योगी के कोविड मॉडल का सच
राजेश सचान युवा मंच
उत्तर प्रदेश में कोविड-19 के एक लाख बेड तैयार कर लेने को महामारी के खिलाफ बड़ी तैयारी के बतौर प्रचारित किया जा रहा है। कोविड महामारी से निपटने के लिए तैयारियों का आकलन समग्र हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर के आधार पर ही किया जा सकता है न कि जैसे तैसे बेड तैयार कर देने से। इसलिए इन तैयारियों का विश्लेषण करते हुए समग्रता में यह देखना चाहिए कि प्रदेश का हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर कोविड-19 और सभी प्रकार की बीमारियों से निपटने के लिए कितना सक्षम है। हालांकि कोविड-19 महामारी है और अन्य बीमारियों से इसकी तुलना नहीं की जानी चाहिए, लेकिन गंभीर बीमारियों और अन्य संक्रामक रोगों के ईलाज में लापरवाही के गंभीर नतीजे हो सकते हैं जिसका विपरीत असर कोविड से जंग पर भी हो सकता है। हमारे पास हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर इस प्रकार है: प्रदेश में ग्रामीण क्षेत्रों में 4442 अस्पताल और 39104 बेड, शहरी क्षेत्र में 193 अस्पताल व 37156 बेड उपलब्ध हैं।(मिनिस्ट्री ऑफ हेल्थ एण्ड फैमिली वेलफेयर के 31 मार्च 2017 का डेटा के अनुसार)। इस तरह प्रदेश में 2904 की आबादी पर एक बेड (पब्लिक हेल्थ) उपलब्ध है। अगर निजी अस्पतालों व चिकित्सकों को भी जोड़ दिया जाये तो भी प्रदेश में हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर सामान्य परिस्थितियों में भी ईलाज के लिए पर्याप्त नहीं है। इसके अलावा अभी भी गंभीर बीमारियों के लिए मेडिकल कॉलेज प्रमुख स्वास्थ्य केंद्र हैं और सरकारी ओपीडी में आम दिनों में लाखों मरीज प्रतिदिन ईलाज के लिए आते हैं। मीडिया रिपोर्ट्स हैं कि अकेले लखनऊ में प्रति दिन सरकारी अस्पतालों में 10 हजार से ज्यादा मरीज ओपीडी में ईलाज हेतु आते हैं। कोविड-19 महामारी के बाद सरकारी और निजी अस्पतालों में भी ओपीडी बंद कर दिया गया है। अप्रैल में ही उत्तर प्रदेश सरकार ने मेडिकल हेल्थ डिपार्टमेंट से 17 हजार और मेडिकल हेल्थ एजुकेशन से 35 हजार बेड कुल 52 हजार बेड को कोविड-19 बेड में रूपांतरण कर दिया गया था। इसके अलावा कुछेक निजी मेडिकल कालेज और निजी अस्पतालों को भी कोविड अस्पताल घोषित किया गया है। निजी अस्पताल का स्टाफ ही हेल्थ वर्कर के बतौर काम करेगा। इसके अलावा सरकार द्वारा स्कूल व कालेजों का कोविड वार्ड में बदलाव किया गया है। अकेले मेरठ में 9 इंटर कॉलेज, स्कूल व महाविद्यालय को कोविड वार्ड में बदलाव किया गया है जिसमें कुल 2 हजार बेड होंगे। इसी तरह हरदोई के केंद्रीय विद्यालय मलिहा मऊ को 200 बेड के कोविड अस्पताल में बदल दिया गया है जिसमें 25 हेल्थ वर्कर की तैनाती की गई है। इसी तरह अन्य जनपदों में भी स्कूल व कालेज को कोविड वार्ड में तब्दील किया गया है और आधी-अधूरी तैयारियों के साथ कोविड-19 के लिए एक लाख बेड की संख्या के आधार पर प्रोपेगैंडा किया जा रहा है कि प्रदेश में बेहतरीन तैयारी है।
