क्रांतिकारी करतार सिंह सराभा
ग़दर पार्टी शहीद दिवस
दीवान सुशील पुरी
करतार सिंह सराभा क्रांतिकारी के बलिदान की गाथा ने ना जाने कितने नौजवानों को शहीदों की पंक्तियों में खड़ा कर दिया था तभी तो शहीदे आजम भगत सिंह उन्हें अपना गुरु मानते थे और सराभा जी की फोटो भी अपने जेब में रखते थे। 16 नवम्बर 1915 को ग़दर पार्टी के 7 क्रांतिकारियों, करतार सिंह सराभा,लुधियाना, विष्णु गणेश पिंगले,पूना, बख्शीश सिंह,अमृतसर, हरनाम सिंह,सियालकोट, जगत सिंह,लाहौर, सुरैन सिंह.पुत्र ईश्वर सिंह,लाहौर और सुरैन सिंह,पुत्र भूरे सिंह,लाहौर, को लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी पर लटका दिया। ये सब ऐसे माँ की लाल थे जिनकी आयु 19 या 20 साल की रही होगी। इनके अंदर देश की आजादी की लिए एक जज्बा था। आज की युवा पीढ़ी दिशा,विहीन हो चुकी है। इनकी कुर्बानियों को नहीं जानती।
क्रांतिकारियों की कुर्बानियों से ही हम लोग अपने देश में खुली सांस ले पा रहे हैं। इन क्रांतिकारियों में करतार सिंह सराभा जिनका जन्म 24 मई1896 को पंजाब के लुधियाना जिले के सराभा गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम मंगल सिंह तथा मां का नाम साहिब कौर था। जब ये छोटे थे तब उनके पिताजी का देहांत हो गया था। सराभा जी का पालन पोषण उनके दादा बदन सिंह जी ने बड़े लाड प्यार से किया था। सराभा जी की प्रारंभिक शिक्षा लुधियाना के खालसा स्कूल में हुई थी। हाई स्कूल उड़ीसा में चाचा के यहां रह कर किया था। चाचा जी ने देखा सराभा पढ़ने में होशियार है तो उन्हें आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका भेज दिया ताकि वे अपना और गांव का नाम रोशन करे। प्रारम्भ में अपने गांव सराभा के रुलिया सिंहए जो पहले से ही अमेरिका में थे उनके पास रहे। फिर विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने के बाद गैर सरकारी छात्रावास में चले गए थे। उसमें कुछ छात्र देश की स्वतंत्रता चाहते थे तो कुछ अंग्रेजों की नौकरी करना चाहते थे। एक दिन 1912 में लाला हरदयाल सिंह माथुर जी जो13 भाषाएँ जानते थे वह भीखाजी कामा जिन्होंने पहला भारतीय झंडा 22 अगस्त 1907 में जर्मनी के स्टटगार्ड में फहराया था मदन लाल धींगरा और दामोदर सावरकर के साथी थे। उन्होंने विद्यार्थियों की सभा में ओजस्वी भाषण दिया और वहीं साराभा जी पर अनुकूल प्रभाव पड़ा। देश की स्वतंत्रता के लिए सब कुछ न्योछावर करने का संकल्प लिया। संगठन की दृष्टि से एक समाचार पत्र की आवश्यकता महसूस की। 