बाबा साहब से कौन नफरत करता है?
(आलेख : शुभम शर्मा, अनुवाद : संजय पराते)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबसे करीबी और भारत के गृह मंत्री अमित शाह के एक बयान ने संसद में खलबली मचा दी है। शाह ने विपक्ष को बेहद अपमानजनक तरीके से कहा कि “अगर वे (विपक्ष) अंबेडकर का नाम लेने के बजाय भगवान का नाम लेते, तो उन्हें स्वर्ग मिल जाता।” शाह के इस बयान के बाद पूरे विपक्ष ने उनके इस्तीफे की मांग की है। शाह के प्रेस कॉन्फ्रेंस करने से यह बात साफ हो गई कि वे अपने बयान से बाज नहीं आएंगे। विपक्ष इस मामले को हल्के में लेने के मूड में नहीं दिख रहा है। भाजपा ने कांग्रेस पर अंबेडकर का ‘ऐतिहासिक’ अपमान करने का आरोप लगाया है। वेब पर मजेदार वीडियो वायरल हो रहे हैं, जिसमें दिखाया जा रहा है कि कांग्रेस द्वारा बाबा साहब का कथित ‘ऐतिहासिक अपमान’ करने के बारे में भाजपा के लोग कितनी कम जानकारी रखते हैं।
जैसी रस्साकशी हो रही है, हमें यह समझने की जरूरत है कि बाबा साहेब किस बात के लिए खड़े थे। सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण बात, हमें यह समझने की जरूरत है कि अगर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बजाय हिंदुत्व की ताकतें सत्ता में होतीं, तो बाबा साहेब को कभी भी स्वतंत्र भारत के भारतीय संविधान के निर्माण में नेतृत्व करने और भाग लेने के लिए आमंत्रित नहीं किया जाता। संविधान हिंदुत्व और ब्राह्मणवाद से प्रेरित एक दस्तावेज होता, जिसमें समाज के हाशिए पर पड़े वर्गों के लिए कोई सम्मान नहीं होता। यह बात गोलवलकर द्वारा अपने मित्र तेलंग को 9 फरवरी 1929 को लिखे गए पत्र से समझी जा सकती है, जो बाबा साहेब द्वारा मनुस्मृति जलाने के दो साल बाद उन्होंने लिखा था। गोलवलकर ने लिखा : ”मुझे मनुस्मृति में अस्पृश्यता का एक छोटा सा आधार भी नहीं मिला।” इससे साबित होता है कि अंबेडकर खुद को गुरुजी और उनके कट्टर अनुयायियों से नहीं जोड़ते, जिन्हें मनुस्मृति में कोई दोष नहीं मिला।
दूसरे, अंबेडकर जाति-विरोधी योद्धाओं की लंबी सूची में शायद सबसे अधिक पढ़े-लिखे और शिक्षित व्यक्ति थे। उनके अधिकांश महत्वपूर्ण काम ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म की निर्मम और अथक आलोचना से संबंधित हैं। उन्होंने न केवल हिंदू धर्मग्रंथों का अध्ययन किया और उनके जातिगत पूर्वाग्रहों और विसंगतियों को इंगित किया, बल्कि प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति का इतिहास प्रस्तुत किया, जिसमें बौद्ध धर्म क्रांति का प्रतिनिधित्व करता है और ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म प्रतिक्रांति का। अंबेडकर ने हिंदुत्व के कट्टरपंथियों को बहुत नाराज़ करते हुए लिखा, ”भारत के पूरे इतिहास को इस तरह से प्रस्तुत किया गया है मानो इसमें एकमात्र महत्वपूर्ण चीज़ मुस्लिम आक्रमणों की सूची है। लेकिन इस संकीर्ण दृष्टिकोण से भी यह स्पष्ट है कि मुस्लिम आक्रमण ही अध्ययन के योग्य एकमात्र विषय नहीं हैं … निश्चित रूप से यदि इतिहासकारों के हाथों हिंदू भारत पर मुस्लिम आक्रमण अध्ययन के योग्य हैं, तो ब्राह्मणवादी आक्रमणकारियों द्वारा बौद्ध भारत पर किए गए आक्रमण भी उतने ही अध्ययन के योग्य हैं … बौद्ध भारत पर ब्राह्मणवादी आक्रमण अपने प्रभाव में इतने गहरे रहे हैं कि उनकी तुलना में हिंदू भारत पर मुस्लिम आक्रमणों का प्रभाव वास्तव में सतही और अल्पकालिक रहा है।”
उन सभी हिंदुत्ववादियों के लिए, जो अपने पूर्वजों द्वारा फैलाई गई नफरत के इतिहास से बहुत नशे में हैं, अंबेडकर का उपरोक्त अंश कभी भी सुग्राह्य नहीं होगा।
