कुर्बानीः सुन्नते इब्राहीमी की अजीम यादगार
मोहम्मद आरिफ नगरामी
हजरत इब्राहीम खलीलुल्लाह और उनके वफा शेआर फरजन्द, तस्लीम व रजा और सब्र व इस्तेकामत के पैकर हजरत इस्माईल अलै0 की जिन्दिगी इन्सानी तारीख में मुनफ़रिद और मुमताज मकाम की हामिल है। इस्लाम में फलसफये कुर्बानी इन्हीं दोनों अजीम हस्तियों की वह लाजवाल दास्तान है जिसे रहती दुनिया तक फरामोश नहीं किया जा सकता। र्कुआने पाक में एक मौका पर फरमाया गया ‘‘और जब इब्राहीम अलै0 के परवरदिगार ने चन्द बातों मेें उनकी आजमाईश की, फिर उन्होंने उसे पूरा किया तो खुदा ने उनसे कहा कि मैं तुम्हें लोगों के लिये पेशवा बनाने वाला हूँ ।‘‘
कुर्बानी का तारीखी पसेमन्जर कुछ यूँ है कि हजरत इब्राहीम अलै0 मुसलसल तीन रात यही ख्वाब देखते रहे कि अल्लाह फरमाता है ‘‘ ऐ इब्राहीम अलै0 तू हमारी राह में अपने अकलौते बेटे को कुर्बान करदे। ‘‘ र्कुआन करीम में इस वाकये का जिक्र इस तरह आया हैः‘‘जब वह उनके साथ दौड़ने को पहुंचे तो इब्राहीम अलै0 ने कहा कि बेटा, मैं ख्वाब में देखता हॅू कि तुम्हें ज़िबा कर रहा हॅू, तुम बताओ कि तुम्हारा क्या ख्याल है? उन्होंने कहा कि अब्बा जान आपको जो हुक्म हुआ है वही कीजिये। अल्लाह ने चाहा तो आप मुझे साबिरों में पायेंगेें‘‘ जब दोनों ने हुक्म मान लिया और बाप ने बेटे को पेशानी के बल लिटा दिया तो हम ने उन्हें पुकारा कि ऐ इब्राहीम अलै0 तुम ने अपने ख्वाब को सच्चा कर दिखाया, हम नेकोकारों को ऐसा ही बदला दिया करते है।। बिला शुब्हा यह सरीह आजमाईश थी और हम ने एक बडी कुर्बानी को उनका फिदया बना दिया और बाद में आने वालों में इब्राहीम अलै0 का जिक्रे खैर छोड दिया कि इब्राहीम अलै0 पर सलाम हो, हम नेकोकारों का ऐसा बदला दिया करते है।‘‘
र्कुआने करीम में है ‘‘हम ने इस्माईल अलै0 का फिदया एक अजीम कुर्बानी बना दिया। यह इरशाद फरमा कर इस कुर्बानी की अजमत और कुबूलियत का एलान किया। इसे ,इबादते इलाही का जरिया करार दिया। सहाबीए रसूल हज़रत जैद बिन अरकम से रवायत है कि रसूल सल0 से बाज सहाबाकेराम ने अर्ज किया या रसूलुल्लाह सल0 इन कुर्बानियों की हकीकत और तारीख क्या है? आप सल0 ने फरमाया कि तुम मौरिसे आला हजरत इब्राही अलै0 की सुन्नत है। सहाबा ने अर्ज किया या रसूलुल्लाह इन कुर्बानियों में हमारे लिये क्या अज्र है। रसूले अकरम सल0 ने फरमाया कि कुर्बानी के हर जानवर के बाल के एवज़ एक नेकी है।
तारीखे आलम के औराक़ इस अजीम कुर्बानी की मिसाल पेश करने से कासिर हैं। शरीअते मोहम्मदी सल0 में ‘‘कुर्बानी‘‘ को एक दीनी व मिल्ली शेआर, अल्लाह की इबादत का वसीला और उसकी बारगाह में महबूबियत और कुर्ब का मिसाली ज़रिया करार दिया गया है। र्कुआन व सुन्नत में इस की अज़मत और फ़ज़ीलत को बयान किया गया है।
इरशादे रब्बानी है,‘‘कुर्बानी के ऊंटों को भी हम ने तुम्हारे लिये शेआइरूल्लाह मुकर्रर किया है। इनमें तुम्हारे लिये फ़ायदे हैं तो कतार बांध कर उन पर अल्लाह का नाम लो जब वह पहलू के बल गिर पडें तो उनमें से खाओ और केनाअत से बैठ रहने वालों और सवाल करने वालों को भी खिलाओ। इस तरह हमने उन्हें तुम्हारे जेरे फरमान कर दिया है ताकि तुम शुक्र करो । अल्लाह तक न उनका गोश्त पहुँचता है और न खून बल्कि उस तक तुम्हारी परहेजगारी पहुंचती है।
