शायरी को शमशीर बनाके चला गया “राहत”
तौसीफ कुरैशी
1 जनवरी 1950 को इंदौर में जन्मे राहत क़ुरैशी इंदौरी ने लगभग 16 वर्षों से अधिक उर्दू साहित्य को इंदौर विश्वविद्यालय में पढ़ाया।उनके 6 से अधिक ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुए। 50 से अधिक फिल्मी गीत लिखे , म्यूज़िक एल्बम आयीं और फिल्मों में अभिनय भी किया।
“तुझे क्या दर्द की लज़्ज़त बताएं
मसीहा, आ कभी बीमार हो जा”
राहत क़ुरैशी इन्दौरवी ने 70 के दशक में तरन्नुम में पढ़ना शुरू किया।मगर वो कामयाबी नही मिली।फिर उन्होंने तहत में पढ़ा अपना एक अलग अंदाज बनाया। जैसे कोई इंकलाबी शायर हो।
ज़ुबाँ तो खोल नज़र तो मिला जवाब तो दे
मैं कितनी बार लुटा हूँ हिसाब तो दे
अगर ख़िलाफ़ हैं होने दो जान थोड़ी है
ये सब धुआँ है कोई आसमान थोड़ी है
लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में
यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है
मैं जानता हूँ के दुश्मन भी कम नहीं लेकिन
हमारी तरहा हथेली पे जान थोड़ी है
हमारे मुँह से जो निकले वही सदाक़त है
हमारे मुँह में तुम्हारी ज़ुबान थोड़ी है
जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे
किराएदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है
सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है
शायर हमेशा से दो तरह के होते हैं।एक वो जिनका कलाम उम्दा है, मगर स्टेज नसीब नही होता। दूसरे वो जिनका कलाम माँगे का उजाला होता है मगर उन्हें स्टेज नसीब होता है।मगर राहत क़ुरैशी साहब क्लास और मास दोनों तबक़ों में यकसां मक़बूल रहे। वो जिसको उर्दू अदब से बराये नाम भी मोहब्बत है।वो भी राहत क़ुरैशी साहब का दीवाना नज़र आता है। कलाम सुनाते वक़्त उनके मख़सूस जुमले , तंज़ , हाज़िर जवाबी उन्हें दूसरों से अलग करती थी।
“सबब वो पूछ रहे हैं उदास होने का
मेरा मिज़ाज नही बे-लिबास होने का”।
राहत क़ुरैशी साहब ने पूरे हिंदुस्तान के आल इंडिया मुशायरों के अलावा अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड , मारिशियस , पाकिस्तान , यू.ए.ई. ,बांग्लादेश और नेपाल में उर्दू अदब का परचम लहराया। 50 साल का लंबा अदबी सफर, असंख्य पुरस्कार ,सम्मान , प्रशस्ति पत्र उनके हिस्से में आए। कल ह्रदय गति रुक जाने के कारण वो इस फानी दुनिया से हमेशा के लिए रुख़सत हो गए।
“मेरे अपने मुझे मिट्टी में मिलाने आए
अब कहीं जाके मिरे होश ठिकाने आए”।
राहत क़ुरैशी के हवाले से मुनव्वर राना ने एक जगह लिखा है के”राहत क़ुरैशी ने ग़ज़ल की मिट्टी में अपने तजरबात और मसाइल को गूँधा है।यह उनका कमाल भी और उनका हुनर भी है।इंदौर की पथरीली मिट्टी से उठी हुई ख़ाक ने हज़ारों दिलों में शायरी के खूबसूरत फूलों का गुलशन आबाद कर दिया”।
“मैं इसी मिट्टी से उठा था बगूले की तरह—और फिर एक दिन इसी मिट्टी में मिट्टी मिल गई”।
ज़िन्दगी के हर शोबे में हर शख्स अपनी अहमियत रखता है।हज़ारों के मजमे सजाकर, हज़ारों अशआर कहकर , किस्से-कहानियां बयां करके ,राहत क़ुरैशी साहब भी रुख़सत हो गए—यही अल्लाह की तरतीब है, यही अल्लाह का हुक्म।
“जनाज़े पर मेरे लिख देना यारों
मोहब्बत करने वाला जा रहा है”।
राहत क़ुरैशी इंदौरी याद रखे जाएँगे। सरकारों के सामने दहाड़ने वाले शायर थे। मिमियाने वाले नहीं। दाद के तलबगार नहीं थे। दावा करने वाले शायर थे। इसलिए उनकी शायरी में वतन से मोहब्बत और उसकी मिट्टी पर हक़ की दावेदारी ठाठ से कर गए। नागरिकता क़ानून के विरोध के दौर में उनके शेर सड़कों पर दहाड़ रहे थे। जिन्होंने उन्हें देखा तक नहीं, सुना तक नहीं वो उनके शेर पोस्टर बैनर पर लिख आवाज़ बुलंद कर रहे थे। राहत क़ुरैशी इंदौरी साहब आपका बहुत शुक्रिया। आप हमेशा याद आएँगे। आपकी शायरी शमशीर बनकर चमक रही है। आपकी शायरी का प्यारा हिन्दुस्तान परचम बन लहराता रहेगा।
सुख़नवरों ने ख़ुद बना दिया सुख़न को मज़ाक
ज़रा-सी दाद क्या मिली ख़िताब माँगने लगे।
(सीना ठोंक कर हिसाब माँगने वाले राहत साहब हम से जुदा हो गए)