इमाम हुसैन ने अपने ख़ून से जो लकीर खींची उसे आज तक कोई न मिटा सका
जहां चुनी गई फिर से हरम की बुनियादें,
फ़क़त वो करबोबला की ज़मीन दिखती है।
आज मुहर्रम की पांचवीं तारीख़ है, इमाम हुसैन अलैहिस्लाम को कर्बला आये तीन दिन गुज़र चुके हैं। इमाम के दोस्त हबीब इब्ने मज़ाहिर भी इमाम की ख़िदमत में पहुँच चुके हैं। हबीब इब्ने मज़ाहिर कूफ़ा की मुमताज़ शख़्सियत के साथ ही इस्लामी तालीमात के बड़े आलिमों में से थे, उनके घर पर भी यज़ीदी हुकूमत का पहरा था, इमाम हुसैन ने उन्हें ख़त लिख कर बुलाया था, यह ख़त उन्हें बाज़ार में मिला और वह पहरा तोड़ कर करबला आये। यज़ीद बिन मुआविया ने पूरी मुमलकत पर सख़्त पहरा बैठा रखा था, उसका हुक्म था, या तो हुसैन से लड़ो या घरों में बैठ जाओ, जो शम्मये रिसालत के परवाने थे उन्हें क़ैद कर जेलों में डाल दिया गया, मगर वह बहुत कम थे, मुसलमानों की अक्सरियत यज़ीद जैसे बदकार को रसूल अल्लाह का जानशीन मान बैठी थी, गोया उस वक़्त का आम मुसलमान इस्लाम और रसूल की रिसालत को छोड़ कर दहशतगर्दी को इस्लाम समझ बैठा था। और यह तस्वीर आज भी कहीं न कहीं किसी न किसी तौर पर दिख रही है। दुनियां में मुसलमान ही मुसलमान को मार रहा है और यह सब इसलाम का नाम ले कर हो रहा है। करबला से दो गिरोह सामने आये जो आज भी दिखाई देते हैं। एक वह जो इस्लाम का नाम ले कर दहशतगर्दी फैला कर इस्लाम को बदनाम कर रहा हैं और एक वह जो हुसैनी हो कर ज़ुल्म का शिकार हो रहे हैं। बेशक ज़माना बदला है मगर सूरते हाल नहीं बदली हैं। कल भी यज़ीदी थे और आज भी। यज़ीद और उसके ख़ानदान को रोम से मदद मिलती थी और आज अमेरिका और इज़राईल या उनके पिट्ठो मुस्लिम देशों के नाम निहाद मुसलमानों से मदद मिलती है। कल यज़ीद ने इस्लाम को मिटाने के लिए अपने ख़ज़ाने का मुंह खोला था तो आज सऊदी हुकूमत रसूल और रिसालत को मिटाने के लिए आगे आगे है। मगर कल इमाम हुसैन ने अपने ख़ून से एक ऐसी लकीर खींच दी थी जो आज तक कोई न मिटा सका। इस्लाम और है मुसलमान और हैं। इस्लाम अपने उसूलों से सर बुलंद है और मुसलमान अपने अमल से पहचाने जाते हैं। यह सिलसिला कल भी था और ता क़यामत बाक़ी रहने वाला है। मुसलमान पैदा हो हो कर मर जाएँ गे मगर इस्लाम और इस्लाम पर जान निसार करने वाले हमेशा ज़िंदा रहें गे।
आदम की औलादों में शुरू से ही दो तरह की आदत दिखाई पड़ती है। जो वक़्त के नबी की पैरवी करता है वह इंसानियत को अपना कर मुसीबतों पर सब्र और न्यमतों पर शुक्र अदा करता करता है और जो अपनी ख़ुदसरी में जीता है वह ज़ालिम होता है। जनाबे आदम की पहली दो औलाद का नाम हाबील और क़ाबील था, हाबील इंसान था, उसने वक़्त के नबी जनाबे आदम की पैरवी की तो तो क़ाबील ने ख़ुदसरी की और