“मजहब एक देवदूत या पैगम्बर द्वारा की गई घोषणा है”, हृदयनारायण दीक्षित का ब्लॉग
धर्म व्यवस्था है। मजहब एक देवदूत या पैगम्बर द्वारा की गई घोषणा है। भारतीय धर्म में 6 प्राचीन षट दर्शन व बुद्ध जैन मिलकर आठ दर्शन सम्मिलित हैं। इसलिए हिन्दू धर्म में अंधविश्वास की जगह नहीं प्रश्न और जिज्ञासा का महत्व है। अनेक विद्वानों ने हिन्दू धर्म द्वारा सबको मिला लेने की क्षमता को अद्भुत बताया है। हिन्दू धर्म में बाहर से आए ईरानी, यूनानी, पार्थियन, बैक्ट्रियन, हूण, तुर्क, यहूदी और पारसी भी घुल मिल गए। मुसलमान सातवीं शताब्दी में आए। उनका आना जारी रहा। उन पर भी हिन्दू धर्म का प्रभाव पड़ा। प्रसिद्ध इतिहासकार विन्सेंट स्मिथ ने कहा है, ‘‘विदेशी (मुसलमान तुर्क) अपने पूर्वजों शकों आदि की तरह हिन्दू धर्म की पचा लेने की अद्भुत शक्ति के बस में हुए और उनमें तेजी के साथ हिन्दूपन आ गया।‘‘ पं० जवाहर लाल नेहरू स्मिथ द्वारा प्रयोग किए गए ‘हिन्दूपन‘ शब्द से असहमत थे। ‘हिंदुस्तान की कहानी‘ ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया‘ का प्रामाणिक अनुवाद है। ‘हिंदुस्तान की कहानी‘ में हिंदुस्तान की खोज शीर्षक से एक अध्याय है। इस अध्याय के तीसरे उपखण्ड का शीर्षक है ‘हिन्दू धर्म क्या है?‘। नेहरू ने स्मिथ द्वारा प्रयुक्त किए गए हिन्दू धर्म और हिन्दूपन शब्द प्रयोग पर आपत्ति की है, ‘‘मेरी समझ में इन शब्दों का इस तरह इस्तेमाल करना ठीक नहीं है। अगर इनका इस्तेमाल हिंदुस्तानी तहजीब के विस्तृत अर्थ में लिया जाए तो दूसरी बात है। आज इन शब्दों का इस्तमाल बहुत संकुचित अर्थ में किया जाता है और इनसे एक खास मजहब का ख्याल होता है।‘‘ पं० नेहरू की दृष्टि में हिन्दू मजहब है। हिन्दू धर्म व्यापक नहीं है। उनके अनुसार इन शब्दों का अर्थ खास मजहब की याद दिलाता है। नेहरू की माने तो हिन्दू धर्म भी इस्लाम की तरह एक मजहब है।
हिन्दू धर्म के सम्बंध में गाँधी जी का मत सुस्पष्ट है लेकिन नेहरू की समझ सुस्पष्ट नहीं है। वे लिखते हैं, ‘‘हमारे पुराने साहित्य में हिन्दू शब्द कहीं नहीं आता। आठवीं सदी ईसवी के एक तांत्रिक ग्रंथ में यह शब्द मिलता है। इसमें हिन्दू का मतलब किसी खास धर्म से नहीं बल्कि खास लोगों से है। जाहिर है कि यह शब्द बहुत पुराना है।‘‘ पं० नेहरू के विवेचन में अंतर्विरोध है। वे पहले कहते है कि ”ये शब्द पुराने साहित्य में नहीं मिलता और इसी वक्तव्य में कहते हैं कि यह शब्द बहुत पुराना है।” मजहब और धर्म अलग अलग हैं। दोनों में मूलभूत अंतर हैं। हिन्दू धर्म मजहब नहीं है। पं० नेहरू ने लिखा है कि ”यह शब्द ‘अवेस्ता‘ में और पुरानी फारसी में आता है। वे स्वयं लिखते हैं, ‘‘दरअसल धर्म का अर्थ मजहब या रिलिजन से ज्यादा व्यापक है। यह किसी वस्तु की भीतरी आकृति, आतंरिक जीवन के विधान के अर्थ में आता है। इसके अंदर नैतिक विधान सदाचार और मनुष्य की सारी जिम्मेदारियां और कर्तव्य आ जाते हैं।‘‘ उन्होंने संकोचपूर्वक धर्म को मजहब से पृथक बताया है। आगे लिखते हैं, ‘‘हिन्दू धर्म जहां तक एक मत है अस्पष्ट है। इसकी कोई निश्चित रूप रेखा नहीं है। इसके कई पहलू हैं। इसकी परिभाषा दे सकना या निश्चित रूप में कह सकना कि साधारण रूप में यह एक मत है, कठिन है। अपने मौजूदा रूप में बल्कि बीते हुए जमाने में भी इसके भीतर बहुत से विश्वास और कर्मकाण्ड आ मिले हैं। ऊंचे से ऊंचे और गिरे से गिरे।‘‘ नेहरू ने यह नहीं बताया कि ऊंचे से ऊंचे और गिरे से गिरे कर्म का उनका तात्पर्य क्या है। वे हिन्दू और हिन्दू धर्म शब्दों के प्रयोग को गलत बताते हैं, ‘‘हिन्दू और हिन्दू धर्म शब्दों का हिंदुस्तानी संस्कृति के लिए इस्तेमाल किया जाना न तो शुद्ध है न तो मुनासिब है।‘‘ चाहे इन्हें बहुत पुराने जमाने के हवाले में ही क्यों न इस्तेमाल किया जाए।‘‘
