(आलेख : बादल सरोज)

संविधान पर हुई बहस में राज्यसभा में मोदी की जगह लेते हुए अमित शाह ने बहस के जवाब में मन की बात बोल दी ; उनके चेतन को ढालने वाला अवचेतन उनकी जुबान पर आ गया और अपनी पहले से टेढ़ी भंगिमा में और टेढ़ लाते, हिकारत दिखाते हुए कहा कि, “अब ये एक फ़ैशन हो गया है। आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकर… इतना नाम अगर भगवान का लेते तो सात जन्मों तक स्वर्ग मिल जाता।” संसद में रिकॉर्ड पर आ गयी इस बदजुबानी पर देश भर में क्षोभ और रोष की लहर उठनी ही थी, सो उठी भी। माफी मांगने से लेकर अमित शाह के इस्तीफे और यदि इस्तीफा नहीं देते, तो बर्खास्तगी की मांग हुई। मगर माफी तो दूर, खेद तक नहीं जताया गया – रहा इस्तीफा, तो राजनाथ सिंह बहुत पहले ही कह चुके हैं कि भाजपा में इस्तीफे नहीं होते। जब थुक्का-फजीहत ज्यादा ही होने लगी, तो अमित शाह ने फरमाया कि ‘मैं ऐसी पार्टी से हूं, जो कभी अंबेडकर का अपमान नहीं कर सकती।’ मोदी उनसे और आगे जाकर कुछ इस तरह ¡बोले कि जैसे उनसे बड़ा अंबेडकर समर्थक कोई है ही नहीं।

अमित शाह का अम्बेडकर हिकारती प्रलाप, भाषण के प्रवाह में मुंह से निकल गयी बात या रौ में निकल गया जुमला या दिल की बात जुबां पर आने वाली फ्रायडियन स्लिप नहीं है ; अम्बेडकर : व्यक्ति, विचार और कृतित्व — तीनो से नफ़रत इनके स्वभाव में है ; वे जिस पार्टी में हैं – उस पार्टी, उसके पूर्व अवतार जनसंघ और जिसकी कोख से ये दल जन्मे हैं – उस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जीन्स और डी एन ए में हैं। इस कुनबे का जन्म ही उन आधारों पर हुआ है, जिनके निषेध के लिए अम्बेडकर ने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया था और जीवन के बाद भी वे जिन अधूरे कामों में आज भी जीवित हैं और प्रासंगिक हैं।

याद रहे कि आर एस एस का गठन ही अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध और उन्नीसवी सदी के पूर्वार्ध में सामाजिक रूढ़ियों और कुरीतियों के खिलाफ भारत के समाज में हुई युगांतरकारी हलचल से, जिनके विरुद्ध वे थी, उनमें उपजी घबराहट से हुआ था। संघ ब्राम्हणवाद को मिल रही चुनौतियों से चिंतित और ‘महान गौरवशाली’ सामाजिक ढांचे के कमजोर होने की सम्भावना से व्यथित ब्राह्मण युवाओं का संगठन था। उन्हें इस सबसे मुकाबले के लिए उग्र चेतना से लैस कर कट्टर बनाना, सन्नद्ध और संगठित और लाठीबद्ध करना इसका मुख्य लक्ष्य था – आज भी है। मुसलमानों और ईसाईयों के खिलाफ हल्ला बोलना, उनके अलग धर्म और पूजा-परम्पराओं तथा जीवन शैली के चलते दोनों मकसद पूरे करता था और अंतिम लक्ष्य पर आड़ भी डालता था। इस लिहाज से जितनी नफरत उन्हें कथित विधर्मियों और म्लेच्छों से थी, उतनी ही घृणा उनके प्रति भी थी, जो वर्णाश्रम, मनु आधारित सामाजिक संरचना को ढहाना चाहते थे। इसलिए अमित शाह के ‘मैं ऐसी पार्टी से हूं जो कभी अंबेडकर का अपमान नहीं कर सकती’ कहने और मोदी का खुद को सबसे बड़ा अबेडकर समर्थक बताने के दावे से बड़ा कोई झूठ हो ही नहीं सकता।

