लेटरल एंट्री पर सरकार की ढुलमुल नीति संविधान के लिए खतरा
(आलेख : एस एन साहू, अनुवाद : संजय पराते)
मोदी सरकार द्वारा यूपीएससी (संघ लोक सेवा आयोग) के विज्ञापन को वापस लेना और इसे सामाजिक न्याय और आरक्षण नीति से जोड़ना, वर्ष 2018 की लेटरल एंट्री (पिछले दरवाजे से भर्तियों) के परिप्रेक्ष्य में खोखला लगता है।
केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने यूपीएससी (संघ लोक सेवा आयोग) के अध्यक्ष को लिखे अपने पत्र में भारत सरकार के 45 पदों (10 संयुक्त सचिव और 35 उप सचिव और निदेशक स्तर के पद) में लेटरल एंट्री के लिए खुले बाजार से आवेदन मांगने वाले 17 अगस्त, 2024 के विज्ञापन को वापस लेने के लिए कहा है।
विज्ञापन वापसी को सामाजिक न्याय से जोड़ना नौटंकी
ऐसा करने के कारणों की व्याख्या करते हुए मंत्री ने कहा है कि नरेंद्र मोदी सरकार का इरादा सामाजिक न्याय के उद्देश्य के साथ लेटरल एंट्री को सुसंगत बनाना और जातिगत स्थिति और अन्य मौलिक पहचानों के कारण सामाजिक बहिष्कार से पीड़ित लोगों का सशक्तिकरण करना है।
वर्ष 2018 में खुले बाजार से 63 व्यक्तियों की लेटरल भर्ती के परिप्रेक्ष्य में केंद्रीय मंत्री का ऐसा रुख सामाजिक न्याय और प्रचलित आरक्षण नीति से जोड़े बिना बहुत खोखला लगता है। ज्यादा से ज्यादा, यह कहा जा सकता है कि “लेटरल एंट्री को सामाजिक न्याय के साथ जोड़ने” के लिए विज्ञापन वापस लेने के लिए मंत्री का औचित्य कांग्रेस, अन्य विपक्षी दलों और सबसे महत्वपूर्ण रूप से मोदी सरकार के दो सहयोगियों – जनता दल (यूनाइटेड) और लोक जन शक्ति पार्टी – जिनके बल पर सरकार टिकी हुई है, की बढ़ती आलोचना पर मात्र एक जवाबी-विचार है।
विपक्ष और भाजपा के दोनों सहयोगी दलों ने 45 लोगों की लेटरल एंट्री के मोदी सरकार के फैसले पर तीखी टिप्पणी की है और कहा है कि यह संविधान को बदलने और आरक्षण नीति को खत्म करने की भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार की बड़ी योजना का हिस्सा है। इस संदर्भ में याद करें कि इस साल मई में हुए 18वें आम चुनावों में कई राज्यों में लोगों ने संविधान और आरक्षण को बचाने को बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया था। मोदी सरकार को उस समय चिंता हुई, जब विपक्षी दलों और उसके दो सहयोगियों ने लेटरल एंट्री नीति को संविधान और सकारात्मक कार्रवाई पर हमला करने के उसी शरारती इरादे से जोड़ दिया।
इसलिए, विज्ञापन को वापस लेने का मोदी सरकार की सामाजिक न्याय के प्रति कथित प्रतिबद्धता से कोई लेना-देना नहीं है। वास्तव में, यह विपक्ष के इस कथन के कारण सरकार में व्याप्त भय को उजागर करता है कि मोदी सरकार द्वारा संविधान में बदलाव और आरक्षण नीति को समाप्त करना अभी भी जारी है, जबकि 18वें आम चुनावों में भाजपा बहुमत से दूर हो गई है।
मोदी सरकार में डर का गहराना
सरकार में डर तब और गहरा गया, जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 69,000 शिक्षकों के पदों पर उम्मीदवारों के चयन को चुनौती देने वाली याचिका पर अपने फैसले में कहा कि योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली राज्य की भाजपा सरकार ने शिक्षकों की भर्ती करते समय अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण नीति को जानबूझकर कमजोर किया और नकार दिया।
लेटरल एंट्री विज्ञापन और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले ने यह धारणा पैदा की है कि भाजपा आरक्षण के खिलाफ है और इस तरह की धारणा राष्ट्रीय स्तर पर काफी जोर पकड़ रही है। चुनाव के दृष्टिकोण से, ऐसी धारणा भाजपा के लिए घातक हो सकती है, क्योंकि लोकसभा में बहुमत खोने के बाद, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में होने वाले विधानसभा चुनाव में भी भाजपा के हारने की संभावना है। चुनावी हार के इसी डर ने मोदी सरकार को यूपीएससी को विज्ञापन रद्द करने का निर्देश देने के लिए प्रेरित किया है।
यूपीएससी को लिखे अपने पत्र में केंद्रीय मंत्री सिंह ने विज्ञापन वापस लेने के कारणों को स्पष्ट करते हुए जो तर्क दिया है, वह दिलचस्प है। इसमें कहा गया है कि लेटरल तरीके से भरे जाने वाले पदों पर आरक्षण नीति लागू नहीं होती। सिंह ने कहा, “इस पहलू की समीक्षा की जानी चाहिए और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने पर माननीय प्रधानमंत्री के जोर देने के परिप्रेक्ष्य में इसमें सुधार किया जाना चाहिए।”
