बहुजन राजनीति के उद्भव और पतन की कहानी के कुछ सूत्र
-कँवल भारती
(नोट: यद्यपि यह लेख 2018 का है परंतु कंवल भारती का 2019 के चुनाव में भी बहुजन राजनीति की दुर्दशा का आंकलन बिल्कुल सही निकला।– एस आर दारापुरी)
यह कहानी शुरू होती है, आरपीआई से. आरपीआई यानी रिपब्लिकन पार्टी, जिसके बढ़ते प्रभाव और जबरदस्त भूमि आन्दोलन ने कांग्रेस का सिंहासन हिला दिया था. कांग्रेस के लिए आरपीआई को खत्म करना या तोड़ना जरूरी था.कांग्रेस ने RPI के बिकाऊ नेताओं को पकड़ा. और वह उसे कमजोर करने में कामयाब हो गई. देश भर में आरपीआई का ढांचा बिखर गया.
कांग्रेस के सिंहासन के दलित, पिछड़े, मुस्लिम और सवर्ण चार पाए थे. इन चारों पायों पर आरएसएस की तीखी नजर थी. कांग्रेस को खत्म या कमजोर करने के लिए दलित, पिछड़े और मुस्लिम इन तीन पायों को तोड़ना जरूरी था. इसके बिना हिन्दू राजनीति सत्ता में नहीं आ सकती थी.
इसी दौरान आरएसएस को बिल्ली के भाग्य से छींका हाथ लगा, या छींका उसी ने तैयार किया. यह विश्लेषण का विषय है. बिल्ली के भाग्य से इसी दौरान मुलायम सिंह यादव समाजवादी बनकर पिछड़ों के नेता के रूप में उभर कर आ गए. इसी दौरान बहुत सोच समझ कर मंदिर आन्दोलन खड़ा किया गया. कांग्रेस के नरसिम्हा राव, जो हिंदूवादी थे, आरएसएस के बहुत काम आए. अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिरा दी गई. और एक ही झटके में देश भर का मुसलमान कांग्रेस से अलग हो गया. कांग्रेस के सिंहासन का एक पाया तोड़ने में आरएसएस सफल हो गया.
कांशीराम और मुलायम सिंह यादव ने मिलकर चुनाव लड़ा, और उत्तर प्रदेश से कांग्रेस का सफाया हो गया. नंगे-भूखों ने साइकिल से और पैदल घूम घूम कर विजय हासिल कर ली.
सपा-बसपा ने मिलकर कांग्रेस के दलित, पिछड़े और मुस्लिम तीनों पायों को तोड़ दिया. भाजपा तो वैसे भी दौड़ में नहीं थी, पर वह कांग्रेस की हार पर खुश थी. कांग्रेस के तीनों पाए टूटने के बाद कांग्रेस का सवर्ण पाया तो भाजपा का ही था.
अब जरूरत थी, आरएसएस को दलित-पिछड़ों को भाजपा से जोड़ने की, सवर्ण उसके साथ था ही, मुसलमानों की उसे जरूरत नहीं थी. आरएसएस के इस काम में काम आए कांशीराम.
कांशीराम ने आरएसएस और भाजपा से समझौता किया. कांशीराम के तीन पाए थे दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक. कांशीराम ने मुलायम सिंह यादव से गठबंधन तोड़कर भाजपा से हाथ मिला लिया और और इस हाथ ने मुसलमानों को बसपा से दूर कर दिया. बसपा का एक पाया टूट गया, जो आरएसएस भी चाहता था. मुसलमान सपा से जुड़ गया, इसके सिवा उसके पास कोई विकल्प भी नहीं था.
बसपा के पास अब भी कुछ पिछड़ा वोट था. उसे खत्म करने में बाबू सिंह कुशवाहा और स्वामी प्रसाद मौर्य को बसपा से ठिकाने लगाने का काम हुआ, जिसमे भाजपा को पूरी सफलता मिली.
मायावती भाजपा के सहयोग से तीन बार मुख्यमंत्री बन चुकी थीं, उनकी गठबंधन सरकार में भाजपा शामिल थी. भाजपा ने मायावती को पूरी छूट दी. मायावती भ्रष्टाचार करती रहीं, और भाजपा उसका पूरा बहीखाता तैयार करके अपने पास रखती रही, ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आवे. इसी ‘सनद’ के बल पर मायावती ने पिछले लोकसभा के चुनावों तक भाजपा का कार्ड खेला. अब भी यह सनद मायावती से वही कराएगी, जो भाजपा चाहेगी, वरना वे जानती है, लालू यादव आज कहाँ है?
यादव वोट को विभाजित करने के लिए शिवपाल सिंह यादव का समाजवादी मोर्चा अस्तित्व में आ ही गया है. जाटव वोट को विभाजित करने के लिए चन्द्रशेखर रावण को दो महीने पहले ही रात के १२ बजे छोड़ने का और कोई कारण समझ में नहीं आ रहा है. पिछड़ों में मौर्य, कुशवाहा, सैनी, काछी, लोधी में कोई प्रतिरोध का नेतृत्व नहीं है, इसलिए वे सब भाजपा के साथ हैं.
67 दलित जातियों में जाटव या चमार को छोड़कर शेष वाल्मीकि, खटिक, पासी, धानुक, धोबी, आदि में भी कोई प्रतिरोध का नेतृत्व नहीं है, इसलिए वे सब भी भाजपा के साथ हैं.
क्या अब भी किसी को संदेह है कि 2019 में क्या होने वाला है.
(यह बहुजन राजनीति का अद्यतन इतिहास संक्षिप्त सूत्रों में है. इस पर अगर विस्तार से लिखा गया, तो एक किताब बन जाएगी)