(आलेख : बादल सरोज)

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चुनाव खत्म होते ही घरेलू मेलोड्रामा का सीजन-2 शुरू हो गया। सीजन-1 का क्लोजिंग शॉट “अब हम बड़े हो गए हैं, अब हमें आर एस एस की मदद की जरूरत नहीं हैं”, कहकर भाजपा की तरफ से उनके यहाँ चरित्र अभिनेता की हैसियत वाले जे पी नड्डा ने दिया था। सीजन-2 का आगाज़ खुद अपने कुनबे के नायक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने किया है। लोकसभा चुनाव परिणामों का विश्लेषण जैसा करते हुए उन्होंने कहा कि “जो मर्यादा का पालन करते हुए काम करता है, गर्व करता है, लेकिन अहंकार नहीं करता, वही सही अर्थों में सेवक कहलाने का अधिकारी है।” उन्होंने चुनाव अभियान में इस्तेमाल की गयी भाषा और आलोचना-प्रत्यालोचना के गिरते स्तर पर भी ‘अफ़सोस’ जताया। यूं यह दिखाने को काफी गोलमोल तरीके से कही गयी, इसके-उसके-सबके लिए कही लगने वाली बात थी, मगर सभी को पता था कि यह सीधे-सीधे नरेन्द्र मोदी पर की गयी टिप्पणी थी, इसे इसी तरह लिया भी गया। भागवत यहीं तक नहीं रुके, उन्होंने मोदी की सबसे दुखती रग मणिपुर – जहां सब कुछ करने, करवाने और होते रहने देने के बावजूद भाजपा “हलुआ मिला न मांड़े, दोऊ दीन से गए पांड़े” की गत को प्राप्त हुई है — कुकी और मैतैयी बहुल दोनों ही लोकसभा सीट हार गयी है, पर भी हाथ रखा। उन्होंने मणिपुर में हो रही हिंसा का जिक्र करते हुए कहा कि ‘कर्तव्य हो जाता है कि इस हिंसा को अब रोका जाए।‘ दिलचस्प यह है कि खुद संघ ने भी इस हिंसा को रोके जाने की बात तब नही की थी, जब यह नरसंहार का रूप ले चुकी थी। अब की है, जब खुद मणिपुर ने ही सजा सुना दी है। बहरहाल यह टिप्पणी भी सीधे-सीधे नरेन्द्र मोदी की एक और बड़ी, अहंकार से उपजी असफलता को रेखांकित करने वाली थी। भद्रा उतारने के इसी सिलसिले को और आगे बढाते हुए आरएसएस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य इंद्रेश कुमार ने और ज्यादा सीधे सीधे शब्दों में कहा कि : “2024 में राम राज्य का विधान देखिए, जिनमें राम की भक्ति थी और धीरे-धीरे अहंकार आ गया, उन्हें 240 सीटों पर रोक दिया। जिन्होंने राम का विरोध किया, उनमें से राम ने किसी को भी शक्ति नहीं दी।“ पुराने ऋषि-मुनियों की धजा में श्राप-सा देते हुए उन्होंने कहा कि – “तुम्हारी अनास्था का यही दंड है कि तुम सफल नहीं हो सकते।”

