लखनऊ
उत्तर प्रदेश सरकार ने अगर त्रिस्तरीय सर्वे कराया होता और संविधान सम्मत आरक्षण की व्यवस्था एससी, एसटी और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए की होती तो माननीय उच्च न्यायालय को सरकार के 5 दिसम्बर 2022 के नोटिफीकेशन को रद्द न करना पड़ता और नगर निकाय के चुनाव में यह जटिलता न आती। आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ) ने कहा कि माननीय उच्चतम न्यायालय ने अन्य पिछड़ा वर्ग के त्रिस्तरीय सर्वे की पूर्व शर्त मानी है तब उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा इस व्यवस्था को नकार कर आरक्षण के लिए अधिसूचना जारी करना उसके गैर लोकतांत्रिक व्यवहार का ही प्रमाण है। यह साबित करता है कि सरकार का विधि के शासन में विश्वास नहीं है। आदतन उत्तर प्रदेश सरकार गैर लोकतांत्रिक आचरण पिछले छः वर्षो से करती चली आ रही है।

आइपीएफ एससी-एसटी को आबादी के आधार पर आरक्षण की मांग को पुनः दोहराता है। इसी संदर्भ में आइपीएफ ने माननीय उच्च न्यायालय में जनहित याचिका भी दायर की थी। ज्ञातव्य है कि शहरों में अनुसूचित जाति की संख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 22 प्रतिशत है फिर भी उन्हें 14 प्रतिशत ही निकाय में सीटें आरक्षित की गई। मामला यहां तक पहुंच गया कि इटावा जैसे जिले में जहां अनुसूचित जनजाति की आबादी ही नहीं है वहां भी उनके लिए सीट आरक्षित कर दी गई और कोल जैसी अनुसूचित जनजाति को अनुसूचित जानजाति में शामिल कराने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार तैयार नहीं है जबकि इस सम्बंध में आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट जैसे संगठनों ने सरकार को कई बार प्रत्यावेदन दिया है।