शहीद शेरे मैसूर टीपू सुल्तान
मोहम्मद आरिफ नगरामी
शेरे मैसूर टीपू सुलतान हिन्दुस्तान के उस अजीम दिलेर हाकिम का नाम है जिसकी शहादत की खबर मिलते ही अंग्रेज जनरल हारिस खुशी के मारे झूमने लगा था। और अपने सबसे बडे दुशमन की लाश को देखते ही खुशी से चीख़ उठा था कि ‘‘आज हिन्दुस्तान हमारा है। ‘‘ जंगी हिकमतेे अमली, शुजाअत और बहादुरी के लेहाज से टीपू सुलतान का शुमार फ्रांस के नैपोलियन बोनापार्ट और सुलतान सलाहुद्दीन अय्यूबी की सफ में होता है। मशहूर इस्काईश शायर और तारीखी नावल निगार सर वाल्टर स्काट टीपू सुलतान की शिकश्त और शहादत पर जो रद्दे अमल जाहिर किया वह टीपू सुलतान के लिये सुनहरी खिराजे अकीदत की हैसियत रखता है।
टीपू सुलतान हिन्दुस्तान के जंगे आजादी के उन आव्वलीन सिपहसालारों में सरे फिहरिस्त हैं जो आखिरी दम तक अंगे्रजों से वतन की आजादी के लिये लडते रहे। अर्जे हिन्द पर अगर किसी ने अंग्रेजों को नाको चने चबवाये ंतो हैदर अली के बाद उनके फरजन्द अरजुमन्द टीपू ही थे। जब टीपू सुलतान दस नवम्बर 1750 को पैदा हुये उस वक्त तक हैदर अली की कायदाना खुसूसियात और फौजी हरबों की शोहरत बलंदियों पर पहंुंच चुकी थी। टीपू सुलतान शहीद को आला जेहानत, फेरासत, और कायदाना तिलिस्मी सलाहियत वरसे मेें मिली थी जिसके आगे अंग्रेज दस्त व पा नजर आये। सुलतान हैदर अली ने टीपू सुलतान की तालीम व तरबियत और फुनूने हर्ब पर खास तवज्जह दी। टीपू सुलतान ने महज 14 साल की उम्र मेें अपने वालिद हैदर अली के साथ अंग्रेजों के खिलाफ जं्रग में हिस्सा लिया और 17 साल की उम्र मेें टीपू सुलतान को अहेम सिफारती और फौजी उमूर का आजादाना अख्तियार दे दिया गया था।
हिन्दुस्तान में अंग्रेजों की राह के सबसे बडे कांटे हैदर अली और टीपू सुलतान थे जिनके दरमियान 1761 ता 1799 चार जंगें हुयीं। टीपू सलतान ने आजमूदा कार अंग्रेज अफसरान को शिकश्त से दो चार किया। 1761 में पहली ऐंग्लो मैसूर जंग में हैदर अली ने अंग्रेजों को जिल्लत आमेज शिकश्त दी। यह पहला मौका था जब हिन्दुस्तान में अंग्रेजों को हार का मुंह देखना पड़ा।अगरचे 1782 मेें दूसरी जंग के दौरान हैदर अली की मौत हो गयी लेकिन टीपू सुलतान ने हैदर अली की कमी को महसूस नहीं होने दिया और जंगी हिकमते अमलियों के सबब अंग्रेजों को भारी नुकसान पहंुचाया। टीपू सुलतान की हुकूूमत अंग्रेजांें के साथ साथ रियसतों की आंखों में खटकती रही। मगर दूरअंदेश शेरे मैसूर हार मानने वाला कहां था। उस ने हिन्दुस्तान से अंग्रेजों को निकालने के लिये जमीन ता आस्मान के कुलाबे मिला दिये। और अंग्रेजो के खिलाफ एक मजबूत महाज़ तशकील दिया।
मुल्क की देसी रियासतों को टीपू सुलतान ने खुतूत रवाना किये। और 23 जून, 1785 को मुग़ल शहेन्शाहे आलम की खिदमत में खत लिख कर अंग्रेजों के खिलाफ जंग कर ने की अपनी ख्वाहिश्र का इजहार किया। टीपू सुलतान ने हिन्दुस्तान को गुलामी से बचाने के लिये हर मुमकिन कोशिश की। लेकिन गद्दाराने वतन और ना मुसाएद हालात की वजह से उनकी तमाम जद्दोजेहद बेकार चली गयीं। अंग्रेजों, मरहटों और नेजाम कें नापाक इत्तेहाद के एलावा उनकी आस्तीन के सांप ‘‘मीर सादिक, पंडित पूर्णिया, और गुलाम अली, टीपू सुलतान की रियासत को तबाह करने का अज्म कर चुके थे। 1799 मेें ईस्ट इण्डिया कम्पनी, मरहटों, और हैदराबाद के नेजाम की 50 हजार मुशतरका अफवाज ने यलगार की और यह जंग टीपू सुलतान की आखिरी जंग साबित हुयी। टीपू सुलतान के गद्दार अफसरान ने आखिरी वक्त तक अंग्रेजों की सरगर्मियों से टीपू सुलतान को अंधेरे मेें रखा। टीपू संलतान को ब्रिटिश अफवाज की नकल व हरकत की इत्तेला उस वक्त मिली जब वह सरंगापट्टम पर अपना शिकंजा कस चुकी थी। टीपू सुलतान ने अंग्र्रेजों के खिलाफ भरपूर मजाहमत की और किले को बन्द करा दिया लेकिन गद्दार साथियों ने दुशमन के लिये किले का दरवाजा खोल दिया। और किले में जबर्दस्त जंग छिड गयी। इस हमले के दौरान टीपू सुलतान एक अदना सिपाही की तरह पैदल ही फौज से लडते रहे। अगरचे टीपू के पास जंग से निकलने का रास्ता था लेकिन उन्होंने मैदाने जंग से फरार होने पर शहादत को फौकियत दी। उस मौके पर टीपू सुलतान को भाग जाने और अपनी जान बचाने का मशविरा दिया गया मगर टीपू सुलतान राजी नहीं हुये और टीपू अपने मशहूर मकाले ‘‘शेर की एक दिन की मौत सद साला गीदड की जिन्दिगी से बेहतर है‘‘ पर सच्चे साबित हुये और चार मई 1799 को मैदाने जंग में दिलेरी और शुजाअत से मुकाबला करते हुये शहीद हो गये।