देश की आजादी में उलमाओं के बलिदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता
डॉक्टर मोहम्मद नजीब कासमी सम्भली
भारत में विभिन्न रंगों के, विभिन्न भाषा बोलने वाले और विभिन्न धर्मों के मानने वाले लोग लम्बे समय से रहते चले आ रहे हैं। मक्का मुकर्रमा में जन्मे हजरत मोहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अंतरराष्ट्रीय नबूवत से सरफराज किया गया अर्थात् आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को सम्पूर्ण विश्व और कयामत तक आने वाले सभी इंसानों और जिनों के लिए नबी बनाकर भेजा गया। अन्तिम नबी हुजूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की जिंदगी में तो इस्लाम का पैगाम भारत तक नहीं पहुंच सका, परन्तु आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वफात के केवल 82 वर्ष बाद हजरत मोहम्मद बिन कासिम के जरिये सिंध के रास्ते से इस्लाम भारत में सातवीं शताब्दी में अर्थात् 92 हिजरी में आ गया था। उस समय पाकिस्तान और बांग्लादेश भारत का ही हिस्सा थे। हजरत मोहम्मद बिन कासिम के व्यवहार और भाईचारे से प्रभावित होकर आज से करीब 1350 वर्ष पहले भारत की अच्छी खासी जनता ने इस्लाम धर्म को कबूल किया और तब से ही मुसलमान अपने दूसरे देशवासियों के साथ इस देश में रहते चले आ रहे हैं। भारत की गंगा-जमनी तहजीब की पूरी दुनिया में मिसाल पेश की जाती है कि सैकड़ों वर्षों से विभिन्न धर्मों के रहने वाले लोग मिल जुल कर देश की तरक्की में भाग लेते हैं।
छःसौ वर्षों से अधिक इस देश में मुसलमानों ने शासन भी किया है। 1526 से 1857 तक मुगलिया सलतनत का दौर बाबर बादशाह से शुरू होकर बहादुर शाह जफर तक रहा। इस से पहले गुलाम परिवार ने 1206 से 1290 तक, खिलजी परिवार ने 1290 से 1321 तक, तुगलक परिवार ने 1321 से 1412 तक, सैयद परिवार ने 1412 से 1451 तक और लोधी परिवार ने 1451 से 1526 तक देहली पर हुकुमरानी की थी। इस प्रकार एक लम्बी अवधि तक मुसलमानों ने इस देश पर राज किया परंतु कभी भी हिन्दू – मुस्लिम फसाद बरपा नहीं हुआ, बल्कि गंगा जमनी तहज़ीब के आलोक में धर्म की बुनियाद पर किसी के साथ ताअस्सुब का बरताव नहीं किया गया और प्रत्येक धर्म के अनुयायी को उसके धर्म की शिक्षा के अनुसार कार्रवाई करने की अनुमति दी गई।
मुगल बादशाह जहाँगीर के शासनकाल में अंग्रेज भारत आए थे और शाहजहां के शासनकाल में अंग्रेजों ने विधिवत् व्यापार आरम्भ कर दी थी। ईस्ट इंडिया कंपनी ने व्यापार की आड़ में धीरे धीरे हथियार और फौजियों को भारत लाना आरम्भ कर दिया, परंतु देहली में स्थापित मुगल सलतनत इतनी मजबूत थी कि अंग्रेजों को बहुत ज्यादा कामयाबी नहीं मिली, परंतु भारत में सबसे बड़े क्षेत्र पर शासन करने वाले शाहजहां के बेटे औरंगजेब आलमगीर की मृत्यु के बाद मुगलिया सलतनत कमजोर होने लगी। चुनांचे अठारहवीं शताब्दी में मुगलिया सलतनत का जैसे ही जवाल शुरू हुआ शातिर अंग्रेजों ने पूरे देश पर कब्जा करने के प्लान पर अमल करना शुरू कर दिया। अंग्रेजों के खतरनाक प्लान को भांप कर भारत के मुजाहिदों ने अंग्रेजों का मुकाबला करना आरम्भ कर दिया। शेरे बंगाल नवाब सिराजुद्दौला और शेरे मैसूर टीपू सुल्तान की शहादत के बाद अंग्रेजों के जुल्म और बढ़ गए और धीरे धीरे देहली के साथ देश के अधिकतर भाग पर उनका कब्जा हो गया।