यदि आजादी के पहले डॉ. हेडगेवार और मुंजे द्वारा अम्बेडकर को कमजोर करने के लिए दलित नेताओं को खड़ा करने की असफल कोशिशों को छोड़ भी दें और ताजे इतिहास पर ही नजर डालें, तो यह संघ और उसके तब के प्रमुख एम एस गोलवलकर, रामराज्य परिषद, जो बाद में जनसंघ का मुख्य ढांचा बनी और उसके सर्वेसर्वा करपात्री थे, जिन्होंने संविधान बनाए जाने के विरोध में न सिर्फ तूमार खड़ा किया था, बल्कि उसकी ड्राफ्टिंग कमेटी के प्रमुख डॉ बी आर अम्बेडकर की जाति का उल्लेख करते हुए यहाँ तक कहा कि “एक महार के हाथों बना संविधान इस देश का सच्चा हिन्दू कभी स्वीकार नहीं करेगा।” नेहरू मंत्रीमंडल से डॉ. अम्बेडकर के इस्तीफे, जिसे मोदी और अमित शाह और उनका कुनबा आज भुनाने की कोशिश कर रहा है, के पीछे यही अभियान था, जिसे देश भर में बड़े पैमाने पर संघ, रामराज्य परिषद, हिन्दू महासभा ने चलाया था।

यह कुत्सा अभियान क़ानून मंत्री के रूप में डॉ अम्बेडकर द्वारा रखे गये हिदू कोड बिल के मसौदे को लेकर था। इस मसौदे में महिलाओं और लड़कियों को साझा संपत्ति में उत्तराधिकार का अधिकार, बेटी को वारिस मानने और विधवाओं को संपत्ति का अधिकार देने का प्रावधान किया था। तलाक के अधिकार के अलावा इसमें अंतर्जातीय विवाह का अधिकार और उसे प्रोत्साहन की बात थी तथा हिन्दू पुरुषों के एक से अधिक विवाह करने पर रोक लगाने की व्यवस्था थी। इस हिन्दू कोड बिल के खिलाफ आर एस एस ने “धार्मिक युद्ध” का आव्हान करते हुए पूरे देश में जिन दो व्यक्तियों के खिलाफ जंग छेड़ी, उनमें नेहरू के साथ अम्बेडकर थे, विशेष रूप से अम्बेडकर थे। आर एस एस ने इस क़ानून को ‘हिन्दू समाज पर एटम बम’ बताया और 11 दिसम्बर 1949 को रामलीला मैदान में एक आमसभा करके अम्बेडकर और नेहरू का पुतला जलाया। देश भर में इन ‘हिन्दू विरोधियों’ के पुतले फूंके जाने का आव्हान भी किया गया। इसी संघ द्वारा बनाए गए जनसंघ के अध्यक्ष श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तब कहा था कि “अम्बेडकर का हिन्दू कोड बिल हिन्दू राष्ट्रवादियों को कतई स्वीकार नहीं है। इसलिए स्वीकार नहीं है, क्योंकि इसमें महिलाओं को ज्यादा अधिकार दिए गए हैं, जिनसे शादी विवाह की परम्पराओं को ख़तरा उत्पन्न होता है ; यदि ऐसा हुआ, तो परिवार और समाज की स्थिरता खत्म हो जायेगी।“ ‘मैं ऐसी पार्टी से हूं, जो कभी अंबेडकर का अपमान नहीं कर सकती’ का दावा करने वाले अमित शाह को अपनी पार्टी की इन कारगुजारियों की माहिती नहीं है क्या? क्या आज वे इस सब किये धरे को गलत बताने और उसके लिए न सही नेहरू, मगर अम्बेडकर से माफ़ी मांगने को तैयार हैं क्या? नहीं!!

