(आलेख : महेंद्र मिश्र)

चुनाव कवरेज के दौरान जब मैं नागपुर में था तो एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा कि महाविकास अघाड़ी और महायुति के बीच अंतर तो क्रमश: 60 और 40 का है और अगर इतना नहीं तो 55 और 45 का निश्चित रूप से है। लेकिन सरकार-प्रशासन, चुनाव आयोग और दूसरी रहस्यमय शक्तियों के दखल के बाद कोई भी नतीजा आ सकता है। चुनाव नतीजे आने के बाद उनकी यह आशंका सही साबित हो रही है। महायुति की इस लैंडस्लाइड विक्ट्री के निशान जमीन पर तो उस रूप में नहीं थे। जिस तरह से सामने आयी है।

हर तरफ परेशानी और तबाही ही दिख रही थी। वह बेरोजगारी हो या कि फिर किसानों की जलालत। महाराष्ट्र में क्रैश क्राप करने वाले किसान खेती छोड़ने का मन बना रहे हैं। विकल्पहीनता के चलते खेती उनके सिर का बोझ बनती जा रही है। बैंकों के कर्ज और साहूकारों के ब्याज की दरों ने उन्हें आत्महत्या करने वालों की कतार में खड़ा कर दिया है। हजारों किसान अभी तक उनकी भेंट चढ़ चुके हैं। यह बात सही है कि ये मसले चुनाव के एजेंडे नहीं बन सके लेकिन यह बात पक्के तौर पर कही जा सकती है कि इन हालातों से जूझने वाले किसानों की पहली पसंद महायुति कतई नहीं हो सकता है।

चुनावी कवरेज के दौरान यह बात दिखी भी। अंगूर की खेती करने वाले एक किसान ने बताया कि वह लगातार घाटे की खेती कर रहा है और अब उसने उसे छोड़ने का फैसला कर लिया है। यही हाल सोयाबीन, कपास और दूसरी खेती करने वाले किसानों की भी है। पूरे महाराष्ट्र में अपने किस्म की उदासीनता छायी थी। खासकर पार्टियों के रवैये को लेकर। जिस तरह से वो आपस में बंटी थीं और उनमें आपसी फूट थी उससे वो बेहद नाराज थे। ऐसे में मतदान के दौरान रिकॉर्ड वोटिंग होना अपने आप में बड़े सवाल खड़े कर देता है। और उस स्थिति में यह सवाल और बड़ा हो जाता है जबकि अभी चार महीने पहले हुए लोकसभा के चुनावों में जनता ने इसी महायुति के खिलाफ वोट किया हो।

इन चार महीनों में ऐसा क्या हो गया कि पूरी बाजी पलट गयी और जनता महायुति के पक्ष में आ गयी। उसका किसी के लिए अंदाजा लगाना भी मुश्किल है। यह बात सही है कि सरकार द्वारा पेश की गयी लड़की बहिन योजना ने ज़रूर महिलाओं के एक हिस्से को प्रभावित किया लेकिन उसकी ताकत इतनी बड़ी नहीं थी कि पूरे गणित को प्रभावित कर दे और महायुति को दो तिहाई बहुमत दिला दे।

मुंबई के भीतर एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी कही जाने वाली, हालांकि अब वो उस तरह की झुग्गी रही नहीं, धारावी पर अडानी का कब्जा एक बड़ा मुद्दा बन गया था। और यह पूरा मामला महायुति के खिलाफ जा रहा था। बावजूद इसके मुंबई में शिवसेना-बीजेपी गठबंधन को सबसे ज्यादा सीटें मिलीं हैं। इस नजरिये से इस चुनाव को एक संदिग्ध चुनाव के तौर पर देखा जाना चाहिए। और विपक्ष को ज़रूर इसकी छानबीन करनी चाहिए और इसके लिए जिम्मेदार कारणों का जब तक हल नहीं निकाला जाता है तब तक जगह-जगह उसे इसी तरह की हार का सामना करना पड़ सकता है।