यह सिर्फ जे पी नड्डा के आर एस एस से मुक्त होने के बड़बोलेपन का व्यवहार चुकाने की बात नहीं है। यह मोदी के खिलाफ जनादेश सुनाने वाली जनता के बीच अपनी छवि बहाल रखने का जतन भी है। पर सिर्फ इतना भर भी नहीं है, ये बयान और उनका समय पिछले दस वर्षों से अंदरखाने चल रहे संघ–भाजपा के द्वंद्व की अभिव्यक्ति और चुनाव नतीजों का फायदा उठाकर पहली फुर्सत में अंकुश लगाने और नाथने की कोशिश है। बावजूद इसके कि मोदी राज में संघ की पाँचों अंगुली घी में और सर कड़ाही में रहा, आपसी रिश्ते सहज नहीं रहे। मोदी ने संघ को सब कुछ दिया, मगर इसी शर्त पर दिया कि वह कुछ कहेगा, बताएगा, सुझाएगा या मांगेगा नहीं। जो मिल गया, उसी को मुकद्दर समझ के कृतज्ञता भाव के साथ ग्रहण करेगा। श्यामाप्रसाद मुखर्जी से लेकर पंडित मौलिचंद्र शर्मा और बलराज मधोक से होते हुए लालकृष्ण अडवाणी तक, जनसंघ से लेकर भाजपा तक को अपनी जकड में रखने वाले संघ के लिए यह स्थिति ना सहज थी, न स्वीकार्य थी। कसमसाहट हमेशा रही – मगर बाकी कुछ पढ़ा हो या न पढ़ा हो, संघियों ने भस्मासुर की पौराणिक कथा तो पढ़ी ही थी, इसलिए चुप रहने की कीमत वसूलने में ही भलाई समझी। उधर मोदी उस हाथ दबोचते हुए इस हाथ से देने की अपनी आजमाई अदा पर डटे रहे। वे इसमें गुजरात से ही दक्ष और पारंगत होकर आये थे, जहां उसके एजेंडे को 2002 के गोधरा के बाद हुए नरसंहार के साथ पूरे चरम पर पहुंचाते हुए भी उन्होंने गुजरात के आर एस एस को खूँटी पर टांग कर रख दिया था। यह असली मोदी मॉडल है, जिसमें एक तरफ पटेलों को खदेड़-खदेड़ कर पीट-घसीट कर बिछा दिया जाता है, दूसरी तरफ सरदार पटेल की मूर्ति खडी की जाती है। एक ही सांस में दलितों को कुचलने और डॉ. आंबेडकर का आभार जताने, आदिवासियों को उजाड़ने और द्रौपदी मुर्मू के रूप में आदिवासी को राष्ट्रपति भवन में बिठाने के करतब दिखाए जाते हैं। कठुआ से हाथरस होते हुए जंतर मंतर तक महिलाओं की बेहुरमती की सारी सीमाएं लांघते हुए, स्थगित महिला आरक्षण की कलाबाजी दिखाते हुए, उनका सच्चा हमदर्द होने का दावा ठोंका जाना ही असली मोदी मॉडल है। अब प्यादे से फर्जी होने के बाद टेड़ो टेड़ो जाने की अर्जित अदा सिर्फ बाहर-बाहर चलेगी, घर में चाल सीधी हो जायेगी, यह तो हो नहीं सकता। यही काम मोदी ने संघ के साथ किया, उसे मान सम्मान और फैसले लेने का स्थान छोड़ बाकी सब दिया ; राज में हिस्सा दिया, एजेंडा पूरा किया, कुबेर के खजाने की मुद्राओं से तोल दिया – मगर जो दिया जा रहा है, उसे स्वीकारो, उसमें खुश रहो, बार-बार मत आओ, फटे में टांग मत अड़ाओ, की स्पष्ट सीमा रेखा तय करके दिया।

‘होगा वही, जो मोदी चाहे’ की हैकड़ी संघ और भाजपा को वे शुरू-शुरू में ही दिखा चुके थे और उसकी कारगरता को नाप चुके थे। जब वे पूरी तरह स्थापित भी नहीं हुए थे, तभी जिन्हें वे सख्त नापसंद करते थे, उन संजय जोशी को भाजपा से हटाये बिना पार्टी की बैठकों में शामिल होने से ठोककर मना कर दिया था। बैठक में गए भी तब ही, जब जोशी जी की भाजपा से विदाई और पुनः संघ वापसी हो गयी। इसके बाद उन्होंने भाजपा के साथ भी वही किया, जो दस सालों में देश के साथ किया ; फिल्म ‘दीवार’ के मशहूर संवाद के अंदाज में कहें तो : आज भाजपा के पास सब कुछ है, दिल्ली में विराट महल है, हर जिले, तहसील में आलीशान बिल्डिंगो में सजे-धजे दफ्तर हैं, गाड़ी हैं, इफरात में पैसा है, एम एल ए हैं, एम पी हैं – बस पार्टी नहीं है। देश फलां-ढिकां से मुक्त-विमुक्त तो नहीं हुआ ; अलबत्ता भाजपा पूरी तरह से भाजपा मुक्त हो चुकी है। यह मोदी जी का महान योगदान है।

ये होना ही था, क्योंकि तानाशाही एक प्रवृत्ति है। एक ऐसी प्रवृत्ति, जो चुनिन्दा नहीं हो सकती। डॉ. जैकिल एंड मिस्टर हाइड की तरह कभी नीम, नीम ; कभी शहद, शहद नहीं होती, अमावस के दिन सुप्त और पूर्णिमा के दिन जाग्रत होने वाला प्राणी नहीं होती। इसलिए यह सिर्फ बाहर वालों के लिए नहीं, अपने वालों के लिए भी होती है और ठीक उसी तरह की समभावी होती है। संघ भी इस बात को जानता है कि मोदी, अडवाणी नहीं है और उनकी भाजपा भी अब आडवाणी की भाजपा नहीं है। मोदी तो इसे मानते भी हैं, मनवाते भी रहते हैं।

