एमएसपी कानून की गलत आलोचनाओं का खंडन
(आलेख : विकास रावल, अनुवाद : संजय पराते)
किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने वाले कानून की अक्सर सुनी जाने वाली आलोचनाओं का जवाब देने के लिए यह आलेख है।
न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की प्रणाली 1960 के दशक से अस्तित्व में आई है और इसका उद्देश्य है, किसानों के लिए न्यूनतम लाभकारी मूल्य सुनिश्चित करना। इस प्रणाली को लागू करते समय यह वादा किया गया था कि सरकार कृषि उपज की किसी भी मात्रा को खरीदेगी, जिसे किसान न्यूनतम मूल्य पर बेचने में असमर्थ हैं। हालाँकि, यह वादा कभी पूरा नहीं किया गया और सरकारी खरीद की प्रणाली केवल कुछ फसलों के लिए बनाई गई और केवल कुछ राज्यों में ही इसे लागू किया गया। न्यूनतम कीमत की समस्या हाल के वर्षों में एक बड़ी समस्या बन गई है, क्योंकि किसी भी वर्ष, कई फसलों की बाजार कीमतें एमएसपी से काफी नीचे के स्तर पर रहती हैं। इसी संदर्भ में लाभकारी मूल्य की गारंटी की मांग उठ रही है।
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले, नरेंद्र मोदी ने वादा किया था कि अगर सत्ता में आए, तो उनकी सरकार एमएसपी निर्धारित करने के तरीके को बदल देगी। उन्होंने कहा था, ”एक नया फॉर्मूला होगा — उत्पादन की पूरी लागत और 50% मुनाफ़ा”। वह जिस फार्मूले को लागू करने का वादा कर रहे थे, वह 2006 की एम.एस. स्वामीनाथन आयोग की प्रमुख सिफारिशों में से एक थी। हालाँकि, उनके कार्यकाल के दस साल बाद भी यह वादा अधूरा है।
अपनी मांग पर जोर देने के लिए चल रहे किसानों के संघर्ष के जवाब में, मुख्यधारा की मीडिया में संपादकीय के साथ-साथ नवउदारवादी टिप्पणीकारों ने एमएसपी के वैधानिक अधिकार के लिए किसानों की मांग की व्यवहार्यता और बुद्धिमत्ता पर सवाल उठाया है। ये आलोचनाएँ राज्य को पूंजीपतियों के लिए सुविधा प्रदाता में बदलनेके लिए कल्याणकारी खर्च में कटौती करने की नवउदारवादी हठधर्मिता से उत्पन्न होती हैं। यही वह परिप्रेक्ष्य है, जो कृषि संकट की जड़ में है। इस नोट का उद्देश्य इन आलोचकों द्वारा फैलाये जा रहे विभिन्न मिथकों को दूर करना है।
किसानों को एमएसपी की गारंटी क्यों चाहिए?
सुनिश्चित लाभकारी कीमतें न केवल किसानों के कल्याण के लिए, बल्कि भारत की खाद्य सुरक्षा के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। भारत जैसे बड़े देश के लिए घरेलू उत्पादन ही खाद्य आपूर्ति का मुख्य आधार होना चाहिए। जैसा कि 1960 के दशक से स्पष्ट है, खाद्यान्न के लिए आयात पर निर्भरता न केवल भारत को अंतरराष्ट्रीय बाजारों की अनिश्चितताओं के प्रति संवेदनशील बनाती है, बल्कि यह देश को अपने रणनीतिक हितों से समझौता करने के लिए भी मजबूर कर सकती है।
अन्य सभी स्व-रोज़गार व्यक्तियों और व्यवसायों की तरह किसान भी वही व्यवसाय करते हैं जो सबसे अधिक लाभदायक होता है। लेकिन अन्य व्यवसायों के विपरीत, किसानों को विशेष रूप से विकट समस्या का सामना करना पड़ता है। जब वे कोई फसल बोने का निर्णय लेते हैं, तो उन्हें नहीं पता होता है कि उनकी उपज कितने में बिकेगी। मौसमी परिस्थितियों को देखते हुए, और इस तथ्य को देखते हुए कि किसान फसल उगाने में बहुत सारे संसाधन खर्च करते हैं, कीमतें गिरने पर वे कुछ नहीं कर सकते। बड़े खर्चों और अक्सर कर्ज में डूबे रहने के कारण, कुछ ही किसान अपनी उपज को रोककर रख सकते हैं और कीमतें बढ़ने का इंतजार कर सकते हैं। यह किसानों के बीच कृषि घाटे, कर्ज के बोझ और संकट का एक प्रमुख कारण है।
बाज़ारों को संतुलन कीमतें निर्धारित करने की अनुमति क्यों नहीं दी जा सकती?
