हज़रत अली की ख़िलाफ़त की समस्या का समाधान कब होगा?
इस्लाम को अपना धर्म मानने वाले कब तक आपस में लड़ते रहेंगे?
अब्दुल ग़फ़्फ़ार सिद्दीकी
9897565066
हर कोई इस बात से सहमत है कि मुसलमानों को सबसे ज्यादा नुक़सान गुटबाज़ी से पहुंचा है। इस भावना और जागरूकता के बावजूद, आपसी एकता और गलतफहमियों को दूर करने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया है। 33 कारोड़ देवताओं के उपासक एक मंच पर इकट्ठे हो रहे हैं, पूरब और पश्चिम के बीच दूरी रखने वाले करीब आ रहे हैं, एक तरफ 26 पार्टियां तो दूसरी तरफ 38 पार्टियां एक साथ आ रही हैं। लेकिन जिनके पास एक ईश्वर, एक दूत, एक किताब और एक क़िबला है वे अतीत के मतभेदों को बढ़ावा दे रहे हैं। यूं तो मुसलमानों में सैकड़ों ग्रुप हैं, लेकिन सभी मुसलमान दो प्रमुख समूहों में विभाजित हैं। एक समूह शिया और दूसरा सुन्नी है। इन दोनों के बीच मतभेद का मुख्य कारण हज़रत अली रज़ि का मुक़ाम व मनसब और उनकी खिलाफ़त काल को लेकर है । शियाओं की शिकायत है कि पैगम्बर (सल्ल.) के जाने के बाद ख़िलाफ़त का अधिकार हज़रत अली रज़ि का था। उनसे पहले के ख़लीफ़ाओं ने उनके अधिकारों को अस्वीकार कर दिया और उन्हें हड़प लिया। उन्होंने पैग़म्बर के परिवार ( एहले बैत ) के साथ अन्याय किया। जबकि एहले सुन्नत का मानना है कि चारों ख़लीफ़ा सही हैं और उनकी खिलाफत के समय में किसी के साथ अन्याय नहीं हुआ और न ही किसी के अधिकारों का उल्लंघन हुआ।
जिस तीव्रता से इस मुद्दे का वर्णन किया गया और इसका इतिहास रचा गया ,जिस प्रकार की रिवायतें घड़ी गईं, जिस प्रकार दोनों समूहों के धार्मिक नेताओं ने अपनी अवाम को एक दुसरे के विरूद्ध भडक़ाया , यह सब देखकर कोई गैर-मुस्लिम इस्लाम को सच्चा धर्म कैसे स्वीकार कर सकता है? इन दोनों गुटों की आपसी लड़ाइयाँ इस्लाम के प्रचार-प्रसार और स्थिरता में बाधक बनीं हैं। मौजूदा दौर में भी इन दोनों के बीच दूरियां बनी हुई हैं। एक दूसरे के पीछे नमाज़ पढ़ना तो दूर की बात है ,सामान्यतः मस्जिदें भी अलग-अलग होती हैं और एक-दूसरे की मस्जिद में कम ही जाते हैं। वे एक दूसरे से शादी भी नहीं करते , जबकि कुरान के मुताबिक, मुसलमान अपने धर्म का पालन करते हुए एहले किताब ( ईसाई ,यहूदी ) की बेटियों से शादी कर सकते हैं। लेकिन एक कुरान की तिलावत करने वाले ऐसा नहीं करते।