असली सवाल है कि क्या किसी तरह के चिकित्सकों व हेल्थ वर्कर्स में बढ़ोतरी की गई है, अभी तक इसकी जानकारी नहीं है। डब्ल्यूएचओ ने 30 जनवरी को कोविड-19 को लेकर इमर्जेंसी घोषित किया था। भारत में पहला कोरान केस भी मिल चुका था। कोविड खतरे की चेतावनियों के बावजूद उत्तर प्रदेश सरकार ने फरवरी में 2020-21 के पारित बजट में गत वर्ष के सापेक्ष मामूली बढ़ोतरी कर 5.3 फीसद से 5.5 फीसद किया (इसमें हेल्थ व फैमिली दोनों शामिल हैं)।
अभी तक ऐसी जानकारी नहीं है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने कोविड-19 के संबंध में मौजूदा बजट के अलावा किसी तरह का अतिरिक्त संसाधन मुहैया कराया हो। जो हमारे प्रदेश का हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर और बजट है वह सामान्य परिस्थितियों में भी नागरिकों की जरूरतों को पूरा करने में सक्षम नहीं है। अमूमन प्रदेश भर में ग्रामीण अंचल में हेल्थ सेंटर बेहद खराब स्थिति में हैं, इन हेल्थ वर्कर्स के पास कोविड-19 जैसे संक्रामक बीमारी के ईलाज के लिए प्रशिक्षण और अनुभव भी पर्याप्त नहीं है। हमारे पास जितना हेल्थ वर्कर्स व चिकित्सकों का स्टाफ है वह पहले से ही संचालित अस्पतालों के संचालन के लिए पर्याप्त नहीं हैं। खासकर ग्रामीण व छोटे जनपदों में जो स्वास्थ्य केंद्र हैं उनमें चिकित्सकों की भारी कमी पहले से है। अभी तक ऐसी कोई जानकारी नहीं है कि प्रदेश सरकार द्वारा कोविड महामारी से निपटने के लिए अतिरिक्त बजट आवंटन किया हो तब हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे चिकित्सक, हेल्थ वर्कर्स, वेंटिलेटर, सेनीटाईजर मशीन से लेकर और गुणवत्ता युक्त पीपीई किट आदि की कमी तो होगी। दरअसल स्कूल, कालेज में बेड तैयार करने, कुछेक निजी अस्पतालों से कोविड के ईलाज के लिए एग्रीमेंट और मौजूदा सरकारी हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर को कोविड-19 के ईलाज के लिए सिवाय तब्दील करने अतिरिक्त कोई तैयारी तो दिखती नहीं है जो नोट करने लायक हो।
ऐसे में कोविड-19 मरीजों को डील करने लायक चिकित्सक समेत हेल्थ वर्कर्स की हमारे पास भारी कमी तो है ही ऊपर से हेल्थ वर्कर्स को गुणवत्ता युक्त पीपीई किट, सेनेटाईजर मशीन ,वेंटीलेटर से लेकर अन्य मेडिकल उपकरणों की भारी कमी है। संसाधनों की घोर कमी से हमारे हेल्थ वर्कर्स जूझ रहे हैं। पर कार्यवाही के डर से इन तमाम सवालों पर खुलकर मुखर हो कर आवाज नहीं उठा पाते हैं। अभी तक काफी तादाद में हेल्थ वर्कर्स भी इन्हीं खामियों के चलते संक्रमित हो चुके हैं। हालत यह है कि जब अभी बेहद कम एक्टिव मरीज भर्ती हैं तब भी अव्यवस्था की शिकायतें आती रहती हैं और मरीजों द्वारा परेशान होकर हंगामा करने की भी सूचनाएं हैं। इसी प्रकार प्रवासी मजदूरों और अन्य नागरिकों के लिए बनाये गये क्वांरनटीन सेंटरों में भी दुर्दशा की खबरें मीडिया में आती रहती हैं। वैसे भी अन्य प्रदेशों से आने वाले ज्यादातर लोगों को थर्मल स्क्रीनिंग जांच कर उन्हें होम क्वांरनटीन के लिए कह दिया जाता है। यह प्रदेश में मरीजों की संख्या में ईजाफा होने की वजह बन सकता है।