ऐसे कई कारण हैं, जिनकी वजह से कृषि बाज़ार संतुलन कीमतों पर स्थिर नहीं होते हैं। कृषि बाज़ार बहुत ही जोखिम भरा है। उत्पादकों की संख्या बहुत बड़ी है। दूसरी ओर, अक्सर कुछ बड़े खरीदार/व्यापारी बाज़ारों को नियंत्रित करते हैं। इसका परिणाम मोनोप्सोनिस्टिक (एकाधिकारी) बाज़ारों में होता है, जिसमें खरीदार बाज़ार की कीमतों पर अनुचित प्रभाव डालते हैं और इससे मुनाफाखोरी की स्थिति पैदा होती है। यह स्थिति और भी बदतर हो गई है, क्योंकि किसान अक्सर वित्त के लिए व्यापारियों पर निर्भर होते हैं और उनके कर्जदार होते हैं। इसके अलावा, व्यक्तिगत रूप से किसान फसल के समय मांग की स्थिति या समग्र आपूर्ति की भविष्यवाणी भी नहीं कर सकते हैं। अप्रत्याशित मौसम के परिणामस्वरूप फसल की हानि और आपूर्ति में कमी होती है। दूसरी ओर, ऐसे वर्ष भी होते हैं जब फसल उत्पादन में बहुतायत हो जाती है, क्योंकि कई किसान ऐसी फसल उगाने का निर्णय लेते हैं जो पिछले वर्ष लाभदायक थी। बड़े व्यवसायों के पास महत्वपूर्ण स्टॉकिंग क्षमता भी होती है, जिसका उपयोग वे बाजार की कीमतों को प्रभावित करने के लिए कर सकते हैं। कई फसलों के लिए, दुनिया के अन्य हिस्सों में आपूर्ति की स्थिति में बदलाव का, भारत में घरेलू कीमतों पर प्रभाव पड़ता है।
इन खामियों को देखते हुए, कृषि कीमतों में बेतहाशा उतार-चढ़ाव होता है। जिस फसल को एक साल में अच्छी कीमत मिलती है, वह अगले साल बहुत कम कीमत पर बिकती है। जब किसान फसल बोने का निर्णय लेते हैं, तो वे कीमतों का अनुमान नहीं लगा पाते हैं और अक्सर उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ता है। एक बार फसल बोने के बाद किसानों के पास बहुत कम विकल्प बचता हैं। इन समस्याओं को देखते हुए, कृषि कीमतों को अनियमित बाजारों के भरोसे पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए।
सरकार सारी उपज खरीदकर वितरित नहीं कर सकती
यह सही है कि सरकार समस्त कृषि उपज की खरीद-फरोख्त नहीं कर सकती और न ही उसका वितरण कर सकती है। यह भी सही है कि, मौजूदा स्थिति में, यदि निजी खरीदारों को उच्च एमएसपी पर खरीदने के लिए मजबूर किया जाता है, तो यह अत्यधिक मुद्रास्फीतिकारी होगा, क्योंकि वे बढ़ी हुई लागत उपभोक्ताओं पर डालेंगे।
इससे कैसे बचा जा सकता है, यह समझने के लिए हमें यह समझना होगा कि यह स्थिति क्यों उत्पन्न हुई है?