शियाओं के बारे में तो मैं नहीं जानता कि उन्होंने सुन्नियों के बारे में क्या भ्रांतियां फैलाईं हैं। लेकिन सुन्नी जनता के बीच कई भ्रांतियां फैली हुई हैं। उदाहरण के लिए, शिया मुहम्मद (स०) को पैगंबर नहीं मानते हैं। शियाओं का कहना है कि कुरान में चालीस पारे थे । शिया हजरत अली को खुदा बल्कि खुदा से भी बड़ा मानते हैं। जब वे सुन्नियों को भोजन देते हैं, तो वे उस पर थूकते हैं और उस में मल में भी मिला देते हैं। शियाओं के इमाम का जन्म हराम कारी से होता है। में समझता हूँ कि कोई भला आदमी इन को सही नहीं मने गा। लेकिन ये विचार अधिकांश सुन्नी मुसलमानों के हैं। एहले सुन्नत के अधिकांश उलेमा भी उन्हें गुमराह कहते हैं। उनसे संपर्क से रोकते हैं ,कुछ उलेमा तो अपने जुनून में यहां तक कहते हैं कि वे काफिर हैं। जब मैंने एक सुन्नी विद्वान से पूछा कि यदि शिया काफ़िर हैं तो वे काबा में कैसे प्रवेश करते हैं? या वे भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य कैसे हो सकते हैं? तो उनके पास कोई जवाब नहीं था। एक बार मैंने एक शिया विद्वान से उपरोक्त भ्रांतियों पर चर्चा की तो उन्होंने इन सब का कड़ाई से खंडन किया। एक बार मैंने जानबूझकर एक शिया मस्जिद में मगरिब और ईशा की नमाज़ पढ़ी। उनके इमाम ने तिलावत और अज़कारे मस्नूना ज़ोर से पढ़े । उन्होंने क़याम , रुकू और सजदों में भी पवित्र पैगंबर ﷺ पर दुरूद भेजा। मुझे छोटे-मोटे मतभेदों के अलावा कोई अंतर नज़र नहीं आया। ऐसे अनेक अंतर सुन्नियों में आपस में भी हैं। मेरे एक शिया मित्र ने बिना किसी हिचकिचाहट के मेरे पीछे नमाज़ अदा की। भारत में शिया-सुन्नी एकता के पैरोकार जनाब मौलाना क़लबे सादिक़ मरहूम (उपाध्यक्ष मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड) ने लखनऊ की टीले वाली मस्जिद में सुन्नी इमाम के पीछे अपने समर्थकों के साथ ईद की नमाज़ अदा की, लेकिन अफ़सोस, सुन्नी समाज के बड़े-बड़े विद्वानों की ओर से ऐसी कोई पहल देखने को नहीं मिली।
मुझे लगता है कि इन मतभेदों को हवा देने की बजाय हमें एक-दूसरे को क़रीब से समझना चाहिए। अब न तो हज़रत अली(रज़ि)हैं और न ही उनसे पहले के तीन ख़लीफ़ा, इसलिए इस मुद्दे पर लड़ाई इस्लाम को कमज़ोर कर रही है। ख़िलाफ़ते राशिदा इस्लाम के इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है। चारों खलीफाओं ने पैगंबर मुहम्मद ﷺ के रास्ते पर अपनी ओर से खिलाफत की व्यवस्था चलाने के लिए मजबूत और ईमानदार प्रयास किए, इसके लिए उन्हें शहीद भी कर दिया गया। खिलाफत के पूरे काल में तीनों खलीफाओं द्वारा हज़रत अली ( रज़ि ) के मुँह से एक भी वाक्य नहीं निकला, जिससे यह अनुमान लगाया जा सके कि इन तीनों ने हज़रत अली ( रज़ि ) के साथ दुर्व्यवहार किया था।हज़रत अली (रज़ि )की ज़बान से ही नहीं,बल्कि अहले बैत या आपके परिवार के किसी सदस्य की भाषा या उनके किसी भी रवैये से ऐसा नहीं लगा कि हज़रत अली (रज़ि ) के साथ कोई अन्याय हुआ हो। बल्कि हज़रत अली(रज़ि) अपने से पहले के तीनों ख़लीफ़ाओं की परिषद के सम्मानित सदस्य थे।