इसलिए नहीं, क्योंकि उन्हें पता है कि डॉ अम्बेडकर की एक भी धारणा ऐसी नहीं है, जो मोदी-शाह और कुनबे की संगति में बैठती हो या उनको आंशिक रूप से भी स्वीकार हो। जैसे इनका धुरी लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र!! डॉ. अम्बेडकर हिन्दू राष्ट्र को बहुत ही भयावह और अत्यंत खतरनाक मानते थे। उनका मानना था कि यह मुसलमानों की तुलना में हिन्दुओं के लिए ज्यादा खतरनाक है। जब धर्म के आधार पर पाकिस्तान बनाने की मांग उठी, तब 1940 में उन्होंने कहा था कि “अगर हिन्दू राष्ट्र बन जाता है, तो इस देश के लिए भारी ख़तरा खड़ा हो जाएगा। हिन्दू (राष्ट्र बनाने की मांग करने वाले) कुछ भी कहें, पर हिंदुत्व स्वतन्त्रता और भाईचारे के लिए एक ख़तरा है और इसलिए यह लोकतंत्र के लिए अनुपयुक्त है, उसका विरोधी है।“ उनका कहना था कि “हिन्दू राष्ट्र को हर कीमत पर रोका जाना चाहिए।“ वे मानते थे कि हिन्दू समाज पर वर्चस्व बनाए रखने वाली जीवन संहिता स्वतन्त्रता, समता और बंधुता की विरोधी है। यह दलितों और महिलाओं के पूरी तरह खिलाफ है। इसमें जाति प्रणाली को बनाए रखने की अनिवार्यता है और इसी के जरिये महिलाओं को अंतर्जातीय विवाह करने से रोका जाता है।

संविधान सभा में हिन्दू कोड बिल के लाने के पीछे उनकी मंशा इसी वर्चस्वकारी संहिता पर प्रहार करना था – जिसे आर एस एस और बाकी वर्णाश्रमवादी तत्वों ने बाहर से कोहराम मचा कर और राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल, मालवीय आदि जैसे पुरातनपंथी नेताओं ने कांग्रेस के अंदर कोलाहल करके असफल कर दिया था और अम्बेडकर को मंत्रिमंडल छोड़ने के लिए विवश कर दिया था। मगर यह एक ऐसा मुद्दा था, जो उनकी प्रतिबद्धता की बुनियाद में था, अम्बेडकर के अम्बेडकर होने की पहचान था। उन्होंने ‘जाति का क्लास’ ही नहीं पहचाना था — जाति का जेंडर भी ढूंढा था। कोलंबिया यूनिवर्सिटी में अपनी थीसिस में उन्होंने लिखा था कि “जाति की मुख्य विशेषता जाति के अंदर ही शादी करना है। कोई स्त्री अपनी इच्छा से शादी नहीं कर सकती। इसके लिए प्रेम पर भी रोक लगा दी गयी है। बाल विवाह की कुरीति और विधवाओं के साथ सलूक तथा विधवा विवाह पर रोक इसी के लिए हैं।” हिन्दू कोड बिल इस स्थिति को बदलने की दिशा में एक कदम था, जो जब पूरा होता न दिखा, तो उन्होने इस्तीफा दे दिया। आज उस इस्तीफे पर कलपते हुए खुद को सबसे बड़ा अम्बेडकर समर्थक बताने वाले मोदी क्या इस निर्णायक प्रश्न पर उनके साथ हैं? उनकी तरह हिन्दू राष्ट्र को देश, समाज, लोकतंत्र, समता, बंधुत्व और सभ्य समाज के खिलाफ मानते हैं? अगर नहीं, तो फिर झांसा किसे देना चाहते हैं?