1990 के दशक से अपनाई गई नवउदारवादी नीतियों के परिणामस्वरूप खेती की लागत में भारी वृद्धि हुई है। इसने कृषि आदानों और सेवाओं के सार्वजनिक प्रावधान, कृषि मूल्य नीतियों और खाद्य नीतियों के बीच इस तालमेल को तोड़ दिया है।
राजकोषीय मितव्ययिता और व्यापार उदारीकरण के साथ नवउदारवादी निर्धारण के परिणामस्वरूप कृषि आदानों की आपूर्ति के निजीकरण, इनपुट कीमतों के विनियमन, बिजली क्षेत्र में सुधार, कम सार्वजनिक निवेश और औपचारिक-क्षेत्र में ऋण की कम आपूर्ति के रूप में कृषि क्षेत्र के लिए राज्य सहायता में कमी आई है। इससे खेती की लागत बढ़ गई है और खुले बाजार में कीमतें अलाभकारी हो गई हैं। परिणामस्वरूप, एमएसपी पर सार्वजनिक खरीद, जिसे एक सीमांत ऑपरेशन माना जाता है, केवल तभी आवश्यक होता है, जब बाजार की कीमतें प्रतिकूल रूप से चलती हैं। आज एमएसपी किसानों के लिए कृषि में घाटे से बचने के लिए महत्वपूर्ण हो गई है।
लेकिन इसकी आवश्यकता नहीं पड़ेगी, यदि निजीकरण और इनपुट कीमतों के विनियमन के कारण खुले बाजार की कीमतों और एमएसपी के बीच असंतुलन को इनपुट लागतों को विनियमित करके ठीक किया जाएं। स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार, एमएसपी लागत का 1.5 गुना (आमतौर पर अब इसे ‘सी-2+50%’ के रूप में जाना जाता है) तय किया जाना चाहिए। यदि खेती की लागत को कम किया जा सकता है, तो एमएसपी को सामान्य खुले बाजार की कीमतों के साथ निकटता से जोड़ा जा सकता है। इससे यह सुनिश्चित होगा कि, किसी भी वर्ष, अधिकांश फसलों के लिए, बाजार मूल्य लाभकारी होंगे।
ऐसी स्थिति में, निजी खरीदारों पर एमएसपी से कम कीमत पर खरीद न करने के लिए प्रतिबंध लगाया जा सकता है। इससे कोई महत्वपूर्ण गड़बड़ी या मुद्रास्फीति भी नहीं होगी और सरकार को केवल उन फसलों को खरीदने की आवश्यकता होगी, जिनके लिए निजी व्यापारी एमएसपी का भुगतान करने को तैयार नहीं हैं।
एक गारंटीकृत एमएसपी सबसे अधिक लाभदायक फसलों की खेती को प्रोत्साहित करने के बजाए उस क्षेत्र के लिए सबसे अधिक उपयुक्त फसल की खेती को प्रोत्साहित करेगा। लाभ के आधार पर खेती करना पारिस्थितिक रूप से विनाशकारी है, विशेष रूप से भूजल और मिट्टी के लिए, और सार्वजनिक स्वास्थ्य और खाद्य सुरक्षा के लिए भी बुरा है।
अन्य सभी व्यवसायों की तरह, किसान भी वही फसल उपजाते हैं, जो सबसे अधिक लाभदायक होता है। उन्हें ऐसी फसलें क्यों उगानी चाहिए, जो लाभहीन हैं? इस बात की क्या गारंटी है कि मुक्त-बाज़ार की स्थितियों में, जो फसलें पारिस्थितिक रूप से उपयुक्त हैं, वे सबसे अधिक लाभदायक होंगी?
यदि एमएसपी सभी फसलों पर लागू होता है, तो सरकार वास्तव में यह सुनिश्चित कर सकती है कि जो फसलें पारिस्थितिक रूप से सबसे उपयुक्त हैं, वे सबसे अधिक लाभदायक भी हों। उन फसलों के लिए एमएसपी उच्च स्तर पर निर्धारित किया जा सकता है, जो पारिस्थितिक रूप से उपयुक्त हैं और पोषण के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं। मुक्त बाज़ार इन पहलुओं को कोई महत्व नहीं देता। इसलिए जो फसलें पारिस्थितिक रूप से उपयुक्त और पौष्टिक हैं, वे लाभदायक नहीं हैं। दालों और बाजरा का मामला तो जगजाहिर है।
कभी-कभी यह गलत तर्क दिया जाता है कि एमएसपी प्रणाली ने पंजाब में किसानों को धान जैसी पानी की अधिक खपत वाली फसलें उगाने के लिए प्रोत्साहित किया है। पंजाब की पारिस्थितिक समस्याएं इसलिए नहीं हैं कि धान एमएसपी और खरीद के अंतर्गत आता है, बल्कि ऐसा इसलिए है कि अन्य पारिस्थितिक रूप से अधिक उपयुक्त फसलें एमएसपी और खरीद व्यवस्था के अंतर्गत शामिल नहीं हैं। बाजरा और दालें समान रूप से लाभदायक हो, तब तक सुनिश्चित नहीं किया जा सकता, जब तक खरीद प्रणाली के माध्यम से इन फसलों की कीमतों की गारंटी नहीं दी जाती है।