1 नवंबर 1913 को सैन फ्रांसिस्को से उर्दू साप्ताहिक गदर पत्र का पहला अंक प्रकाशित हुआ। यहां से जो पत्र प्रकाशित हुआ उसे युगांतर आश्रम का नाम दिया गया। साथ ही अपने संगठन का नाम भी गदर पार्टी रख दिया गया। यह उर्दू साप्ताहिक गदर लोकप्रिय हो गया फिर हिंदीएगुजराती एवं 8 जनवरी 1914 को पंजाबी भाषा में भी प्रकाशन आरंभ कर दिया जो कुल चार भाषाओं में निकलने लगा। अमेरिकी लोग भारतीयों को नफरत की निगाह से देखते थे। कहते थे चुटकी भर ब्रिटिश 30 करोड़ की आबादी वाले विशाल भारत को गुलाम बनाए हुए हैं। और यह भी कहते थे की हिंदुस्तान में 30 करोड़ आदमी रहते हैं या 30 करोड़ भेंडें और सिक्खों को दाढ़ी वाले औरत कहते थे। करतार सिंह सराभा और उनके साथ रह रहे अन्य सभी भारतीयों ने यह अनुभव किया कि इस प्रकार अपमानित होने से देश की आजादी के लिए कुछ करके मरा जाए। गदर के प्रकाशन और गदर पार्टी की स्थापना प्रवासी भारतीयों के अंदर जज्बा और आत्मविश्वास पैदा कर दिया था। ब्रिटिश जासूसों ने इन सब गतिविधियों की सूचना अपनी सरकार के पास भेज दी थी। फलस्वरूप ब्रिटिश शासन के कहने पर हरदयाल सिंह माथुर जी को गिरफ्तार कर लिया और उन पर मुकदमा चला ए लेकिन कुछ दिन बाद जमानत पर छूट गए। गदर पार्टी के सचिव का काम संतोष सिंह करने लगे और करतार सिंह सराभा को हवाई जहाज उड़ाने की ट्रेनिंग लेने के लिए न्यूयॉर्क भेज दिया। करतार सिंह सराभा जी ने 6 महीने की बजाय 4 महीने में ही ट्रेनिंग पूरी कर ली। इसके साथ.साथ जहाज की मरम्मत करना और पुर्जे बनाना भी सीख लिया। 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हो गया था। गदर पार्टी के क्रांतिकारी भारत पहुंचकर सेना में विद्रोह भड़काना चाहते थे। करतार सिंह अमेरिका में अपने साथियों को ज्यादा से ज्यादा भारत पहुंचने के लिए प्रेरित कर रहे थे। खुद भी श्निपनमारुश् नामक जापानी जहाज से कोलंबो मद्रास होते हुए किसी तरह पंजाब पहुंच गए। पार्टी के प्रमुख विष्णु गणेश पिंगले जी भी पंजाब पहुंच गएए जिससे गतिविधियां तेज हो गई।
अब क्रांतिकारी के पास ना तो हथियार थे और ना ही पैसे तो उन लोगों ने सोचा सूदखोर अंग्रेजों के पिट्ठू जैसे धनी लोगों के घर डाका डाला जाए और सराभा जी के नेतृत्व में डाका डाला गया और काफी धन एकत्र हो गया जिससे हथियार आदि खरीदे गए। कोई भी क्रांतिकारी अनुभवी नहीं था एउन्होंने बंगाल के महान क्रांतिकारी रासबिहारी बोस की प्रशंसा सुन रखी थी उन्हें पंजाब लाने हेतु विष्णु गणेश पिंगले जी को बंगाल भेजा। रासबिहारी बोस जी ने भी करतार सिंह सराभा की प्रशंसा सुन रखी थी कुछ दिन बाद वह भी पंजाब आ गए। 21 फरवरी1915 को सरकारी भवनों पर फहराने के लिए स्वाधीन भारत के झंडे भी तैयार कर लिए गए थे। उधर पुलों को तोड़ने रेल पटरियों को उखाड़ने और तारों को काटने की पूरी तैयारी कर ली गई थी।
इसी बीच अंग्रेजों को भनक लग गई। अपना गुप्तचर कृपाल सिंह को क्रांतिकारियों में प्रवेश करा दिया। वह सारी सूचना अंग्रेजों को देता रहता था। देखते ही देखते क्रांतिकारियों का अड्डा पुलिस द्वारा घेर लिया गया। वहां उपस्थित क्रांतिकारी गिरफ्तार कर लिए गए। सौभाग्य से रासबिहारी बोस और करतार सिंह सराभा वहां मौजूद नहीं थे रासबिहारी जी अपने ठिकाने बदलते रहते थे। वे पंजाबी मुसलमान के भेष में लाहौर से बनारस पहुंच गए। करतार सिंह जी भूमिगत होना चाहते थे। तीन साथियों जगत सिंह हरनाम सिंह और सुरैन सिंह के साथ पेशावर होते हुए अफगानिस्तान की सीमा में तो घुस गए किंतु अपनी लिखी कविता उन्हें याद आ गई बनी सिर शेरां देए की जाना भज के ।
