जनसेवा और सत्ता
एन. सिंह सेंगर
धन-वैभव का लाभ छोडकर जन-कल्याण के लिए सर्वस्व त्यागना भारतीय संस्कृति का मूल आधार है। बर्बर के पंजे या भंवर-दलदल या दरिद्रता कुचक्र में फंसे और जीवन की मूलभूत वस्तुओं के उपभोग से वंचित असहाय-अक्षमों को सहायता करना ‘मानवधर्म’ है। हृदय में परहित का भाव रखकर किए गए कार्य सच्ची जनसेवा हैं। सच्चा जनसेवक जातिवाद, छुआछूत, नशाखोरी व सांप्रदायिक भेदभाव जैसी बुराइयों को मिटाने में निरन्तर संघर्ष करता है। उनमें असुरी शक्ति, तानाशाही, हिंसा और स्वार्थपरिता का कोई स्थान नहीं होता है। उनकी भावनाएँ परोपकार से प्रेरित रहती हैं। उनकी सोच से ईश्वर द्वारा बनाए गए समस्त मानव समान हैं, अतः मानव में परस्पर प्रेम-भाव होना चाहिए। एक व्यक्ति पर संकट आने पर दूसरों को उसकी सहायता अवश्य करनी चाहिए। दूसरों को कष्ट से कराहते देखकर भी भोग-विलास में लिप्त रहना उचित नहीं। अकेले भाँति-भाँति के भोजन करना और आनन्दमग्न रहना तो पशु की प्रवृत्ति है। मनुष्य तो वही है, जो मानव मात्र के लिए सब कुछ न्यौछावर करने हेतु सदैव तत्पर रहे। देश और समाज के संगठनों के पदासीन अध्यक्ष शपथ ग्रहण करते हुए कहते हैं कि, ‘वह जनता की सेवा एवं कल्याण में निरत रहेगा’
स्वतंत्रोत्तर भारत में अपनी सरकार और संविधान बना। कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका समूह को सरकार और उसके अध्यक्ष को राष्ट्रपति (सम्राट) तथा राष्ट्रपति के सलाहकार को मंत्री व मंत्रियों के समूह को मंत्रिमंडल तथा मंत्री और राज्यपाल की पदासीनता को राष्ट्रपति का प्रसाद कहा गया। मंत्रिमंडल द्वारा पारित प्रत्येक प्रस्ताव-सुझाव पर राष्ट्रपति के विचारोपरान्त कानून बनाकर क्रियान्वयन हेतु कार्यपालिका को सौंपे जाने को कहा गया। कार्यपालिका के समस्त कार्य राष्ट्रपति के कार्य कहे गए। राज्यों के राजा राज्यपाल एवं उसके सलाहकारों को मंत्री तथा जिलों-नगरों-ग्रामों के राजा को सरपंच व उसके सलाहकारों को पार्षद कहा गया। इन समस्त पदांें पर गरीब-कृषक-श्रमिक जनता की पदासीनता को भागीदारी दी गई। केंद्र-ग्राम की सदन-पदासीनताओं मंे भागीदारी एवं कल्याणकारी योजनाओं का लाभ निर्धनों, कृषकों, श्रमिकों, अक्षमों हेतु है अर्थात् जनता की सरकार, जनता के द्वारा जनता के लिए है, न कि रहीस-वी.आई.पी. हेतु।
भारतीय संस्कृति बलिदान और त्याग से परिपूर्ण है, परन्तु राजनीति का प्रभाव समाज पर पड़ना स्वभाविक ही है। अब राज-सिहासनों पर रहीस आजीवन पदासीन हो रहे हैं। अमीर तिजोरियाँ भर रहे हैं एवं गरीब रोटी के लिए तरस रहे हैं। अतऐव आज समाज की स्थिति भी अत्यंत दयनीय हो गई है। समाज 2 भागों में बंटा है-एक धनीवर्ग, जो गरीबों की रोजी-रोटी-भूमि छीनकर विलासी जीवन व्यतीत कर रहा है तथा दूसरा निर्धनवर्ग, जो कठोर श्रम करने के बाद भी भूखा सोने को मजबूर होकर रोटी की चिंता में भटक रहा है। गरीब प्रत्येक स्तर पर पर सताया जाता है। उनसे भेद-भाव किया जाता है। वह शक्तिशाली लोगों के आक्रमण व विद्वेष के शिकार हो रहे हैं। पुलिस तो सर्वप्रथम उन क्षेत्रों में ही जाती है जहाँ दरिद्र रहते हैं जैसे कि केवल दरिद्र ही अपराध करते हैं। गरीबों के लिए यह भू-लोक ही नरक बन गया है।
