हिन्दुस्तानी एथलेटिक्स का सरताज मिल्खा सिंह
मो. आरिफ़ नगरामी
मुल्क के आलमी शोहरतयाफ्ता रनर मिल्खा सिंह के इन्तेकाल के साथ एक ऐसे अहेद का एख्तेताम हो गया जिसने आजाद हिन्दुस्तान में ट्रैक इवेंट्स में बहुत से नये रेकार्ड कायम किये थे। हिन्दुस्तान को खेल की दुनिय में मुतअर्रिफ कराने वाले फलाईंग सिख मिल्खा सिंह के इन्तेकाल से मुल्क के सदर जम्हूरिया से लेकर एक आम इन्सान तक ने अफसोस का इजहार किया है वाज़ेह रहे कि मिल्खा सिंह का इन्तेकाल गुजिश्ता जुमा की रात में 91 साल की उम्र में कोरोना वायरस के सबब हुआ। अस्पताल में उनकी रिपोर्ट निगेटिव आ गयी थीं। मगर अचानक उनका इन्तेकाल हो गया। उनके इन्तेकाल के पांच दिनों पहले उनकी अहेलिया का भी कोरोना वायरस की वजह से इन्तेकाल हो गया था जिसका मिल्खा सिंह को बहत सदमा था ओर वह जेहनी तौर पर बहुत परेशान थे।
इन्तेकाल से कई रोज कब्ल से वह अपने अन्दर बहुत बेचैनी और बेकरारी महसूस कर रहे थे आखिरकार मौत ने उनकी बेचैनी और बेकरारी को सुकून अता कर दिया। 1958 के कामन वेल्थ गेम्स मेें मिल्खा सिंह ने अपने लिये ओर मुल्क के लिये पहला गोल्ड मेडल जीता था। 1960 मेें उन्हें पाकिस्तान से इन्टरनेशनल एथेलिट कम्पटीशन में शिरकत का दावतनामा मिला। मजकूरा बाला कम्पटीशन हिन्दुस्तान के वजीरे आजम पं0 जवाहर लाल नेहरू और पाकिस्तान के सदर फील्ड मार्शल, मोहम्मद अय्यूब खां की कोशिशो से हो रहा था। क्योंकि दोनों लीडर हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के हालात को नार्मल करना चाहते थे। मिल्खा सिंह इस कम्टपीशन में जाना नहीं चाहते थे क्योंकि वह इस मुल्क में दोबारा नहीं दाखिल होना चाहते थे जिस मुल्क में तकसीमे वतन के वक्त उनके आठ भाई बहनों की जान ले ली थी। उनके जेहन में 1947 के वक्त तकसीमे वतन का वह खौफनाक और दिल को दहलाने वाले वह मनाजिर जिन्दा थे जिसने हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के सैंकडो नहीं बल्कि हजारों और लाखों की तादाद में खून से लुथडी लाशें सडकों, मैदानों और खलियानों में बे गोरो कफन पडी थीं इसलिये उन्होंने पाकिस्तान जाने से इन्कार कर दिया। मगर ऐसे वक्त में मुल्क के पहले वजीरे आजम पं0 जवाहर लाल नेहरू ने मिल्खा सिंह को दिलासा दिया और उनकी हिम्मत अफजाई की और उनको पाकिस्तान जाने की तरगीब दी। इसके बाद मिल्खा सिंह पाकिस्तान गये और दो सौ मीटर की दौड में जब उन्हेांने पाकिस्तान के सबसे ज्यादा तेज दौडने वाले अब्दुल खालिक को पीछे छोडते हुये कामयाबी हासिल की तो उस वक्त मैदान में पाकिस्तान के सदर फील्ड मार्शल मोहम्मद अय्यूब खां भी मौजद थे और उन्हेांने भी मिल्खा सिंह को गोल्ड मेडल पहनाया।
शायद बहुत ही कम लोगों को मालूम हो कि मिल्खा सिंह को फ्लाइंग सिख का खिताब सदर अय्यूब खां ने दिया था। हुआ यह था कि जब अय्यूब खां मिल्खा सिंह को गोल्ड मेडल उनके गले में पहना रहे थे तो उस वक्त उन्होंने मिल्खा सिंह से कहा कि तुम आज दौडे नहीं बल्कि उड़े हो इसलिये पाकिस्तान हुकूमत तुमको मिल्खा सिख का खिताब अता करती है। यह खिताब फिलहकीकत मिल्खा सिंह के हकीकी वतन की जानिब से शर्फ कुबूलियत का एक परवाना भी था और उसके बाद से मिल्खा सिंह को फ्लाइंग सिख के नाम से पुकारा जाने लगा। मिल्खा सिंह 20 नवम्बर 1929 में पाकिस्तान के गोविंदपुरा इलाक़े में पैदा हुये थे। उनकी शादी निर्मल सैनी से हुई थी जिनका इन्तेकाल मिल्खा सिंह के इन्तेकाल से चंद दिनों पहले कोरोना की वजह से हुआ था। तकसीम के फसादात में मिल्खा सिंह का पूरा खानदान दहशत और