मायावतियों, आठवलों जैसों ने बाकी सबको भले भुलवाने की कोशिश की हो, मगर मोदी-शाह और उनके कुनबे को पक्का याद है कि इनके मात- पिता संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में डॉ. अम्बेडकर के क्या विचार थे। उन्होंने इस गिरोह की हमेशा कड़े शब्दों में आलोचना की ; उनका कहना था कि यह हिन्दू धर्म के जातिवादी ढाँचे को प्रतिष्ठा देता है और हिन्दू समाज में सुधार के हर प्रयास का विरोध करता है, असमानता और जाति आधारित शोषण और भेदभाव को प्रोत्साहित करता है। जरूरत इस बात की है कि हिन्दू धर्म को बुनियादी रूप से बदल दिया जाए। ‘भाषाई राज्यों पर विचार’ – थोट्स ऑन लिगुइस्टिक स्टेट्स – शीर्षक किताब में उन्होंने लिखा है कि “हिन्दू धर्म में सुधार की सबसे बड़ी बाधा आरएसएस और हिंदू महासभा जैसे संगठन हैं, जो इस धर्म की कुरीतियों को गौरवान्वित करने का काम कर रहे हैं।“ उनका यह मानना था कि इन संगठनों के विचारों के चलते हिन्दू धर्म के भीतर कोई सुधार संभव नहीं।

अभी पिछले सप्ताह ही मनुस्मृति के जलाए जाने की जयंती मनाई गयी है। अम्बेडकर मानते थे कि भारत और उसके समाज की जड़ताओं और समस्याओं की जड़ इसी किताब में है। इस देश को एक प्रगतिशील और वैज्ञानिक चेतना से संपन्न देश बनाने में मनुवाद सबसे बडा अडंगा है। वे कहते थे कि “मनुवादी परंपराये संघर्ष से ही खत्म होंगी, लेकिन जहां पर भी मौका मिले, वहां पर शोषितों को कानूनन अधिकार देने से भी ये परंपरायें कमजोर होंगी।” उनका यह भी मानना था कि इन परंपराओं की सबसे बड़ी वाहक महिलायें हैं, जो खुद इसकी बेड़ियों भी जकड़ी हुयी हैं। इसलिये वे महिलाओं की शिक्षा, आर्थिक आत्मनिर्भरता के सबसे बडे झंडाबरदार थे। कोलंबिया युनिवर्सिटी में उनके एक शोध पत्र का आधार भी यही था। इसी मनुस्मृति को सर पर धारे बैठे और उसे भारत के संविधान की जगह विराजने की साजिश में लगे हुक्मरान डॉक्टर अबेडकर को इस धारणा से सहमत हैं क्या?

अम्बेडकर लोकतंत्र और समानता के प्रखर समर्थक थे, जबकि आर एस एस तब भी और आज भी इन दोनों को कथित हिदू समाज ही नहीं, सकल ब्रहांड के विरुद्ध मानता है। इसके पूजनीय गुरु जी – एम एस गोलवलकर – ने इस बारे में खुलकर लिखा है। लोकतंत्र को वे ‘मुंड गणना’ बताते हैं, जिसमें अमीर और गरीब सब बराबर हैं। आम गरीब प्राणी को अधम और निकृष्ट बतात्ते हुए उसकी तुलना मांस का टुकड़ा डालने से इकट्ठे हो जाने वाले कौए से करते हैं और चींटी को कण भर, हाथी को मन भर देने की हिमायत करते है। गोलवलकर भारतीय समाज के ‘कमजोर’ हो जाने की वजह वर्ण व्यवस्था के कमजोर होने को बताते हैं और असमानता को अनिवार्य करार देते हुए सिद्धान्त प्रतिपादित करते हैं कि “हमारे दर्शन के अनुसार ब्रह्माण्ड का उदय ही सत्व, रजस और तमस — तीन गुणों के बीच संतुलन बिगड़ने से हुआ है। संतुलन बन जाएगा, तो ब्रह्माण्ड फिर शून्य में विलीन हो जाएगा। इसलिए असमानता प्रकृति का नियम है।‘’