किसानों से पारिस्थितिक रूप से टिकाऊ फसलों और कृषि पद्धतियों को अपनाने की उम्मीद केवल यह सुनिश्चित करके की जा सकती है कि ये लाभदायक भी हैं। एमएसपी उस रणनीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
एक गारंटीशुदा एमएसपी मुद्रास्फीतिकारी होगी और हमारे कृषि उत्पादों को विश्व स्तर पर अप्रतिस्पर्धी बना देगा।
मुद्रास्फीति के प्रभाव की जड़ें बढ़ती इनपुट लागत में हैं। निजीकरण और अविनियमन के परिणामस्वरूप कृषि आदानों की कीमतें आसमान छू रही है। इस पर नियंत्रण होना चाहिए। इनपुट सब्सिडी इनपुट की कीमतों को नियंत्रित करने के लिए होनी चाहिए, न कि बीज और उर्वरक कंपनियों की जेबें भरने के लिए। सरकारी एजेंसियों को किसानों को किफायती दर पर इनपुट उपलब्ध कराना चाहिए।
यदि खेती की लागत में वृद्धि को नियंत्रित किया गया, तो मुद्रास्फीति रुक जाएगी और कृषि निर्यात के लिए बाधा बन जाएगी।
भारत की कृषि मुख्य रूप से निर्यातोन्मुख नहीं है और न ही होनी चाहिए। निर्यात के लिए अधिक पानी वाली फसलें उगाना और निर्यातोन्मुख कृषि की ओर बढ़ना और अपनी खाद्य सुरक्षा से समझौता करना एक बुरा विचार है। किसानों को ऐसी फसलें उगानी चाहिए, जो भारत की खाद्य सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हों और पारिस्थितिक रूप से उपयुक्त हों। ऐसा करने के लिए इन फसलों की खेती को और अधिक लाभकारी बनाना होगा। इसके लिए एमएसपी की गारंटी चाहिए।
किसानों को उतार-चढ़ाव से बचाने के लिए सरकार को संसाधनों को मोड़ना चाहिए और आवश्यकता पड़ने पर हस्तक्षेप करना चाहिए?
किसान बिल्कुल यही मांग कर रहे हैं। एमएसपी और खरीद हस्तक्षेप की एक प्रणाली होना यह सुनिश्चित करने का तरीका है कि बाजार लाभकारी मूल्य दें, और जब बाजार यह नहीं देती, तो सरकार हस्तक्षेप करें। किसान यही गारंटी मांग रहे हैं।
सरकार कह रही है कि वह एमएसपी को लेकर स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश पहले ही लागू कर चुकी है।
स्वामीनाथन आयोग ने सिफारिश की थी कि एमएसपी खेती की सकल लागत से कम से कम 50 प्रतिशत अधिक होनी चाहिए। कृषि लागत और मूल्य निर्धारण आयोग द्वारा विकसित और उपयोग की जाने वाली विधियों में, खेती की कुल लागत को सी-2 कहा जाता है। लेकिन एमएसपी को सी-2+50% स्तर पर तय करने के बजाय, मोदी सरकार ने एमएसपी तय करने के लिए बेंचमार्क के रूप में “ए-2+एफएल” नामक कम लागत का उपयोग करना शुरू कर दिया है। “ए-2+एफएल” खेती की पूरी लागत को कवर नहीं करता है। यह वास्तव में किसानों द्वारा खर्च की गई कुल लागत से बहुत कम बैठता है।
इसके अलावा, न्यूनतम समर्थन मूल्य को न्यूनतम मूल्य के रूप में लागू करने वाले तंत्र के बिना, एमएसपी एक खोखले वादे से ज्यादा कुछ नहीं है। अधिकांश फसलों के लिए एमएसपी सिर्फ एक घोषणा है। यह सुनिश्चित करने की कोई व्यवस्था नहीं है कि किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य मिले।
हर फसल के लिए एमएसपी की गारंटी देने के बजाय, सरकार को कुशल और टिकाऊ उत्पादन के लिए आधुनिक तकनीकों को अपनाने के लिए समर्थन देना चाहिए।
सरकार को पारिस्थितिक रूप से उपयुक्त फसलों के लिए उच्च एमएसपी देने और दक्षता में सुधार और नई प्रौद्योगिकियों को अपनाने के लिए सहायता प्रदान करने से कोई नहीं रोक सकता है। एमएसपी की गारंटी देने में विरोधाभास कहां है?