हाबील को क़त्ल कर दिया, दुनियां में यह पहला इंसानी क़त्ल था। मेरा इस पर पूरा यक़ीन है कि ज़मीन के हर ख़ित्ते पर और हर क़ौम में नबी आये, यह और बात है की कुछ ने उन्हें पहचाना नहीं, तो कुछ ने पहचान कर भुला दिया और बेरवा रवी के शिकार हो गए, एक और बात जो दुनियां में आम रही वह यह की ख़ुदसर आदमी अपने को ख़ुदा समझ बैठता है और अल्लाह के मुक़ाबिल आ जाता है, अल्लाह को तो वह पा नहीं सकता तो जो अल्लाह के प्यारे बन्दे होते हैं उन्हें वह क़त्ल कर के अपने को फ़ातेह समझ लेता है जबकि एक दिन वह भी इस दुनियां से ख़ाली हाथ चला जाता है जैसे की पहले वाले गुज़र गये हैं।
इस्लाम ने मौत और हयात के उस फ़लसफ़े को बदल दिया जो दुनियां आज तक समझती है। यानी साँसें रुक गईं, दिल की हरकत बंद हो गईं तो आदमी को मुर्दा समझ लिया जाता है। मगर इस्लाम ने इसे रद्द कर दिया। जंगे ओहद में मौत की ख़ौफ़ से मुसलमान अपने ज़ख़्मी रसूल को छोड़ कर मैदान से भागे, रसूल ने उन्हें आवाज़ दी तो अल्लाह ने फ़रमाया , किसे आवाज़ दे रहे हो कहीं मुर्दे भी सुनते हैं, जबकि वह रूह और जिस्म के मुरक्कब थे अपने पैरों से भाग रहे थे , मगर रसूल से दूरी अख़्तियार की तो अल्लाह ने उन्हें मुर्दा कहा, साथ ही मुसलमानों को यह भी हुक्म दिया कि जो अल्लाह की राह में क़त्ल हो गए उन्हें मुर्दा न समझना वह ज़िंदां है, और अपने रब की तरफ़ जीने की सारी चीज़ें पाते हैं, जिसका तुन्हें इल्म नहीं। जब कि दुनियां ने देखा वह मर गए हैं और उन्हें दफ़्न भी कर दिया गया।
दरअसल सारी लड़ाई सच और झूठ की होती है, हक़ और बातिल की होती है, झूठ हमेशा हारता है और सच हमेशा जीतता है, जीत और हार मक़सद की होती है न कि जिस्मों की, जो मक़सद ज़माने की हदों को तोड़ दे और अपनी सच्चाई का कलमा पढ़वाता रहे वही फ़तेह होता है। सच्चों का एहतराम वक़्त की क़ैद से आज़ाद होता है और झूठा हमेशा नफ़रत के लायक़ होता है। रोज़े अव्वल से यही दो तबके दुनियां में हैं, एक सच के साथ होता है एक झूठ के साथ, सच्चे कम होकर भी बाइज़्ज़त होते हैं और झूठे ज़्यादा होकर भी फ़ना हो जाते हैं।
करबला में भी यही दो फ़िरके इकठ्ठा थे, एक झूठ को बचाने के लिए लाखों का लश्कर के साथ था और दूसरा बहत्तर लोगों के साथ सच के साथ खड़ा था। इमाम हुसैन ने ऐसे लोगों को चुना था जो हंसते हुए सच , इसलाम और इंसानियत पर जान क़ुर्बान कर दें। बेशक इमाम हुसैन के असहाब जैसे कोई नहीं थे, सभी किरदार की बुलंदी के असलहे सजाए मैदाने कर्बला में आये और हर मुसीबत में इमाम हुसैन और उनके ख़ानवादे के साथ डट कर खड़े रहे यहां तक कि दीने खुदा और शरीयते मोहम्मदी पर अपनी जानें निसार कर के हमेशा के लिए ज़िंदां हो गए।
मेहदी अब्बास रिज़वी