धर्म का अर्थ व्यापक है। इसमें प्रकृति का मूलभूत संविधान भी है। प्रकृति अपनी गतिशीलता में नियमबद्ध रहती है। आकाश में मेघ आते हैं। बिना नियम नहीं आते। वर्षा होती है। इसके कार्यकारण सिद्धांत हैं। लोग जन्म लेते हैं। शिशु होते हैं। तरुण होते हैं। एक दिन देहावसान हो जाता है। यह सब प्रकृति के आतंरिक नियमों के अनुसार होता है। जल ऊपर से नीचे को बहता है। अग्नि की लपटें नीचे से ऊपर को जाती हैं। प्राकृतिक नियमों के अंतर्गत ही बसंत, हेमंत और शरद आते हैं। चन्द्रमा भी प्रकृति की व्यवस्था में पूर्णमासी के रूप में खिलता है और धीरे धीरे घटते हुए अमावस्या की काली रात में प्रकट होता है। प्रकृति अराजक नहीं है। पूर्वजों ने प्रकृति की व्यवस्था को ध्यान से देखा और सोचा कि प्रकृति सुसंगत नियमों में है। हम सब प्रकृति के अंग हैं तो हम भी नियमबद्ध रहें। मनुष्य ने अपने लिए भी अचार संहिता का विकास किया। सगंधा होना पृथ्वी का धर्म है। रस जल का धर्म है। ताप अग्नि का धर्म है। भारत के धर्म/हिन्दू धर्म में सब तत्व समाहित हैं। मनुष्य का मनुष्य के प्रति व्यवहार। मनुष्य का प्रकृति के प्रति व्यवहार। मनुष्य का कीट पतिंगों के प्रति व्यवहार। मनुष्य का समृष्टि के प्रति व्यवहार धर्म की अचार संहिता का भाग है। भारतीय धर्म का अधिष्ठान लोकमंगल है। इस अधिष्ठान पर हजारों वर्ष से प्रश्न जिज्ञासा और तर्क भी चलते रहे हैं। मत मजहब पंथ रिलीजन में तर्क और जिज्ञासा की गुंजाइश नहीं है। हिन्दू धर्म में है। हिन्दू धर्म सतत् विकासशील है। सारी दुनिया को परिवार जानना हिन्दू धर्म की अनुभूति है। यहाँ दर्शन है, बहस है। आध्यात्मिक लोकतंत्र भी है।
हिन्दू धर्म का मूल आधार वेद हैं। वैदिक दर्शन हैं। वैदिक दर्शन का विकास उपनिषदों में प्रकट हुआ है। वैदिक साहित्य के प्रति हिन्दुओं की आस्था और जिज्ञासा सारी दुनिया के लिए विचारणीय है। हिन्दू वेदों को श्रुति ग्रंथ मानते हैं। पं० नेहरू इससे सहमत नहीं थे। उन्होंने लिखा है कि, ‘‘वेदों को श्रुति ग्रंथ मानने में मुझे खास तौर पर दुर्भाग्य की बात मालूम पड़ती है। इस तरह हम उनके सच्चे महत्व को खो देते हैं। विचार की प्रारंभिक अवस्था में मनुष्य मस्तिष्क ने स्वयं को किस रूप में प्रकट किया था? वह कैसा अद्भुत दिमाग था? नेहरू जी ऋग्वेद को मनुष्य की पहली पुस्तक बताते हैं। लेकिन अपने मत को प्रकट करते समय वे ‘शायद‘ लगाते हैं, ”ऋग्वेद शायद मनुष्य की पहली पुस्तक है।” फिर प्रशंसा करते हैं, ‘‘इसमें हमे मानव मस्तिष्क के सबसे पहले उद्गार मिलते हैं। काव्य की छटा मिलती है और मिलती है प्रकृति की सौंदर्यता और रहस्य पर आनंद की भावना।‘‘ ऋग्वेद जैसा दर्शन सौ पचास साल के सामाजिक विकास का परिणाम नहीं है। ऋग्वेद की रचना अचानक नहीं हुई। इसके पीछे सैकड़ों वर्ष का सांस्कृतिक इतिहास है। ऋग्वेद के पहले भी ज्ञान दर्शन और संस्कृति का एक दीर्घकालिक कालखण्ड होना चाहिए। अनेक स्थलों पर ऋग्वेद के ऋषि अपने पूर्वज ऋषियों का स्मरण करते हैं। एक ऋषि इन्द्र से कहते हैं कि मैं तुम्हारे लिए नए स्तोत्र रचता हूँ। वे अपने पूर्वजों को बार बार नमस्कार करते हैं – इदं नमः ऋषिभ्यः पूर्वेभ्यः पूर्वजेभ्यः पाथिक्रभ्यः। इस मंत्र में पूर्वजों को नमस्कार है। पहले के ऋषियों को नमस्कार है। समष्टि का सम्मान और दिव्यता के प्रति समर्पण और लोकमंगल की प्रतिबद्धता हिन्दू धर्म की विशेषता है।