बहरहाल, भागवत और इन्द्रेश कुमार के सार्वजनिक बयानों के बाद जैसे हरी झंडी की धुंधली-सी छाया मिल गयी हो या जोर से लगे जोर के धक्के का असर हो ; बची-खुची भाजपा में भी सुरसुराहट दिखने लगी है। महाराष्ट्र में बावेला-सा मचा हुआ है – एनसीपी को तोड़कर महाभ्रष्ट अजीत पवार को भाजपा में लाने के मोदी-शाह के मास्टर स्ट्रोक को भाजपाई अपनी हार के लिए जिम्मेदार बता रहे हैं। नेतृत्व को इस कदर कोस रहे हैं कि बिल्लियों की लड़ाई में बंदरबांट करने के लिए उपमुख्यमंत्री बनाये गए देवेन्द्र फडनवीस उकता कर नैतिक जिम्मेदारी लेने और इस्तीफा देने पर आयद हो गए, बाद में उन्हें रोका गया। इसलिए नहीं कि उनका रहना जरूरी है, बल्कि इसलिए कि बात निकलेगी, तो फिर मुम्बई तक थोड़े ही रुकेगी, सीधे दिल्ली तक जायेगी और मोदी-शाह के इस्तीफे की मांग उठवायेगी। इसलिए नैतिकता को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। मगर बात सिर्फ एक राज्य की नहीं है ; यूपी में हुए सफाए की कंपकंपी महाराष्ट्र से ज्यादा रेक्टर स्केल वाली है, यहाँ मो-शा की आँखों की किरकिरी बने योगी का सिंहासन डावांडोल हुआ पड़ा है। उनकी बुलाई बैठक में उनके ही दोनों मुख्यमंत्रियों ने न आकर वही राग अलापा है, जिसे पूरे चुनाव के दौरान धीमे-धीमे गुनगुनाया जा रहा था। मध्यप्रदेश में तो और भी मजेदार हुआ, जब पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के केन्द्रीय मंत्री बनने के बाद प्रथम भोपाल नगर आगमन पर विराट स्वागत होने की संभावना देखते हुए राष्ट्रीय नेतृत्व ने पहले तो उसे स्थगित करवाना चाहा, जब यह नहीं हो पाया, तो इसे बजाय अकेले शिवराज के, मध्यप्रदेश के सभी केन्द्रीय मन्त्रियों के  स्वागत समारोह में बदलवा दिया। लेकिन इस स्वागत के लिए सजाए गए शहर में लगाए गए पोस्टर और विशाल होर्डिंग्स पर मोदी और शाह की तस्वीरों की लगभग अनुपस्थिति या बहुत अनुल्लेखनीय उपस्थिति ने बिना कहे वह कह ही दिया, जो इस स्वागत समारोह के आयोजक कहना चाहते थे।

जो हो रहा है, वह रोचक है, कुछ हद तक मनोरंजक भी है। ये धुंआ-सा जहां से उट्ठा है, वह कोहरा या धुंध नहीं है, यह धुंआ है और यदि धुंआ है, तो आग भी जरूर होगी, सुलगन तो जरूर ही होगी । मगर इसे न ज्यादा पढ़ा जाना चाहिए, न कम!! यह पिछाहट और धक्के का असर है – ऐसे में कलुष, कलह, क्लेश और कटुताओं का दिखना, उभरना लाजिमी है – यह फूट तक जायेगी, यह सोचना कुछ ज्यादा ही सोचना होगा। सिर्फ इसलिए नहीं कि आंतरिक जटिलताओं और मत भिन्नताओं के प्रबन्धन में इस कुनबे की महारत कुछ अलग ही तरीके की है, बल्कि इसलिए कि 303 से 240 तक आ जाने के बावजूद मोदी की पीठ पर अभी भी अडानी और अम्बानी का वरदहस्त है। यह हाथ पराभव के समय आडवाणी के साथ नहीं था। इसलिए कभी संघ-भाजपा के बीच, तो कभी खुद भाजपा के बीच फूं-फां और आंय-बांय-सांय का धूम धड़ाका होता दिखता रहेगा ; मगर कहानी लिपे से बाहर नहीं जाएगी।

सिर्फ जनता है, जो इसे सर्कस से भगदड़ में बदल सकती है। राजनीति का स्थापित नियम यह है कि जन असंतोष और जनता से कटाव-अलगाव जितना बढ़ता है, शासक वर्गों में आतंरिक असंतोष और विग्रह भी उतना बढ़ता है। हाल के दिनों में नीट परीक्षाओं को लेकर देश भर में प्रतिरोध बढ़ा है, युवाओं में यह खासतौर से मुखर हुआ है। नई लोकसभा के बैठने से पहले ही विफलताओं और अकर्मण्यतों के धमाके से मोदी 3.0 की शुरुआत हुयी है। संचित और अर्जित असफलताओं के प्रभावों के परिणामों की पोटली तो अभी खुलना बाकी है। जाहिर है, संघर्षों के नए सिलसिले शुरू होंगे और उसके बाद जो तूफ़ान आयेंगे, उन्हें अडानी या अम्बानी की टेक से संभालना मुमकिन नहीं होगा।  

(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)