अतः भूमिगत होने का विचार त्याग कर भारत की सीमा में वापस आ गए। सरगोधा के निकट सैनिकों के बीच पुनः विद्रोह की चर्चा करने लगे फिर वहीं पर गिरफ्तार कर लिए गए। लाहौर षड्यंत्र कांड के 61 क्रांतिकारियों पर मुकदमा चला। करतार सिंह सराभा के बारे में एक अंग्रेज ने टिप्पणी लिखी माना कि यह 19 साल का नौजवान है परंतु षड्यंत्र क्रांतिकारियों में सबसे ज्यादा कठोर व बदमाश है। इसकी संरचना अमेरिका में हुई हो चाहे जहाज पर या फिर भारत में। ऐसा कोई कोना नहीं है जहां इसने कारगुजारी न दिखाई हों। एक साथ 24 क्रांतिकारियों को फांसी का दंड सुनाए जाने पर बड़ी प्रतिक्रिया हुई। परिणामस्वरूप 14 नवंबर 1915 को 17 क्रांतिकारियों की फांसी के दंड को आजीवन कारावास में बदल दियाए शेष की सजाएं जैसी थी वैसे ही रही। करतार सिंह सराभा फांसी वाले दिन अपनी कोठरी में कुछ गुनगुना रहे थे उनकी पास की कोठरी में झांसी वाले पंडित परमानंद जी थे। वह पूछ ही बैठे सराभा जी क्या कर रहे हो घ् इस पर सराभा जी ने कहा मैं कविता लिख रहा हूं। फिर परमानंद जी ने कहा . हमें भी तो सुनाओ।
वह कविता इस प्रकार है –
यही पाओगे महशर में जवां मेरी बयां मेरा । मैं बंदा हिंद वालों का हूं है हिन्दोस्तां मेरा ॥
मैं हिंदी ठेठ हिंदी जात हिंदी नाम हिंदी है । यही मजहब यही फिरका यही है खानदान मेरा ॥ मैं इस उजड़े हुए भारत का एक मामूली जर्रा हूं ।
यह बस इक पता मेरा यही नामो निशां मेरा ॥ मैं उठते बैठते तेरे कदम लूं चूमए ऐ भारत । कहां किस्मत मेरी ऐसी नसीबा ये कहां मेरा ॥
तेरी खिदमत में ऐ भारत ! ये सर जाये ये जां जाये । तो समझूंगा कि मरना है हयाते जादवां मेरा ॥
सराभा जी की यह कविता भगत सिंह और सुरैन सिंह के पुत्र भूरे सिंह,लाहौर अक्सर गुनगुनाया करते थे। शहीद स्मृति समारोह समिति ; जिसके अध्यक्ष सुनील शास्त्री सुपुत्र पूर्व प्रधानमंत्री स्व लाल बहादुर शास्त्री जी ए उपाध्यक्ष एवं कोषाध्यक्ष मैं , सुशील पुरी और महामंत्री उदय खत्री हैं के तत्वावधान में ग़दर पार्टी का शहीद दिवस 18 नवम्बर 2013 को दुर्गा भाभी जी के स्कूल लखनऊ में शहीद ए आजम भगत सिंह सभागार में मनाया गया था। दुर्गा भाभी जी ने 18 दिसंबर 1928 को भेष बदलकर भगत सिंह जी की पत्नी का रोल किया था और कलकत्ता से यात्रा की थी। उनके साथ राजगुरु ए चंद्रशेखर आजाद और कई क्रांतिकारी थे। इस ग़दर पार्टी के शहीद दिवस में विष्णु गणेश पिंगले जी के पौत्र उमाकांत पिंगले और प्रपौत्र रविंद्र पिंगले पहुंचे थे।
-उपाध्यक्ष एवं कोषाध्यक्ष-हीद स्मृति समारोह समिति-
-बी-13 सेक्टर- सी,एलडीए कॉलोनी -कानपुर रोड लखनऊ.
मो. 94151 07800