विरासत की सियासत से कइयों के अरमान टूटे
फहीम सिद्दीक़ी
विरासत की सियासत कहें या राजनीति में परिवारवाद, यह हमेशा से एक बड़ा मुद्दा रहा है, इसके बावजूद राजनीति मे परिवारवाद लगातार हावी है। प्रदेश की सत्ता मे बैठी बीजेपी हो या विपक्ष मे बैठी सपा, कांग्रेस, या अन्य दल, सभी दलों मे परिवारवाद हावी है। सियासी दलों ने इससे फायदा भी उठाया और जब चाहा परिवारवाद को चुनावी मुद्दा भी बनाया। विरासत की सियासत के दम पर राजनीति कर रहे उत्तराधिकारी टिकट की चाहत में कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते है।
उत्तर प्रदेश के चुनाव का बिगुल बज चुका है. बाराबंकी मे पाँचवे चरण यानी कि 27 फरवरी को मतदाता मतदान करेंगे, ऐसे में विरासत की सियासत में बाराबंकी का कोई सानी नही है। यहाँ दलित नेतृत्व और नेताओ की बहुत कमी, खासकर युवाओं की. उसकी वजह है यहाँ के स्थापित दलित नेताओं द्वारा युवाओं को आगे बढ़ने का मौका न देना है। पिछले कई सालों से जो दलित नेता आंदोलन मे सक्रिय थे वह उदास और हताश हैं। सर्वजन की राजनीति के नाम पर दलित आंदोलन और मुद्दों को दरकिनार किया जा रहा है।
नौकरशाह से राजनेता बने डॉक्टर पी एल पुनिया विरासत के पौध के माली है। उनकी चले तो बाराबंकी की सभी 6 सीटों पर अपने पुत्र को टिकट दिला दें। वह अपने दलित बेटे को विधायक या सांसद बनाने के लिए पिछले कई चुनावों से कोशिश कर रहे है लेकिन उनकी कोशिश हर बार नाकाम हो जाती है। वर्ष 2017 का विधानसभा चुनाव 2019 का लोकसभा चुनाव एवं 2019 विधानसभा उपचुनाव के बाद अब एक बार अपने सियासी पहुँच के बलबूते पर जैदपुर विधानसभा से पुत्र तनुज पुनिया को टिकट दिलाकर तीसरी बार विधानसभा चुनाव लड़वा रहे है। यह इसलिए सम्भव हो पाया है क्योकि जिले में स्थापित दलित नेता नही चाहते कि बाराबंकी में कोई पढ़ा लिखा तेज तर्रार युवा दलित नेतृत्व विकसित हो। जब ऊपर से बहुत ज्यादा दबाव पड़ता है तो उसको टिकट दिला देते है जो उनके सामने समर्पण कर दे और उनकी सुने।
जिले के कई ऐसे युवा है जो दलित नेता और पार्टी के लिए अपना समय और कैरियर बर्बाद कर चुके है। दलित नेताओ को डर लगता है कोई युवा चेहरा आगे बढ़ेगा तो उनका क्या होगा इसलिए वह युवाओं को आगे बढ़ाते ही नही है। बाराबंकी में दलितों मे कद्दावर नेता डॉक्टर पी एल पुनिया को माना जाता है. ब्यूरोक्रेसी से लेकर सूबे की सियासत में पुनिया ने अहम रोल अदा किया है। कई सरकारों में मुख्यमंत्री के करीब रहकर सियासत को खूब समझा। सेवानिवृत्त होने के बाद कांग्रेस का दामन थाम लिया एवं 2007 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव मे फ़तेहपुर विधानसभा जो अब कुर्सी के नाम से जानी जाती है कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़कर सक्रिय राजनीति मे कदम रखा। चुनाव हार गए लेकिन कांग्रेस ने पुनिया को 2009 मे बाराबंकी सीट से लोकसभा का टिकट दे दिया। इसमे कोई दो राय नही कि 2007 से पुनिया बाराबंकी में बने रहे और अपने कार्यो और व्यवहार कुशल होने की वजह से लोगों के दिलों में खास जगह बनाई जिसके फलस्वरूप जिले में मृत पड़ी कांग्रेस में जान आई और लोकसभा चुनाव में डाक्टर पी एल पुनिया को जनता ने भारी मतों से विजयी बनाया। केंद्र में उन्हें अनुसूचित जन जाति आयोग का चैयरमेन बनाया गया।
2014 में मोदी लहर मे चुनाव हार गए, कांग्रेस ने उन्हें छत्तीसगढ़ का प्रभारी बनाया और राज्यसभा सांसद भी बनाया। यही समय था जब उन्होंने विरासत के वारिस को राजनीति का ककहरा सिखाया लेकिन अफसोस पिता की लाख कोशिशों के बावजूद पुत्र किसी सदन में नही पहुँच पाया पुनिया के पुत्र मोह से कई दलित युवाओं को राजनीति मे आगे बढ़ने का अवसर नही मिला। खासकर उन युवाओं को जिन्होंने सियासत को व्यवसाय नही जनसेवा समझा था ऐसे मे बाराबंकी का दलित युवा उदास एवं हताश है क्योकि उनका राजनीतिक करियर वंशवाद का शिकार हो गया।