आम तौर पर पूरे सरकारी स्वास्थ्य महकमे को कोविड-19 के लिए आरक्षित कर दिया गया है। लाकडाउन के बाद से ही सरकारी व निजी अस्पतालों में ओपीडी बंद हैं और गंभीर बीमारियों का भी ईलाज नहीं हो पा रहा है। महज कुछ आपातकालीन सेवाओं को ही चालू रखा गया है। अनलॉक दौर में भी उत्तर प्रदेश सरकार ने जो कल नई गाईडलाईन जारी की है उसमें भी ओपीडी संचालन का जिक्र नहीं है सिर्फ निजी अस्पताल को स्वास्थ्य विभाग की अनुमति से गंभीर मरीजों के ईलाज की अनुमति प्रदान करने का प्रावधान है। जब सभी प्रकार की गतिविधियों की छूट प्रदान कर दी गई है तब ओपीडी बंद रखना और सरकारी व निजी अस्पतालों में ओपीडी चालू न करना और मरीजों को भर्ती कर ईलाज की इजाजत न देना समझ से परे है।
कोविड-19 से निपटने की तैयारियों की घोषणायें और पेपर वर्क और जमीनी हकीकत में बड़ा फर्क है। इसे जमीनी स्तर से मिली जानकारी से समझ सकते हैं। बस्ती जनपद में कार्यरत एक चिकित्सक ने जानकारी दी कि वहां लेवल-1, लेवल-2 व लेवल-3 तीनों प्रकार के बेड हैं, 12 वेटीलेटर पहले से थे, 8 हाल में खरीदे गये हैं, लेकिन सेनिटाईजर मशीन नहीं है। जिसकी वजह से कोविड-19 के आरटी-पीसीआर टेस्ट को गोरखपुर भेजना पड़ता है जबकि बस्ती जनपद में कोविड मरीजों की संख्या अपेक्षाकृत काफी है। सेनिटाईजर मशीन न होने से पीपीई किट का उपयोग करना भी मुमकिन नहीं होगा। इसी तरह कहीं पीपीई किट नहीं है तो कहीं अन्य जरूरी उपकरण। अगर पीपीई किट, सेनीटाईजर मशीन एवं जरूरी इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी होगी तो संक्रमण के इतने बड़े जोखिम में हेल्थ कर्मियों के लिए काम करना ही मुश्किल हो जायेगा। सोनभद्र, चंदौली जैसे पिछड़े जनपद जो हमारें सघन कामकाज का क्षेत्र है, इस पिछड़े अंचल में पहले से ही स्वास्थ्य सेवायें खस्ताहाल हैं। सोनभद्र जनपद की आबादी 20 लाख से ज्यादा है, लेकिन पूरे जनपद में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में ईलाज के लिए उपलब्ध रहने वाले चिकित्सकों की संख्या 50 से ज्यादा नहीं है। इसमें भी आदिवासी बाहुल्य सबसे पिछड़े क्षेत्र दुद्धी, कोन व भाठ क्षेत्र में तो हालात और खराब हैं। इन क्षेत्रों में हर साल संक्रामक बीमारियों खासकर मलेरिया से सैकड़ों लोगों की मौंते होती हैं। जनपद के मुख्यालय में स्थित जिला अस्पताल में ट्रामा सेंटर में क्वारंटाईन व आइसोलेशन वार्ड बनाये गये हैं, इसके अलावा मुख्यालय से 20 किमी दूर मधुपुर में कोविड-19 लेवल-1 अस्पताल बनाया गया है. गौरतलब है कि यह हेल्थ सेंटर पहले से ही खस्ताहाल है, यहां सामन्य मरीजों के ईलाज लायक भी इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं है। कोविड मरीजों को मिर्जापुर भेज दिया जा रहा है और कोविड-19 की आरटी-पीसीआर टेस्टिंग के लिए बीएचयू भेजा जाता है। चंदौली में भी सरकारी अस्पतालों में मात्र 4 वेंटीलेटर और एल-1 व एल-2 के करीब 80 बेड होने की जानकारी मिल रही है। यहां भी कोविड-19 टेस्टिंग की व्यवस्था नहीं है। कमोवेश बुंदेलखंड से लेकर प्रदेश के तमाम पिछड़े इलाकों में इससे भिन्न स्थिति नहीं है। स्वास्थ्यकर्मियों व लोगों से लेकर मीडिया रिपोर्ट्स में इसी तरह की सूचनायें पूरे प्रदेश भर से हैं।