सरकार को एमएसपी की गारंटी के बजाय कृषि में सार्वजनिक निवेश बढ़ाना चाहिए।
निःसंदेह सरकार को सार्वजनिक निवेश बढ़ाने की जरूरत है। एमएसपी की गारंटी सरकार को निवेश बढ़ाने से क्यों रोकेगी? किसान कृषि में निवेश को समर्थन मूल्य से बदलने की मांग नहीं कर रहे हैं। वे कॉरपोरेट्स को दी जाने वाली उदारता और रियायतों में कटौती, कॉरपोरेट्स का ऋण माफ़ न करने और अति-अमीरों पर कर लगाने के माध्यम से किसानों के लिए सहायता जुटाने की मांग कर रहे हैं।
कुछ राज्यों के किसानों का एक छोटा सा हिस्सा ही एमएसपी के सभी लाभों को प्राप्त करता है।
एमएसपी में 23 फसलें शामिल हैं, लेकिन भारत के कृषि उत्पादन और सार्वजनिक खरीद से किसानों के एक छोटे से हिस्से को ही लाभ होता है। सरकार कई उच्च मूल्य वाली वाणिज्यिक फसलों, पशुधन उत्पादों, मछली आदि के लिए एमएसपी की घोषणा नहीं करती है, हालाँकि, खाद्य सुरक्षा के दृष्टिकोण से ये सबसे महत्वपूर्ण फसलें हैं। खरीद की प्रणाली से वर्तमान में केवल चावल और गेहूं उत्पादकों को लाभ होता है, और वह भी केवल कुछ राज्यों में।
एमएसपी और सार्वजनिक खरीद की प्रणाली के माध्यम से सुनिश्चित और लाभकारी कीमतों की गारंटी का विस्तार करने की आवश्यकता है। कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि पहले कदम के रूप में, सार्वजनिक खरीद की प्रणाली को उन 23 फसलों तक विस्तारित किया जाना चाहिए, जिनके लिए एमएसपी घोषित किया गया है। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि अंततः सभी किसानों को उनकी उपज के लिए लाभकारी मूल्य की गारंटी प्रदान की जानी चाहिए।
हाल के दशकों में भारतीय कृषि में डेयरी और पोल्ट्री जैसे क्षेत्रों में काफी वृद्धि हुई है, जो एमएसपी के दायरे में नहीं आते हैं। इससे पता चलता है कि ग्रोथ के लिए एमएसपी जरूरी नहीं है।
यह संभव है कि कुछ वस्तुओं के लिए बाज़ार में कुछ वर्षों के लिए लाभकारी मूल्य मिल जाता हैं और इसलिए इन वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि देखी जाती है। लेकिन ऐसा सभी फसलों के लिए या हर समय नहीं होता है।
यहां यह भी ध्यान रखना चाहिए कि डेयरी और पोल्ट्री के उत्पादन के अनुमान उतने विश्वसनीय नहीं हैं, जितने कि 23 “पूर्वानुमानित फसलों” के लिए हैं, जिनके लिए एमएसपी घोषित किया गया है। जबकि “अनुमानित फसलों” के उत्पादन का अनुमान अधिकांश राज्यों में हर मौसम में किए जाने वाले फसल कटाई सर्वेक्षणों पर आधारित होता है, डेयरी और पोल्ट्री फसलों के उत्पादन पर डेटा एकत्र करने के लिए सर्वेक्षण अधिकांश राज्यों में व्यवस्थित रूप से नहीं किए जाते हैं। इनमें से कुछ वस्तुओं के विकास अनुमान को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किये जाने की संभावना है। उदाहरण के लिए, आधिकारिक आंकड़ों ने दूध जैसी जल्दी खराब होने वाली वस्तुओं में उच्च वृद्धि दिखाई है, यहां तक कि कोविड अवधि के दौरान भी, जबकि इन वस्तुओं के उत्पादक गंभीर संकट का सामना कर रहे थे।
एमएसपी की गारंटी से उन अधिकांश किसानों को लाभ नहीं होगा, जिनके पास छोटी जोत है, जो अक्सर खेत मजदूर और गैर-कृषि श्रमिक के रूप में काम करते हैं।
गारंटीशुदा एमएसपी सभी समस्याओं का समाधान नहीं है। लेकिन अधिक लाभकारी मूल्य ऐसी स्थितियाँ पैदा करता है, जहाँ किसान खेत मजदूरों को बेहतर मजदूरी दे सकते हैं। लाभकारी कृषि खेत मजदूरों सहित ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण है। यह तर्क कि यह केवल बड़े किसानों के लिए फायदेमंद है, गलत है। दूसरी ओर, किसानों के बीच संकट मजदूरी पर दबाव डालता है, ग्रामीण मांग को कम करता है और आर्थिक विकास को धीमा कर देता है।
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और अखिल भारतीय किसान सभा के केंद्रीय परिषद के सदस्य हैं। अनुवादक छत्तीसगढ़ किसान सभा के संयोजक हैं।)