तथा उनके पक्ष में थे । ग़दीर खुम के स्थान पर रसूल द्वारा कहे गए शब्दों का मतलब अगर खिलाफत था तो यह कैसे संभव होसकता है कि जिन सहाबियों ने पैगम्बर के एक इशारे पर अपनी जान कुर्बान कर दी हो , उन्होंने उस पर अमल नहीं किया। पैगम्बर की आंखें बंद होते ही उनके करीबी दोस्त हज़रत अबू बक्र सिद्दीक(रज़ि) यदि कोई बेईमानी कर सकते हैं तो फिर इस्लामी इतिहास के सभी संग्रह जला दिये जाने चाहिए। अगर अदले फ़ारूक़ी हज़रत अली (रज़ि) के साथ अन्याय कर सकता है, तो हमें इस्लाम धर्म से न्याय की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए। हज़रत उस्मान ग़नी (रज़ि) जैसा इंसान, जो अपनी सत्ता बचाने के लिए अपने जालिमों और विरोधियों को तलवार उठाने की इजाज़त नहीं देता, बल्कि ख़ुद शहीद होना पसंद करता है , वह हज़रत अली (रज़ि) के साथ कैसे अन्याय कर सकते हैं? यह भी याद रखना चाहिए कि शहादत के समय हज़रत उस्मान (रज़ि) की सुरक्षा सैय्यदना हसन और हुसैन ( रज़ि) कर रहे थे ।
हज़रत अली (रज़ि) की मुहब्बत में ख़लीफ़ाओं और सहाबियों की निंदा करने वाले लोग जनता को यह क्यों नहीं बताते कि इन बुज़ुर्गों के बीच क्या रिश्ते थे? इस छोटे से लेख में सभी रिश्तों का उल्लेख संभव नहीं है। मैं चारों खलीफाओं के बीच मौजूद दो चार रिश्तों का उल्लेख करता हूं। इससे पाठक यह अनुमान लगा सकते हैं कि वे सभी आपस में घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे। ये रिश्ते सिर्फ पैगम्बर के जीवन काल तक ही सीमित नहीं थे ,बल्कि, यह उनके बाद के उन कालखंडों में भी स्थापित किया गये थे , जब शियाओं के अनुसार, अली (रज़ि) के अधिकार हड़पने वाले सत्ता में थे। यदि हज़रत अली का हक़ मारा गया होता तो वे उन लोगों से रिश्ता कैसे जोड़ सकते थे जिन्होंने उनका हक़ मारा था?
हज़रत अली (रज़ि )की शादी में हज़रत अबू बकर (रज़ि )और हज़रत उमर (रज़ि )की कोशिशें शामिल थीं। इन दोनों के अनुरोध पर हज़रत अली (रज़ि )ने पवित्र पैगंबर(SAW) से हज़रत फातिमा (रज़ि )का हाथ मांगा। ये दोनों सज्जन इस शादी के गवाह थे। उस्मान (रज़ि )और अली (रज़ि ) हमज़ुल्फ़ (साढ़ू )हैं। हज़रत अली (रज़ि)ने अपने भाई जाफ़र तय्यार (रज़ि )की शहादत के बाद उनकी विधवा यानी उनकी भाभी अस्मा बिन्त उमैस (रज़ि) की शादी अबू बक्र (रज़ि) से करदी थी। जिनसे एक लड़का मुहम्मद पैदा हुआ था। हज़रत अबू बक्र सिद्दीकी (रज़ि)की मृत्यु के बाद, अस्मा बिन्त उमैस का विवाह हज़रत अली (रज़ि) से हुआ। हज़रत अली (रज़ि) मुहम्मद बिन अबू बक्र के बारे में कहते थे, “मुहम्मद अबू बक्र की पुश्त से मेरा बेटा है।”