अनलॉक दौर में भी कंटेनमेंट जोन में आपातकालीन सेवाओं के अतिरिक्त किसी तरह की गतिविधि की ईजाजत नहीं है। हृदय, कैंसर आदि गंभीर रोगियों को छोड़ कर अन्य किसी तरह के मरीजों के लिए न तो जोन से बाहर निकलने की ईजाजत है और न ही ऐसे मरीजों के ईलाज के लिए कोई वैकल्पिक इंतजाम ही किया गया है। ऐसे में संक्रामक व अन्य बीमारियां का ईलाज अगर उचित समय पर उपलब्ध नहीं हुआ तो ईलाज के अभाव में लोगों की मौत हो सकती हैं।
लाकडाउन की अवधि में इन्हीं हालातों में गंभीर बीमारियों से ईलाज के अभाव में तमाम मरीजों की मौंते हुई हैं। मीडिया व सोशल मीडिया में रिपोर्ट्स हैं कि गंभीर रोगों के लिए जैसे तैसे निजी अथवा सरकारी चिकित्सकों से ईलाज संभव भी हुआ तो उन्हें पहले की तुलना में 4 गुना से भी ज्यादा भुगतान करना पड़ा, इस मामले में भ्रष्टाचार के पनपने की भी जानकारी मिल रही है। अगर ईलाज के लिए वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की गई तो ऐसी स्थिति में मानसून के साथ फैलने वाली संक्रामक बीमारियों के प्रकोप से होने वाली मौंतों में अप्रत्याशित तौर पर पर बढ़ोतरी हो सकती है। हम लोगों ने सोनभद्र जैसे जनपदों में देखा है कि मलेरिया, टायफायड, टीबी जैसी संक्रामक बीमारियों से हर साल सैकड़ों लोगों की मौंते होती हैं खासकर इसके अति पिछड़े व दुर्गम भाठ व कोन क्षेत्र में अगर सरकार ने ईलाज के लिए वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की तो हालात बहुत खराब हो सकते हैं। इसलिए सरकार को बताना चाहिए कि जब अमूमन पूरे सरकारी हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर को कोविड-19 के लिए आरक्षित कर दिया गया है तब गंभीर बीमारियों और अन्य संक्रामक बीमारियों के प्रकोप से निपटने के लिए सरकार के पास क्या वैकल्पिक इंतजाम है? लोगों को मरने के लिए छोड़ा तो नहीं जा सकता है।
उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर मजदूर वापस लौटे हैं और मजदूरों के अच्छी खासी तादाद में संक्रमित होने की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता है। इसलिए सवाल एक लाख बेड का नहीं है बल्कि कैसे ग्रामीण स्तर से लेकर कस्बों, शहरों तक के सभी प्रकार के अस्पताल फंक्शनल हों, उनमें पर्याप्त चिकित्सक व हेल्थ वर्कर्स नियुक्त हों। पीपीई किट, सेनीटाईजर मशीन से लेकर सभी प्रकार के मेडिकल उपकरण की कमी न रहे। बाहर से लौटे मजदूरों की कोविड-19 की जांच कराना बेहद जरूरी है। इसके लिए अभी भी वक्त है, इससे संक्रमित मजदूरों को अलग कर उनका ईलाज किया जा सकता है अन्यथा मानसून शुरू होते ही संक्रमण का खतरा और बढ़ जायेगा। चाहे वर्कर्स फ्रंट हो, मजदूर किसान मंच, आईपीएफ, युवा मंच या फिर हमारा संगठन स्वराज अभियान हो, बराबर मांग करते रहे हैं कि सरकार इस पर ध्यान दे, ताकि समय रहते महामारी को बढ़ने से रोका जा सके और लोगों की जिंदगी की रक्षा हो सके।
राजेश सचान, युवा मंच
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