जीत के कुछ कारणों पर अगर गौर किया जाए तो उसमें अडानी फैक्टर सबसे बड़ा कारण साबित हो रहा है। दरअसल अडानी का बहुत बड़ा स्टेक महाराष्ट्र में लगा हुआ था। जिस धारावी का मैंने ऊपर जिक्र किया उसमें साढ़े छह सौ एकड़ जमीन अडानी को अकेले धारावी में मिलनी है उसके रहवासियों को फिर से बसाने के नाम पर। इसके अलावा इसी काम के लिए 1800 एकड़ जमीन मुंबई के तीन अलग-अलग हिस्सों में दी गयी है। रेलवे विभाग ने पहले ही 270 एकड़ जमीन अडानी के हवाले कर दी है। इस तरह से 2400 से ज्यादा एकड़ जमीन अडानी को उस मुंबई में मिल रही है जहां जमीन हीरा के भाव में बिकती है।

ऐसे में जबकि कांग्रेस और शिवसेना (बाला साहेब ठाकरे) जैसे विपक्ष ने सत्ता में आने के बाद उसको रद्द करने की अपने मैनिफेस्टो में घोषणा कर दी थी उससे समझा जा सकता है कि अडानी के लिए यह चुनाव किसी जीवन-मरण से कम नहीं था। और अडानी ने भी उसको उसी तरह से लिया। अडानी महाराष्ट्र की राजनीति में कितना बड़ा फैक्टर हो गए हैं उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वहां की तमाम पार्टियों के नेताओं के साथ उनकी बैठक होती है। जैसा कि अजीत पवार ने चुनाव के दौरान खुलासा किया था।

अब इसी अडानी का खुद का हित दांव पर लगा था। लिहाजा उसने अपने सारे घोड़े खोल दिए। जो अलग-अलग रूपों में सामने आया। बीजेपी महासचिव विनोद तावड़े तो बाकायदा होटल में कैश बांटते रंगे हाथों पकड़े गए। और इसी तरह से न जाने कितने नेताओं ने कितनी जगहों पर कैश बांटी होगी। उसका कोई अंदाजा नहीं है। और यह कैश उन्हें अपनी पार्टी के खजाने से नहीं निकालने पड़े थे बल्कि इसकी सीधी सप्लाई अडानी के ठिकानों से हो रही थी। और उनके न तो पकड़े जाने का डर था और न ही कोई दूसरी बाधा। क्योंकि सूबे और केंद्र में बीजेपी की डबल इंजन की सरकार थी और सारी एजेंसियां उसके लिए काम कर रही थीं। यह बात अलग है कि यही एजेंसियां जगह-जगह विपक्षी नेताओं पर हमलावर थीं और छापे मारकर उनको परेशान कर रही थीं।

दूसरी तरफ अडानी सीधे शरद पवार को प्रभावित कर रहे थे। यह बात किसी से छुपी नहीं है कि अडानी और शरद पवार के बेहद नजदीकी रिश्ते हैं। और कितनी बार अखबारों और सोशल मीडिया पर दोनों की मुलाकात की तस्वीरें प्रकाशित हो चुकी हैं। महाविकास अघाड़ी की जिस सरकार को गिराने के लिए अडानी के साथ नेताओं की बैठक का जिक्र आता है उसमें शरद पवार भी शामिल थे। अब ऐसे में अगर किसी दोस्त का भविष्य दांव पर लगा हो तो क्या वह शख्स उसी तेवर और जज्बे के साथ उसके खिलाफ प्रचार कर सकता है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी अडानी के खिलाफ कितना बोलते रहें लेकिन शरद पवार के मुंह से उनके खिलाफ एक शब्द भी नहीं फूटेगा। यही सच्चाई है।