तीसरा, अंबेडकर राष्ट्र के नस्लीय विचार के विरोधी थे, जिसे सावरकर ने सिद्धांतबद्ध और समर्थित किया था। सावरकर के हिंदू राज के बारे में अंबेडकर ने लिखा था : ‘‘अगर हिंदू राज एक तथ्य बन जाता है, तो यह निस्संदेह इस देश के लिए सबसे बड़ी आपदा होगी। हिंदू चाहे जो भी कहें, हिंदू धर्म स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए खतरा है। इस कारण से, यह लोकतंत्र के साथ बेमेल है। हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।” भारत में फासीवाद के अपने पैर जमाने और अपने अनुयायी (आरएसएस और हिंदू महासभा) तैयार करने से पहले ही अंबेडकर ने लिखा था, ”हिंदू धर्म (सिर्फ हिंदुत्व नहीं) फासीवादी और नाजी विचारधारा के समान ही अपने चरित्र में एक राजनीतिक विचारधारा है और पूरी तरह से लोकतंत्र विरोधी है।” हिंदुओं की रक्त आधारित एकता के लिए सावरकर के आह्वान का अंबेडकर ने विरोध किया था। अंबेडकर ने 1911 की जनगणना द्वारा अपनाई गई नई वर्गीकरण प्रणाली का स्वागत किया था, जिसमें जाति के भेद को औपचारिक रूप से अपनाया गया था। विनायक चतुर्वेदी अपनी पुस्तक ‘हिंदुत्व और हिंसा : सावरकर और इतिहास की राजनीति’ में लिखते हैं : ”अछूतों और हिंदुओं के बीच का भेदभाव अंबेडकर के लिए खून का मामला नहीं था, बल्कि कुछ खास प्रथाओं के व्यवहार और पालन के तरीके थे … सावरकर द्वारा समान खून (जिसमें सभी खून अशुद्ध थे) के तर्क के माध्यम से हिंदू का निर्माण एक ऐसे समय में एकजुटता बनाने की रणनीति थी, जब कई स्तरों पर हिंदू पहचान के विखंडन की धारणा स्पष्ट थी।”
अंबेडकर ने सावरकर के द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को भी गलत बताया था और तर्क दिया था कि “सावरकर की महत्वाकांक्षा यह नहीं थी कि भारत में हिंदू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र एक साथ रहें ; इसके बजाय, वह चाहते थे कि हिंदू ‘मुसलमानों पर साम्राज्य स्थापित करें’, ताकि हिंदुओं की ‘एक शासक नस्ल’ बनाई जा सके।” द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अंबेडकर श्रम मंत्री के रूप में वायसराय की कार्यकारी परिषद का हिस्सा थे। यह वह समय था, जब हिंदुत्व की ताकतें जर्मनी में नाज़ियों का समर्थन कर रही थीं और जर्मनी में यहूदियों की तरह भारत में मुसलमानों के लिए ‘अंतिम समाधान’ की मांग कर रही थीं। इस दौरान अंबेडकर ने कार्यकर्ताओं को नाज़ीवाद और उसके खतरनाक नस्लीय दर्शन के खतरों से आगाह किया था।
प्रसेनजित बोस ने संविधान सभा में अंबेडकर के चुनाव पर एक बढ़िया लेख लिखा है। इसलिए, इस पर और विस्तार से चर्चा करने की कोई ज़रूरत नहीं है। संविधान सभा में अपने अनुभव के बारे में अंबेडकर का खुद का बयान ही बताना काफी है। 25 नवंबर 1949 को अंबेडकर ने स्वीकार किया था : ”अगर संविधान सभा एक रंग-बिरंगी भीड़ होती, सीमेंट के बिना पक्की सड़क होती, यहां एक काला पत्थर और वहां एक सफ़ेद पत्थर होता … तो प्रारूप समिति का काम बहुत मुश्किल होता … तब सिर्फ़ अराजकता होती … इसलिए, संविधान सभा में संविधान के प्रारूप के सुचारू रूप से पारित होने का सारा श्रेय कांग्रेस पार्टी को जाता है।”
यह ऐतिहासिक रिकॉर्ड की बात है कि अंबेडकर को जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार से परेशानी थी। गांधी के कहने पर कैबिनेट में शामिल किए जाने से पहले नेहरू अंबेडकर को नहीं समझते थे। कई मुद्दों पर उनके बीच मतभेद थे। उदाहरण के लिए, अंबेडकर ने संविधान की उद्देश्यिका प्रस्ताव में ‘राज्य समाजवाद’ के अपने संस्करण को शामिल न किए जाने पर दुख जताया था। नेहरू ने अपनी ओर से इसका बचाव इस बहाने से किया था कि समाजवादी राज्य का कोई भी चित्रण ‘कुछ ऐसा होगा, जो कई लोगों को स्वीकार्य हो सकता है और कुछ को स्वीकार्य नहीं होगा।’ दोनों के बीच ये मतभेद प्रगति की निरंतरता के दो बिंदुओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। अंबेडकर इसे और आगे बढ़ाना चाहते थे, जबकि नेहरू कांग्रेस की एकता को बनाए रखना चाहते थे, जिसका मतलब था — कांग्रेस के रूढ़िवादियों को साथ लेकर चलना। अपमान और व्यक्तिगत नापसंदगी का उस तरह का कोई सवाल ही नहीं था, कम से कम आरएसएस-बीजेपी इसे जिस तरह से पेश करती है।
ऐतिहासिक रूप से अंबेडकर का हिंदुत्व की ताकतों से रिश्ता तेल और पानी जैसा है। वे कभी नहीं मिलेंगे। चाहे भगवा चम्मच को कितना भी हिलाया जाए।
(लेखक रिसर्च स्कॉलर हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)