क्या होगा बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ नारे का? जब इनकी सुरक्षा का पुख्ता प्रबंध ही न हो!
अशोक भाटिया
अखबारों की सुर्खियों पर नजर डालें तो हर रोज कोई न कोई लड़की शोहदों की छेड़खानी से त्रस्त होकर आत्महत्या कर लेती है। कहीं बलात्कार हो रहे हैं तो कहीं पर सड़कों पर हत्याएं हो रही हैं। बुलेट सवार शोहदों जैसे लोग हर सड़क पर, हर चौराहे पर और हर गली में घात लगाए बैठे हैं। ऐसे लोगों के खिलाफ न समाज उठ रहा है और न ही प्रशासन। उत्तर प्रदेश में तो गुंडाराज हर रोज सीमाएं पार कर रहा है। इस राष्ट्र ने आज तक नारी गरिमा को नहीं जाना, नारी व्यथा को नहीं समझा, इसलिए राष्ट्र चाहे कितनी तरक्की करे, वह कभी शांति से नहीं रह सकता। सवाल यह है कि समाज की मानसिकता हिंसक क्यों हो रही है। लाख कानून कड़े बना दिए फिर भी हमारी बेटियां सुरक्षित नहीं। पहले गाजियाबाद में भांजी को छेड़खानी से बचाने के दौरान पत्रकार विक्रम जोशी की हत्या को लोग भूल भी नहीं पाए थे कि बुलंदशहर की घटना से एक बार फिर राज्य के अभिभावकों का कलेजा कांप गया है।
अमेरिका में पढ़ाई करने वाली गौतम बुद्ध नगर के दादरी की रहने वाली सुदीक्षा भाटी की सड़क हादसे में मौत ने एक बार फिर बहुत से सवाल खड़े कर दिए हैं। यह हादसा कोई आम सड़क हादसा नहीं था। सुदीक्षा एक होनहार प्रतिभाशाली छात्रा थी। उसने 12वीं कक्षा में बुलंदशहर में टॉप किया था। उच्च शिक्षा के लिए उसका चयन अमेरिका के कालेज में हुआ। पढ़ाई के लिए सुदीक्षा को एचसीएल की तरफ से 3 करोड़ 80 लाख की स्कालरशिप दी गई थी। सुदीक्षा बेहद गरीब परिवार से थी। वह छुट्टियों पर घर आई हुई थी कि सड़कों पर गुंडाराज ने उसकी जान ले ली। वह शिक्षा प्राप्त कर ऊंची उड़ान भरना चाहती थी, लेकिन बुलेट बाइक पर सवार शोहदों ने उसका पीछा करना शुरू कर दिया। जब वह चाचा के साथ बाइक पर मामा के घर जा रही थी। बुलेट पर सवार लड़के उस पर भद्दे कमेंट पास कर रहे थे और सिरफिरे स्टंट भी कर रहे थे। इसी दौरान बुलेट सवार युवकों ने अपनी बाइक की ब्रेक लगा दी और उसकी टक्कर सुदीक्षा की बाइक से हो गई। इससे घायल हुई सुदीक्षा ने मौके पर ही दम तोड़ दिया। इस तरह सम्भावनाओं से परिपूर्ण एक लड़की का अस्तित्व मिटा दिया गया।
हर बदलती चीज अपना प्रभाव या कुप्रभाव जरूरत छोड़ती है। बदलती संस्कृति इस बात का गवाह है कि इसके साइड इफैक्ट अब हमारे सामने हैं। आज हम इस बात की हुंकार भरते हैं कि हम आधुनिक हो गए हैं, लेकिन स्कूल गई अपनी लाडली को घर लौटने को लेकर सशंकित रहते हैं। अभिभावक अपने बेटों को नारी गरिमा का सम्मान देने के संस्कार नहीं दे पा रहे हैं।
आज भी लोग बेटियों के आंसुओं के कारणों की तलाश करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। विडम्बना यही है कि समाज आज भी महिलाओं को भोग की वस्तु मानकर दांव पर लगाता रहता है। हम कितना भी 21वीं सदी में जीने का दंभ पाले हुए हों लेकिन मानसिक रूप से बीमार और कुंठित हो चुके हैं। देश में आए दिन असामाजिक तत्व ऐसी घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं और हर बार मोमबती जलाकर उस दिवंगत आत्मा को श्रद्धांजलि देते हैं। बलात्कारियों के पुलिस मुठभेड़ में मार गिराए जाने पर जश्न मनाते हैं, मिठाइयां बांटते हैं। समय बीतने के साथ-साथ समाज फिर सामान्य हो जाता है। पीड़ित बेटियों को इंसाफ दिलाने की लड़ाई केवल उसके परिवार की नहीं है बल्कि समाज की भी है। जो लोग देश की बेटियों को अपमानित करते हैं, छेड़छाड़ करते हैं या फिर बलात्कार करते हैं वह नरपशु और धनपशु प्रकृति से ऐसी सजा पाएंगे कि पुश्तों तक गर्मी शायद शांत हो जाए। समाज में नारी अस्मिता, गरिमा का सम्मान करने की मानसिकता कैसे सृजित की जाए, यह सवाल समाज के सामने है।
अशोक भाटिया,
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