बरबरियत का शिकार हुआ। उस वक्त मिल्खा सिंह जवान थे और लड़कपन की दहलीज को पार कर रहे थे किसी तरह वह अपनी जान बचा कर वह देहली पहुंचे। मुफलिसी और भुखमरी ने देहली मेें भी मिल्खा सिंह का पीछा नहीं छोडा। ट्रेन का टिकट खरीदने के भी पैसे नहीं थे एक बार वह बेगैर टिकट सफर कर रहे थे मगर पकडे गए और जेल की हवा खाई मगर अचानक उनको फौज में मुलाजमत मिल गयी और मुलाजमत के दौरान वह रफ़्ता रफ़्ता दोैड की तरफ रागिब होने लगे और फिर कौमी और बैनुलअकवामी मुकाबलों में ऐसी कामयाबी हासिल की कि वह हिंदुस्तानी खेल की शिनाख्त बन गये। मिल्खा सिंह कुल 80 मुकाबलों में शरीक हुये जिनमेें से 77 मुकाबलो में वह शान्दार तरीके से कामयाब हुये।
मिल्खा सिह ने खेल के मैदान मेें पूरी दुनिया में मुल्क का जो नाम रोैशन किया हिन्दुस्तानी तारीख में ऐसा शायद ही कोई किरदार हमें नसीब हो। मिल्खा सिंह 91 सालों तक जिन्दा रहे इस दौरान उन्होंने अपने मकाम और मरतबे का ख्याल रखा। कुछ भी किसी गैर जरूरी तनाजा का शिकार नहीं हुये। वह अपने कौल व अमल से हिन्दुस्तानी खेल कूद के लिये एक निशाने तरगीब बने रहे।
मिल्खा सिंह उर्दू जबान के बहुत बड़े शैदाई और परस्तार थे। वह अपनी खतो किताबत या मजामीन हमेशा उर्दू जबान में तहरीर किया करते थे। उनकी पर्सनल डायरी और खुतूत का एक बडा ज़ख़ीरा उर्दू में लिखा गया है। वह बहुत खूबसूरत उर्दू बोलते थे। उनकी शख्सियत मेें तवाजुन और इस्तकलाल का माद्दा ऐसा था कि वह तकसीमे मुल्क के फसादात के शदीद मुतअस्सिरीन में थे। मगर कभी भी मुशतरका तहजीब की मुखालिफत या उसके तईं किसी बरहमी का जज्बा उनके अन्दर नहीं देखा गया। इसके बरखिलाफ वह हमेशा हिन्द-पाक दोस्ती के तरफदार रहे। और दोनों मुलकों के अवाम के दरमियान राब्ते की गुंजाईश पैदा हों इसके लिये वकालत करते रहे। खुशवन्त सिंह, कुलदीप नैयर और मिल्खा सिंह में से अब सब राहिये मुल्के अदम चले गये। यह ऐसे अफराद थे जो तकसीमे वतन के बाद हिन्दुस्तान आये मगर हमेशा इन मुशकिल दिनेां की जहरआलूदगियों से खुद को महफूज रखने में कामयाब हुये और हमेशा दोनों मुल्कों के खुशगवार रवाबित के तर्जुमान रहे।
यह बात भी काबिले तहरीर ओर काबिले तकलीद है कि फिल्म डायरेक्टर फरहान अख्तर ने जब मिल्खा सिंह की ज़िन्दगी पर एक फिल्म ‘‘भाग मिल्खा भाग‘‘ बनायी तो मिल्खा सिंह को एक बडी रकम देना चाहते थे मगर अजीम मिल्खा सिंह ने बहुत शक्रिया के साथ उस रकम को लेने से इन्कार कर दिया और ऑटोबायोग्राफी की फ़िल्मकारी की इजाज़त देने के एवज़ महज़ एक रुपया लिया। फिल्म मेें फरहान अख्तर ने मिल्खा सिंह को कुछ इस अन्दाज में पेश किया है जिसको देख कर लाखों लोगों के दिलों ओर जेहन में मिल्खा सिंह हमेशा जिन्दा रहेंगेें। हाकी के खेल में ध्यानचन्द ने आजादी से पहले और बाद में हाकी को कुछ ऐसा फरोग दिया कि आजाद मुल्क में यौमे कौमी खेल के तौर पर मेजर ध्यान चन्द्र के यौमे पैदाईश 29 अगस्त को मुकर्रर किया है। इसी तरह आजादी से पहले कुश्ती के दंगल में गामा पहेलवान का एक ऐसा किरदार उभरा जिसने योरोप के पहेलवानों को दहशत में मुब्तेला कर दिया था। इन दोनों के बाद जिस शख्सियत ने हिन्दुस्तान के वेकार को तेज दौड़ के शोबे मेें आसमान तक पहुंचाया वह ज़ात मिल्खा सिंह की थी। आजादी के 74 साल पूरे हुये मगर एथेलिटस के शोबे में हिन्दुस्तान आलमी सतेह पर अब कहीं नजर नहीं आता। हुकूमत को चाहिये कि मिल्खा सिंह की याद में उनकी शायाने शान कुछ ऐसा करें जिससे लोग हमेशा एक हीरो की तरह याद रखें ओर यही उनको सबसे बड़ा खेराजे अकीदत होगा