वर्ष 2018 में लेटरल एंट्री पर जितेंद्र सिंह का रुख
यह समझ से परे है कि संबंधित मंत्री इस संवैधानिक प्रतिबद्धता के प्रति उस समय सचेत क्यों नहीं थे, जब वर्ष 2018 में मोदी शासन ने खुले बाजार से 63 लोगों को भारत सरकार में विभिन्न वरिष्ठ पदों पर नियुक्त किया था।
सिंह ने नगीना के सांसद चंद्रशेखर आज़ाद के एक सवाल का जवाब देते हुए, जो आज तक लेटरल भर्ती में किए गए एससी, एसटी और ओबीसी की संख्या का पता लगाना चाहते थे, इस साल जुलाई में संसद में कहा कि इस तरह के विवरण नहीं रखे जाते हैं, क्योंकि ऐसी नियुक्तियों के लिए आरक्षण लागू नहीं होता है।
यह अजीब लगता है कि वर्ष 2018 में 63 व्यक्तियों की पिछले दरवाजे से नियुक्ति करते समय संवैधानिक अनिवार्यताओं को दरकिनार कर दिया गया था और अब 2024 में उक्त विज्ञापन को वापस लेने के लिए उन्हीं अनिवार्यताओं का इस्तेमाल किया जा रहा है।
अश्विनी वैष्णव का अजीबोगरीब रुख
यह काफी अजीब है कि एक अन्य केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कांग्रेस नेता वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता वाले दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग का हवाला देते हुए विज्ञापन का बचाव किया था, जिसने 2008 में लेटरल एंट्री की सिफारिश की थी और कहा कि मोदी शासन ने तो “बस इसे लागू कर दिया।”
और देखिए, जब विज्ञापन वापस ले लिया गया, तो वैष्णव ने एक्स में पोस्ट किया : “लैटरल एंट्री को आरक्षण के सिद्धांत के साथ जोड़ने का निर्णय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी की सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है।” उनके द्वारा इतनी जल्दी की गई पलटबाजी इस मुद्दे पर उनकी अस्पष्ट समझदारी और इसके प्रति उनकी धुंधली प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
एआरसी की सिफारिश
वैष्णव को इस तथ्य का ध्यान रखना चाहिए था कि के. हनुमंतैया की अध्यक्षता में यह पहला प्रशासनिक आयोग था, जिसने 1969 की अपनी रिपोर्ट में लैटरल नियुक्ति के मुद्दे को उठाया था।
दूसरी एआरसी रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया था कि लेटरल एंट्री के लिए विज्ञापित पदों को बाजार से आवेदन आमंत्रित करके और सरकारी अधिकारियों की सेवा लेने के जरिए भरा जाना चाहिए। 45 पदों को भरने के लिये 17 अगस्त, 2024 के यूपीएससी विज्ञापन ने सरकारी अधिकारियों को आवेदन करने से रोक दिया और इस तरह दूसरी एआरसी की सिफारिश को नकार दिया। यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि जितेंद्र सिंह ने यूपीएससी को लिखे अपने पत्र में 2014 से पहले लेटरल भर्ती की पद्धति को “तदर्थ” बताया है और नियुक्त लोगों को पक्षपाती दिखाने के इरादे से, अजीब तरह से दावा किया है कि मोदी सरकार पारदर्शी और खुले तरीके से प्रक्रिया का पालन करने के लिए संस्थागत रूप से प्रेरित थी।
सिंह को पता होना चाहिए कि वर्ष 2000 की दूसरी एआरसी रिपोर्ट में लेटरल आधार पर लोगों की नियुक्ति से निपटने के लिए सिविल सेवा अधिनियम के तहत एक संस्था, केंद्रीय सिविल सेवा प्राधिकरण (सीसीएसए), की स्थापना की सिफारिश की गई थी। इसमें यह भी निर्धारित किया गया था कि सीसीएसए के प्रमुख और अन्य सदस्यों की नियुक्ति प्रधानमंत्री द्वारा लोकसभा में विपक्ष के नेता के परामर्श से की जानी चाहिए। लेकिन मोदी सरकार, जो अब लेटरल आधार पर लोगों की नियुक्ति के लिए संस्थागत रूप से संचालित दृष्टिकोण की बात करती है, ने कभी सीसीएसए की स्थापना करने की जहमत नहीं उठाई। इसने कभी भी विपक्षी दलों और यहां तक कि अपने सहयोगियों से भी खुले बाजार से लोगों की लेटरल एंट्री के लिए परामर्श नहीं किया।
इसलिए, मोदी सरकार अब लेटरल एंट्री नीति पर वाकपटुता दिखा रही है और इसे संविधान और आरक्षण नीति से जोड़ रही है, जो कि उथली लगती है। इसने विपक्ष को भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के हमले से संविधान को बचाने के लिए एक बार फिर राष्ट्रीय आख्यान स्थापित करने का अवसर दिया है। इसलिए, इस बात की पूरी संभावना है कि संविधान की रक्षा, भारत की संवैधानिक दृष्टि और आरक्षण नीति, भारत में राजनीतिक आख्यान और चुनावी नतीजों को निर्धारित करने के लिए काफी समय तक एक प्रेरक शक्ति बनी रहेगी।
(लेखक भारत के पूर्व राष्ट्रपति के आर नारायणन के विशेष कार्य अधिकारी (ओएसडी) के रूप में कार्यरत थे। अनुवादक छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)