गरीब-जनता कंगाली में जीवन यापन करने और भूंखे पेट सोने को मजबूर है। जिसका लाभ उठा कर रहीस-नेता जनसेवा का ढोंग कर संवैधानिक पदों पर आसीन होकर जन-कल्याणकारी योजनाओं का लाभ हड़प कर जनता को भेंड़ों की तरह हाँक रहे हैं। जनता का बड़ा भाग भोजन-पानी के लिए गुहार लगा रहा है। भिखारियों के भूखे बच्चे बूँद-बूँद दूध के लिए तरस रहे हैं। जबकि पदासीन-जनसेवक देश के धन-सम्पत्ति पर कब्जा जमा कर अपना निजी लाभ कमाने मे लगे दिखते हैं। इनके द्वारा आयोजित समारोहों में सरकारी धन-सम्पत्ति पानी की तरह बहा कर रहीस-लुटेरों को महिमा मंडित किया जाता है। यह लोग धनी-सौदागरों-माफियाओं के साथ मंचों पर जाकर एक-दूसरे के प्रति इसलिए प्रेम-लगाव प्रदर्शित कर रहे हैं, ताकि जिम्मेदार विभाग और अधिकारी इनके अपराधों के विरुद्ध हाथ डालने की हिम्मत न जुटा सकें।
सार्वजनिक विकास योजनाओं का लाभ वास्तविक गरीबों को नहीं मिल पा रहा है। वास्तविक गरीबों के पास खाने के लिए पर्याप्त भोजन नहीं है, रहने के लिए उपयुक्त आवास नहीं है, पहनने के लिए वस्त्र नहीं हैं, बीमार होने पर पर्याप्त चिकित्सा नहीं मिलती है, आजीविका के पर्याप्त साधन नहीं हैं, मजदूरी मिलती नहीं है, पैतिृक पट्टे-आवास भूमि दबंग-रहीसों ने हड़़प लिए हैं, सरकारी राशन कोटेदार हड़प रहे हैं, पंजीरी भैंसें खा रहीं हैं, शौचालय-आवास के नाम पर मिली सुविधाएँ प्रधान-सचिव-दलाल हड़प रहे हैं, सरकारी निर्माण कार्यों में घटिया सोइम-ईंट लग रही है, नगर निवासी ग्राम प्रधान एवं कोटेदार बने हैं, महिला प्रतिनिधियों के पद दुरुयोग हो रहे हैं। यूरिया, डिटर्जेंट, पेंट से निर्मित दूध-पनीर व विषाक्त मिलावटी खाद्य पदार्थों बिक रहे हैं। एन.जी.ओ. सरकारी-सार्वजनिक जनकल्याकारी योजनाओं का धन सम्पत्ति हड़प रहे हैं।
दीन-हीन कंगालों, असहायों और दरिद्रों के लिए बनी राष्ट्रीय एव राजकीय विकास की योजनाओं का लाभ एवं साधन स्वार्थी, विध्वंशक, नाशक, धनी, ठगों, चापलूसों, दलालों एवं संगठित अपराधियों की सुख-सुविधाओं औंर आय के साधन बने हुए हैं। इस सम्बन्ध में निरीक्षण तथ्य बताते हैं कि दरिद्र, असहाय, निरीह, पीड़ित, वृद्ध, बीमार की पुकार सुनने वाला कोई नहीं है और यदि कोई ऐसे लागों की सहायता करने की चेष्टा भी करता है तो संगठित अपराधियों सहित अनेक अधिकारी, कर्मचारी, नेता आदि उसे बुरी तरह अपमानित और प्रताड़ित कर समूल नष्ट करने में काई कसर बाँकी नहीं रखते हैं।
जनसेवकों की गतिविधियों पर विचारोपरांत हम कह सकते है कि, अधिकतर पदासीनों की जनसेवाएँ असत्य, भ्रामक, दिखावा, फर्जी और वास्तविकता से परे हैं। अधिकतर नेता-उद्योगपति-अधिकारी-माफिया अपने निजी प्रतिष्ठानों के कर्मियों व किराए की भीड़ प्रदर्शन कर परिजनों सहित सदन-सरकार में पदासीनता विरासत के रूप में निरन्तर पा रहे हैं। इनकी पदासीनता वाले जनसम्पर्क-जनसेवा कार्य फर्जी एवं स्वःलाभ तक सीमिति हो रहे हैं। इनकी सदन उपस्थिति स्व वेतन, भत्तों, पेंशन, सुख-सुविधा में वृद्धि व उपद्रव करने तक सीमित हो रही हैं। अधिकतर पदासीनों के परिजन-सम्बन्धी व गुर्गे-दलाल स्वयं-भू मंत्री-सांसद-विधायक-सरपंच अथवा उसके प्रतिनिधि बनकर शिफारिश-ट्रांसफर-पोस्टिंग का धंधा चलाकर कमाई में जुटे हैं तथा उपद्रव कर भय व दहशत उत्पन्न् कर गरीबों की सम्पत्ति, भूमि-भवनों, मरघट, चरागाहों, तालाबों, हाटों पर कब्जा करके अवैध लाभ कमा रहे है।
आज देश-समाज के संवैधानिक पदों पर अधिकतर ऐसे लोग पदासीन हैं जो जन-संपर्क करने में अक्षम व अति वृद्ध-जर्जर रहीस तथा गरीब जनों के हितों की जबरदस्त उपेक्षा करने वाले व्यक्ति हैं। अनेक धनाड्य, नेता, अधिकारी, व्यापारी गैरसरकारी संगठनों-एन.जी.ओ. को संचालित कर सरकारी योजनाओं का धन हड़प रहे हैं। इन एन.जी.ओ. में अधिकतर पदासीन व्यक्ति विशेष और उसके परिजन-सम्बन्धी-नौकर आपसी हितबद्ध हैं। इनकी फर्जी बैठकों-प्रस्तावों-हस्ताक्षरों से बडे़-बड़े घोटालों को अंजाम दिया जाता है।
(एन. सिंह सेंगर) , समाजसेवी, निवासः ताजपुर-बिधूना, जनपद औरैया, उ.प्र.