ऐसे में जनता के बीच आखिर क्या संदेश जाता होगा? पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान जिस ताकत के साथ शरद पवार ने प्रचार किया था क्या वह उसी ताकत के साथ इस बार भी मैदान में उतरे थे? यह बात डंके की चोट पर नहीं कही जा सकती है। आपको अगर वह तस्वीर याद हो जिसमें एक सभा के दौरान बारिश होने लगी और बुजुर्ग शरद पवार ने भीगते हुए अपना भाषण जारी रखा और जनता भी सामने टस से मस नहीं हुई। यह संदेश पूरी जनता ने बेहद शिद्दत के साथ महसूस किया था और उसका फायदा मिला था। सूबे में महाविकास अघाड़ी की सरकार बनी थी। लेकिन मौजूदा चुनाव में शरद पवार इस तरह की किसी भूमिका में नहीं दिखे। जबकि कम से कम महाराष्ट्र में बगैर उनकी अगुआई के महाअघाड़ी के लिए चुनाव जीत पाना मुश्किल है।

विपक्ष और खासकर कांग्रेस ने दूसरी गलती जो कि वह उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री का चेहरा न बनाना था। विपक्ष को इस बात को समझना चाहिए था कि आपने शिवसेना से उसका हिंदुत्व जो एक दौर में उसकी बुनियादी पहचान हुआ करती थी, छीन लिया और उसे एक सेकुलर पार्टी में तब्दील कर दिया। ऊपर से बाल ठाकरे का जो रुतबा था, उनकी जो धमक हुआ करती थी और उनकी जो शख्सियत होती थी जिसके बूते पर शिवसैनिक सीना तान कर चला करते थे। वह भी जाती रही। और उद्धव ठाकरे को दिए जाने वाले सीएम के एक पद के जरिये उसकी जो कुछ भरपाई हो सकती थी उसको भी विपक्ष ने छीन लिया।

विपक्ष के नेताओं को यह समझना चाहिए कि अपने किसी गठबंधन के घटक को कमजोर कर वह गठबंधन को फायदा नहीं पहुंचा सकता है। एकबारगी जरा उस स्थिति के बारे में सोचिए जब उद्धव ठाकरे और मुख्यमंत्री शिंदे के कार्यकर्ता आमने-सामने होते होंगे और शिंदे के कार्यकर्ता यह सवाल दागते रहे होंगे कि उनके रुतबे और हैसियत को विपक्ष ने मिट्टी में मिला दिया तो इसका उद्धव के कार्यकर्ताओं के पास क्या जवाब होता होगा। और दिलचस्प बात यह है कि बीजेपी ने इसी को मुद्दा बनाया।

बीच में लोगों को लगा कि योगी ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ तथा मोदी ‘एक हैं तो सेफ हैं’ का एकाएक नारा क्यों दे रहे हैं लेकिन चुनाव के बीच वह एक टैक्टिकल नारा था जिसमें न केवल अपने कार्यकर्ताओं के दिलों में जोश भरना था बल्कि शिवसैनिकों के सोये हिंदुत्व को भी जगाना था। और सहयोगी दलों पर इसके बुरे असर की जहां तक बात है तो अजीत पवार ने उसका विरोध कर अपने तरीके से अपने जनाधार को संदेश दे दिया था।

बीजेपी के नेताओं द्वारा जगह-जगह बाल ठाकरे और उद्धव ठाकरे के रुतबे में आए अंतर का सवाल उठाया जाना शिव सैनिकों के बड़े हिस्से को उनसे काटने की रणनीति का हिस्सा था। इन दोनों मोर्चों पर लगता है कि उसका तीर निशाने पर बैठा। अनायास नहीं शिंदे जैसा शिवसेना का एक छोटा नेता असली शिवसेना का नेता बन जाता है।

और इन सबसे आगे बढ़कर बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन के पास एक वैचारिक धुरी के साथ एक राजनीतिक कमांड था जिस पर वह आगे बढ़ रहा था जबकि विपक्ष के नरेटिव में बहुत बिखराव था। और वह मतदाताओं को कोई साफ संदेश देने में नाकाम रहा।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)