इसी दौरान मशहूर मोहद्दिस शाह वलीउल्लाह के बड़े साहबज़ादे शाह अब्दुल अजीज ने अंग्रेजों जुल्मों को देखकर उनके खिलाफ जेहाद करने का एलान कर दिया, जिस के बाद उलेमा हजरात मैदान में उतर आए।
सैयद अहमद शहीद और शाह इस्माईल शहीद जैसे मुजाहिदीन आजादी ने जामे शहादत नोश किया। धीरे धीरे देश की आजादी के लिए आवाजें बलंद होने लगीं। जब अंग्रेजों ने भारतीयों को उनके हुकूक अदा करने में कोताहियां करनी शुरू कर दीं और जनसाधारण को अंग्रेज़ों की हुकूमत पर शंका होने लगी तब देश में अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने का विधिवत् कार्रवाई शुरू हो गई और 1857 में भारत के लोगों ने मिल-जुलकर अंग्रेजों के साथ जंग लड़ी, जिसमें मुस्लिम उलेमा अंग्रेजों के खिलाफ फतवा जारी करके डट कर उनके मुकाबले में खड़े हो गए। 1857 की अंग्रेजों के साथ जंग में देश तो आजाद नहीं हो सका, लेकिन भारत के रहने वाले, विशेषकर उलमा हजरात खुलकर मैदान में आगए।
1857 की जंग के समय भारत के बादशाह बहादुर शाह जफर थे जो अंग्रेजों से पहले अन्तिम भारतीय मुगल शासक थे, जिनके चारों बेटों का सर कलम करके अंग्रेजों ने जुल्म की इंतहा करके थाल में सजा कर उनके सामने पेश किया, और फिर बहादुर शाह जफर को धोखा देकर बंदी बनाकर भारत के सपूत को सदा के लिए रंगून भेज दिया।
1857 की जंग में अंग्रेजों से मुकाबला करने में चूंकि उलेमा ए कराम सबसे आगे थे इसलिए अंग्रेजों ने बदला भी उलेमा से लिया, चुनांचे चालीस हजार से अधिक उलेमा हजरात को फांसी के फंदे पर लटका दिया। उलेमा हजरात के साथ इस पाश्विक बर्बरता को देखकर उलेमा ए कराम की एक जमाअत ने अपने दीन और देश की रक्षा के लिए 30 मई 1866 को दारुल उलूम देवबंद की बुनियाद रखी, जिसके पहले तालिबे इल्म “शैखुल हिंद मौलाना महमूद हसन” ने तहरीके “रेशमी रूमाल” के जरिए अंग्रेजों का तख्ता पलटने का प्रयास किया। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने “अल हिलाल” और “अल बलाग” अखबारों के जरिए आजादी का बिगुल बजाया। महात्मा गांधी ने डांडी मार्च और सत्याग्रह का आंदोलन चलाया। 1942 में “अंग्रेजो भारत छोड़ो” आंदोलन चली।
1857 से देश की आजादी के लिए जो जंग अंग्रेजों के साथ शुरू हुई थी, आखिरकार 15 अगस्त 1947 को पूरी हुई। हमारा देश आजाद तो हुआ, मगर अफसोस कि देश एक न रह सका, पाकिस्तान और फिर बांग्लादेश की शक्ल में भारत से अलग हो गए। खैर हिन्दू मुस्लिम की सम्मिलित जद्दोजहद और उलेमा ए कराम की बेलौस कुरबानियों से यह देश आजाद हुआ। इस देश की आजादी के लिए हजारों उलेमा ए कराम और लाखों लोगों ने अपनी जान की कुर्बानी दी। इन्हीं मुजाहिदीने आजादी में मेरे दादा मोहतरम मौलाना मोहम्मद इस्माईल सम्भली रह0 भी हैं जिनकी तकरीरों से घबरा कर अंग्रेजों ने उन्हें कई बार कई साल जेल में रखकर तरह तरह की यातनाएं दीं।