैं।
यहां तक कि अल्पमत की सरकार होने के बाद भी मोदी के पास अपार शक्तियां होंगी। संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति के विपरीत, जिनकी शक्तियां सीनेट, कांग्रेस और 50 राज्य सरकारों द्वारा सीमित हैं, भारत के प्रधानमंत्री को वैधानिक और विवेकाधीन दोनों तरह के अधिकार प्राप्त हैं, जो विशेषज्ञों के अनुसार उन्हें एक सम्राट जैसा अधिकार संपन्न बना सकता है। प्रधानमंत्री बनने वाला व्यक्ति लोकतांत्रिक राजनेता के रूप में काम करता है या तानाशाह के रूप में, यह उसके विवेक पर निर्भर करता है। अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह लोकतांत्रिक थे और अच्छे इरादे से शासन करते थे। एक ऐसा गुण था, जो मोदी के साथ कभी नहीं जुड़ा। वह स्व-हित से ऊपर उठने में असमर्थ हैं।
लोकतंत्र के घातक रूप में, लेकिन प्रभावी ढंग से, मोदी सरकार ने संविधान के साथ छेड़छाड़ किए बिना ही प्रशासनिक संस्थाओं को अपनी इच्छानुसार काम करने के लिए मजबूर कर दिया है। फ़्रांस के सुप्रसिद्ध राजनीतिक विचारक और न्यायविद मोंटेस्क्यू ने सही चेतावनी दी थी कि कानून की आड़ में और न्याय के नाम पर जो अत्याचार किया जाता है, उससे बड़ा कोई अत्याचार नहीं है। मोदी ने राज्यों को देय उचित धन समय पर न दे कर संघवाद पर प्रहार किया। संसद में विपक्ष की वैध मांगों को नजरअंदाज कर दिया गया और उनकी आवाज दबाई गई। उन्होंने सरकारी खजाने से मनमाने ढंग से भिन्न क्षेत्रों में निवेश की प्राथमिकताओं पर एकतरफा निर्णय लिया। हर मंत्रालय में बाहरी लोग अंदर बैठकर निगरानी कर रहे थे। क्या सरकार चलाने का यह तरीका इस बार बदलेगा?
अपने व्यापक अधिकारों के अंतर्गत प्रधानमंत्री अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों की नियुक्ति करते हैं और सशस्त्र बलों, सिविल सेवाओं, सार्वजनिक वैधानिक निकायों, यहां तक कि राज्यपालों के संवैधानिक पदों और चुनाव आयोग इत्यादि के उच्च स्तर के पदों पर भी नियुक्ति की मंजूरी देते हैं। पिछले दस वर्षों में मोदी जी ने हर संगठन को खोखला कर दिया है। योग्यता और पेशेवर उपयुक्तता को अलग रखते हुए, उन्होंने यूपीएससी और यूजीसी जैसे प्रमुख संगठनों में भगवा-दागी घुसपैठियों को नियुक्त किया है।
गठबंधन की सरकार होने के बावजूद भी प्रधानमंत्री के रूप में उनके अधिकार कम तो नहीं होंगे। वास्तव में उन्हें अपनी विचारधारा के ही व्यक्तियों को महत्वपूर्ण पदों पर स्थापित करने से कोई नहीं रोक सकता, भले ही उन पदों के लिए अन्य अधिक योग्यता के व्यक्ति उपलब्ध हों।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तीसरी बार विधिवत चुने गए प्रधानमंत्री के रूप में मोदी का एक बार फिर उन संस्थानों पर पूरा नियंत्रण होगा, जिन्हें उन्होंने पिछले दस वर्षों में राजनीतिक विरोधियों और असंतुष्टों को निशाना बनाने के लिए हथियार बनाया है। उन्होंने कानून प्रवर्तन एजेंसियों की विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा को कम किया है, जिन्हें अब मोदी के व्यक्तिगत नियंत्रण के अंतर्गत माना जाता है। ऐसा लगता है कि नई व्यवस्था में भी इन एजेंसियों की महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी।
हमें निरंकुश शासन को मजबूत करने में न्यायपालिका और नौकरशाही द्वारा निभाई गई संदिग्ध भूमिकाओं को नहीं भूलना चाहिए। पिछले दस वर्षों में, जनहित और कानून की रक्षा करने के बजाय, उन्होंने दरबारियों के रूप में ज़्यादा काम किया है और एक राजनीतिक शासक की क्रूर शक्ति के सामने हर संस्था को उसकी इच्छाओं के अनुरूप ढालने के लिए तैयार किया है। ऐसी आशंकाएं हैं कि हिंदुत्ववादी विचारधारा के समर्थकों की इन संस्थानों में भारी घुसपैठ हो गई है। हाल ही में, कलकत्ता उच्च न्यायालय से सेवानिवृत्त हुए एक न्यायाधीश ने अपने व्यक्तित्व को आकार देने के लिए सार्वजनिक रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को श्रेय दिया था। क्या लोकतंत्र की अस्थायी बहाली एक बदलाव लाएगी और उन्हें संविधान के प्रति उनकी पवित्र प्रतिबद्धता के प्रति जागृत करेगी?
पिछले दस वर्षों में हम इस शासन की अकथनीय अमानवीयता और क्रूरता के साक्षी रहे हैं, जिसे एक व्यक्ति द्वारा आयोजित किया गया था। मोदी ने एक ऐसा देश बना दिया, जहां मात्र एक ट्वीट से जेल हो सकती है, जैसा कि जलवायु कार्यकर्ता दिशा के मामले में हुआ है। ऐसा शासनतंत्र, जहां एक कॉमेडियन को ‘धार्मिक भावनाओं को आहत करने के लिए’ पीटा जा सकता है और जेल में डाला जा सकता है। ऐसा देश, जहां लिंचिंग एक आम बात हो गई है। यहां हम में से सबसे अच्छे लोग – एल्गार परिषद के कार्यकर्ता — लाचार और गरीब से गरीब लोगों के अधिकारों के लिए आवाज उठाने के कारण वर्षों जेल में बिता चुके हैं। एक आदर्शवादी युवा – उमर खालिद – तीन साल से अधिक समय से जेल में है और गिनती जारी है। भयावहता की सूची अंतहीन है।
अब जबकि मोदीजी सत्ता में वापस आ गए हैं, क्या उन्हें उस घोर अन्याय के लिए जिम्मेदार ठहराया जाएगा, जो उन्होंने दस वर्षों में अपने लोगों पर किया है? जैसा कि डेसमंड टूटू ने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के अंत में कहा था कि संपूर्ण न्याय के हितों में ‘आंख में जानवर को देखना’ आवश्यक है, ताकि इस तरह की भयावहता की पुनरावृत्ति न हो। अलेक्जेंडर सोल्झेनित्सिन ने यह कहते हुए एक शाश्वत सत्य व्यक्त किया कि ‘जब हम न तो बुरे लोगों को दंडित करते हैं और न ही निंदा करते हैं, तो हम भविष्य की पीढ़ियों से न्याय की नींव को खंडित कर रहे हैं। समय बताएगा कि क्या हम अंततः भविष्य के लिए अपने दायित्व को पूरा करते हैं या नहीं! लेकिन अभी के लिए, राजनीतिक दलों को यूएपीए और पीएमएलए जैसे अमानवीय कानूनों को निरस्त करने के लिए तत्काल उपाय करने चाहिए, जिनका मोदीजी द्वारा अपने विरोधियों को सताने और प्रताड़ित करने के लिए दुरुपयोग किया गया है।
(लेखक सिविल सेवा के पूर्व अधिकारी हैं।)