बाबा साहब – उन्हें यह संबोधन उनके अनन्य सहयोगी, हर संघर्ष में उनके साथी रहे कामरेड आर बी मोरे ने दिया था, जो महाराष्ट्र विधानसभा में कम्युनिस्ट विधायक और सीपीएम की राज्य समिति के सदस्य भी रहे – का सामाजिक नजरिया ही नहीं, उनका पूरा आर्थिक दर्शन भी संघ–भाजपा और आज की मोदी सरकार के दृष्टिकोण के एकदम विपरीत था। डॉ. अम्बेडकर ने अपनी पहली राजनीतिक पार्टी 15 अगस्त 1936 को बनाई थी और उसका नाम रखा था इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी।इसका झंडा लाल था। इसके घोषणापत्र में उन्होंने साफ़-साफ शब्दों में कहा था कि “भारतीय जनता की बेडिय़ों को तोडऩे का काम तभी संभव होगा, जब आर्थिक और सामाजिक दोनों तरह की असमानता और गुलामी के खिलाफ एक साथ लड़ा जायेगा।” वे वैचारिक रूप से एक फेबियन थे और इस नाते भले वे वर्ग की क्लासिकल मार्क्सवादी परिभाषा की संगति में नहीं थे, मगर भारत में आर्थिक और सामाजिक शोषण के शिकार तबकों  की वर्गीय बनावट के प्रति सजग थे। इसी नजरिये को और भी सुसंगत रूप से उन्होंने 1947 में संविधान सभा की नागरिकों के मूलभूत अधिकारों पर विचार करने वाली उपसमिति को दिए नोट — राज्य एवं अल्पसंख्यक – स्टेट एंड माइनॉरिटीज – में सूत्रबद्ध किया था। इस नोट में उन्होंने भारत को एक समाजवादी देश और राज्यों के संयुक्त राज्य – यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ इंडिया – बनाने के साथ जिन नीतियों को प्रस्तावित किया था, उनमें राजकीय समाजवाद और हर तरह का आर्थिक लोकतंत्र कायम करने के लिए ठोस सुझाव दिए थे । इनमे से कुछ इस प्रकार थे : जितने भी मुख्य उद्योग हैं, उन्हें और जिन्हें मुख्य उद्योग घोषित किया जाएगा, उन्हें राज्य चलाएगा ; जो मुख्य नहीं है, किन्तु बुनियादी उद्योग हैं, वे राज्य के नियंत्रण और स्वामित्व वाले निगमों के माध्यम से चलाये जायेंगे, बीमा क्षेत्र में राज्य का एकाधिकार होगा और हरेक का जीवन बीमा किया जाए, इस दिशा में बढ़ा जाएगा ; कृषि को भी राज्य नियंत्रित उद्योग का दर्जा दिया जाएगा। जो निजी उद्योग होंगे, उनमें भी राज्य की हिस्सेदारी होगी, जमीन का एकाधिकार तोड़कर उसका वितरण किया जाएगा, उच्च शिक्षा निशुल्क और सबके लिए उपलब्ध की जाएगी — आदि-इत्यादि।

अब ऐसे बाबा साहब के प्रति अमित शाह और उनके बड़े भैया मोदी जी के मन में नफरत और हिकारत नहीं हो, यह कैसे संभव है। उन्हें, बाबा साहब जिन सबके प्रतीक हैं, उन सबसे भय लगता है। इसलिए वे जब-जब झुंझलाहट में उनका अपमान कर रहे होते हैं, तब-तब असल में अपनी खीज को निकाल रहे होते हैं। उनकी इस बदजुबानी की निंदा, भर्त्सना होनी चाहिए, हुई भी, मगर यह उस तरह की प्रतीकात्मकता के साथ नहीं होनी चाहिए, जैसी एक मूर्ति लगाकर और उनके हाथ में संविधान की किताब पकड़वाकर की जाती रही है। हालांकि इन मूर्तियों को भी वे ढहाते-गिराते रहते हैं, मगर असल में वे बाबा साहब के विचारों, उनके इरादों और उस दिशा में उठाये सुझाये गए उनके कदमों से डरते हैं। इनका डर बढ़ाना है, तो बाबा साहब को सिर्फ संविधान निर्माता या सिर्फ दलितों के उद्धारक समझने की संकुचित समझ को छोड़कर मनुवाद और पूँजीवाद के ध्वंस के उनके नजरिये को आज के हालात में लागू करते हुए आगे बढ़ना होगा।

(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 094250-06716)