हजरत आयेशा रजि0 से रवायत है कि रसूल अकरम सल0 ने इरशाद फरमाया, जिल्हिज्जा की दसवी तारीख को फरजन्दे आदम का कोई अमल अल्लाह को कुर्बानी से ज्यादा महबूब नहीं और कुर्बानी का जानवर केयामत के दिन अपने सींगों, बालों और खुरों के साथ जिन्दा हो कर आयेगा और कुर्बानी का खून जमीन पर गिरने से पहले ही अल्लाह की रजा और मकबूलियत के मकाम पर पहुंच जाता है। पस ऐ अल्लाह के बन्दों दिल की पूरी रजा और खुशी से कुर्बानी किया करे।
सैयदना हजरत हसन बिन अली रजि0 से रवायत है कि हुजूरे अकरम सल0 से फरमाया जिसने खुश दिली और सवाब की नियत से कुर्बानी की वह इसके लिये आतिशे जहन्नम से हेजाब हो जायेगी।
हजरत इब्ने अब्बास रजि0 से रवायत है कि हुजूर सल0 ने इरशाद फरमाया जो माल ईद के दिन कुर्बानी में खर्च किया गया उससेे ज्यादा कोई माल अल्लाह के जनदीक महबूब नहीं ।
कुर्बानी का अमल नेहायत ही नेक नियती, एखलास और सिर्फ अल्लाह की रजा के लिये किया जाये उस में दिखावा और गोश्त खाना मकसूद न हो क्योंकि अल्लाह के नजदीक अजर व स्वाब हमारी नेक नियती व एखलास ही की बिना परी मिलता है। इरशादे बारी है अल्लाह के पास न उनका गोश्त पहुंचता है और न उनका खून, लेकिन उसके पास तुम्हारा तकवा पहुंचता है इस तरह उन जानवरों को तुम्हारे जेरे हुक्म कर दिया जाता है। तुम इस बात पर अल्लाह की बड़ाई बयान किया करो कि उसने तुम्हें तौफीक दी और ऐ मोहम्मद सल0 अखलास वालों को खुशखबरी सुना दीजिये। ।
कुर्बानी शेआरे इस्लाम मेें से है इरशादे बारी तआला है. क़ुरबानी के जानवरों को हमने अल्लाह की यादगार बनाया है। अल्लाह की यादगार से मुराद अल्लाह के दीन की यादगार है। कुर्बानी का आगाज मिना से हुआ। इसलिये वहां जो कुर्बानी की जाये वह सब से अफजल है ओर मुवज्जिब स्वाब व बरकात है। इसलिये आप सल0 ने आखिरी हज में सौ ऊंटो की कुर्बानी फरमायी। जिनमें से 63 ऊंटों की कुर्बानी खुद फरमाई। और बाकी सैयदना हजरत अली के सुपुर्द फरमाये। यह इतनी बड़ी तादाद किसी फजीलत की वजह से की गयी। वरना आप सल0 की मदीना में आम आदत जो जानवरों के ज़िबह फ़रमाने की थी। हजरत अब्दुल्लाह बिन उमर फरमाते हैं कि रसूलुल्लाह सल0 ने मदीने में दस साल क़याम फरमाया और हर साल आप सल0 कुर्बानी फरमाते थे।
हजरत उम्मे सलमा रजि0 से रवायत है कि रसूले करीम सल0 ने फरमाया जब जिल्हिज्जा का पहला अशरा शुरू हो जाये और तुममें से किसी का इरादा कुर्बानी करने का हो तो उसे चाहिये कि अब कुर्बानी करने तक अपने बाल या नाखुन बिल्कुल न तराशे।
चूँकि अशरा हज का है और उन अय्याम का खास अमल हज है लेकिन हज मक्का में जा कर ही हो सकता है। इसलिये वह अम्र में सिर्फ एक मरतबा और वह भी अहलेइस्तेताअत पर फर्ज किया गया। इसकी खास बरकत वही हासिल कर सकते हैं जो वहां हाजिर होकर हज करें। लेकिन अल्लाह ने अपनी रहमत से सारे अहले ईमान को इसका मौका दिया है कि जब हज के यह दिन आये तो वह अपनी जगह रहते हुये भी हज और हाजियों से एक निस्बत पैदा कर लें और उनके आमाल में शरीक हो जायें। ईदुलअजहा की कुर्बानी का खास राज यही है।