आमतौर पर जिस व्यक्ति से नफरत की जाती है उसकी विधवा से शादी नहीं की जाती न ही उसके निकाह में अपनी इज़्ज़त दी जाती है, लेकिन अपने भाई की शहादत के बाद हज़रत अली (रज़ि )ने उसकी विधवा यानी अपनी भाभी का विवाह अबू बक्र (रज़ि ) से कर दिया और अबू बक्र की मृत्यु के बाद उन्होंने उसी विधवा से खुद विवाह किया और अबू बक्र के बेटे को पिता बनाकर पाला ,सैय्यिदना हुसैन बिन अली (रज़ि )अब्दुल -रहमान बिन अबी बक्र (रज़ि )के दामाद थे। यानी अबू बक्र की पोती सैय्यदा हफ्सा बिन्त अब्दुल रहमान की शादी अली (रज़ि )के बेटे हुसैन (रज़ि) से हुई थी। सैय्यदना अबू बक्र की परपोती उम्मे फराह बिन्त अस्मा’ बिन्त अब्दुल रहमान की शादी सैय्यदना अली के परपोते बाक़र बिन ज़ैनुल -अबिदीन बिन हुसैन बिन अली (रज़ि )से हुई थी। जिनसे सैयदना जाफ़र सादिक (रह०) का जन्म हुआ , वही जाफ़र सादिक (रह०) जो शियाओं के सबसे बड़े इमाम हैं, इस तरह अबू बक्र (रज़ि) जाफ़र सादिक(रह०) के परनाना बन गये दूसरे ख़लीफ़ा हजरत उमर फारूक (रज़ि) हजरत अली (रज़ि) के दामाद हैं। हज़रत अली (रज़ि )की बेटी सैय्यदा उम्म कुलसूम की शादी उमर (रज़ि )से हुई थी। इस प्रकार, उमर (रज़ि ) पैगंबर की नवासी के पति, अली (रज़ि )के दामाद और हसन और हुसैन (रज़ि ) के बहनोई बन गये । हज़रत उस्मान की बेटी सैय्यदा आयशा बिन्त उस्मान (रज़ि ) की पहली शादी हुसैन बिन अली (रज़ि )से हुई थी उनकी मृत्यु के बाद हसन बिन अली (रज़ि )से हुई थी। इस प्रकार हसन और हुसैन (रज़ि ) दोनों उस्मान (रज़ि )के दामाद हैं, यानी उस्मान (रज़ि ) हज़रत मुहम्मद ﷺ के दामाद हैं, और हसन और हुसैन (रज़ि ) उस्मान (रज़ि) के दामाद हैं। हज़रत उस्मान (रज़ि )के पोते सैय्यदना अब्दुल्ला बिन अम्र बिन उस्मान की शादी अली (रज़ि ) की पोती सैय्यदा फातिमा बिन्त हुसैन बिन अली (रज़ि) से हुई थी। हज़रत उस्मान (रज़ि ) के दूसरे पोते सैय्यदना ज़ैद बिन अम्र बिन उस्मान (रह०) की शादी अली की दो पोतियों, सैय्यदा सकीना बिन्त हुसैन बिन अली और सैय्यदा फातिमा बिन्त हुसैन बिन अली से हुई थी। हज़रत उस्मान (रज़ि) के पोते मारवान बिन अबान बिन उस्मान की शादी अली (रज़ि )की पोती उम्मे कासिम बिन हसन बिन अली से हुई थी। हज़रत उस्मान के बेटे अबान बिन उस्मान की शादी अली के भाई जाफ़र तय्यार (रज़ि )की पोती उम्म कुलसूम से हुई थी। इतना ही नहीं, हज़रत अमीर मुआविया (रज़ि) और हज़रत अली (रज़ि) के बीच भी रिश्ते दारियाँ थीं।
मैं दोनों समूहों के लोगों से अनुरोध करता हूं कि वे इन मुद्दों पर गंभीरता से विचार करें। समय और परिस्थितियों के साथ-साथ इस्लामी शिक्षाओं की भी मांग है कि हम आपसी मतभेदों को दूर रखते हुए अक़ीदे और इस्लाम के रिश्ते में भाई-बहन बने रहें। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के मंच पर मुसलमानों के बीच एकता का जो प्रदर्शन किया जाता है ,काश उलेमा इसका व्यावहारिक स्वरूप भी अपने समाज में स्थापित करें।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं )