सरकारी बैंकों को बेचना देशहित में नहीं: अनुपम
दिल्ली के जंतर मंतर पर लगा बैंककर्मियों का जमावड़ा
टीम इंस्टेंटखबर
दिल्ली के जंतर मंतर समेत देश के कई हिस्सों में बैंककर्मियों ने निजीकरण के विरोध में प्रदर्शन किया। यह प्रदर्शन बैंक यूनियनों का समूह मंच यूएफबीयू द्वारा दो दिवसीय हड़ताल के अवसर पर किया गया।
देशभर में बेरोज़गारी को अहम मुद्दा बनाने वाले युवा हल्ला बोल के राष्ट्रीय अध्यक्ष अनुपम भी जंतर मंतर के प्रदर्शन में शामिल होकर बैंककर्मियों को समर्थन दिया। इसके अलावा देशभर में ‘युवा हल्ला बोल’ के सदस्यों ने मुखरता से बैंक कर्मचारियों की आवाज़ बुलंद की।
युवा नेता अनुपम का मानना है कि मुनाफा कमा रहे राष्ट्रीय उपक्रमों को निजी हाथों में बेचने की नीति का बेरोज़गारी और महँगाई पर भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है। उन्होंने आगे कहा कि केंद्र सरकार की इस नीति को मोडानीकरण कहना चाहिए क्योंकि जहाँ एक तरफ मुनाफे का निजीकरण हो रहा है वहीं घाटे का राष्ट्रीयकरण भी चल रहा। विदित हो कि ‘युवा हल्ला बोल’ पिछले कई महीनों से राष्ट्रीय संपत्तियों को बेचे जाने के विरोध में ‘हम देश नहीं बिकने देंगे’ मुहिम चला रही है।
अनुपम ने कहा कि बड़े पैमाने पर बैंकों में पद रिक्त होने के बावजूद सरकार इनपर नियुक्ति नहीं कर रही। इन पदों पर भर्ती करने का सीधा प्रभाव आम जनता को मिलने वाली सेवाओं पर पड़ता लेकिन बड़े दुर्भाग्य की बात है कि सरकार अपनी ही नाकामी का बहाना बनाकर बैंकों को बेचना चाहती है।
राष्ट्रीय संपत्ति बिक्री नीति के मुखर विरोधी ‘युवा हल्ला बोल’ के राष्ट्रीय महासचिव प्रशांत कमल ने कहा कि हम जानते हैं कि हड़ताल से आम आदमी को थोड़ी असुविधा होगी लेकिन हमें बड़ी आफत को टालने के लिए थोड़ी असुविधा उठाने के लिए तैयार होना पड़ेगा। उन्होंने आगे कहा कि असल असुविधा सिर्फ दो दिन के हड़ताल से नहीं बल्कि 12 बैंकों में 41777 पद के रिक्त होने से है। इन रिक्त पदों की वजह से आम ग्राहकों को हर दिन असुविधा का सामना करना पड़ता है। सरकार को चाहिए कि इन रिक्त पदों को भरकर राष्ट्रीयकृत बैंकों को और मजबूत बनाए ताकि आमलोगों की गाढ़ी कमाई सुरक्षित रह सके। सरकारी नौकरियों की मांग कर रहे युवाओं को सरकारी उपक्रम बेचे जाने का विरोध करना ही होगा। क्योंकि अगर सरकारी उपक्रम नहीं होंगे तो नौकरियां कहाँ से मिलेंगी।
अनुपम का कहना है कि मुनाफा कमा रहे बैंकों को इस कदर निजी हाथों में बेचना देशहित में नहीं हैं। क्योंकि सरकारी बैंकों का एकमात्र मक़सद फायदा कमाना नहीं होता बल्कि जनता की सेवा, गरीबों को आर्थिक सुरक्षा और जनकल्याण कार्यों को अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाना होता है। इसके बावजूद मुनाफे में चल रहे बैंकों का निजीकरण देश की अर्थव्यवस्था को कमज़ोर करेगा। इसलिए यह मुद्दा सिर्फ बैंक कर्मचारियों का ही नहीं, बल्कि आम नागरिकों का भी है। विशेषकर गरीब, मध्यम वर्ग और युवाओं के लिए तो यह गंभीर मुद्दा है।
देश का युवा आंदोलन पूरी ताकत से बैंक कर्मचारियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर इस मुहिम में एकजुट दिख रहा है। संसद के वर्तमान सत्र में बैंक निजीकरण के उद्देश्य से लाए जाने वाले विधेयक की सुगबुगाहट ने इन विरोध प्रदर्शनों को और तेज कर दिया है। लेकिन जिस प्रकार देशभर के बैंककर्मी और युवा आंदोलन एकजुट हो रहे हैं उसका केंद्र सरकार पर ज़रूर प्रभाव पड़ेगा।