नदवतुल उलमा का कयाम और उसका पसे मन्जर
मोहम्मद आरिफ नगरामी
तहरीके नदवतुल उलमा नेहायत पुरफितन माहौल और पुरआशोब दौर में वजूद में आयी वह उन्नीसवीं सदी का वह तारीक तरीन दौर था जब पूरी दुनिया के एक बडे खित्ते पर साम्राजियत का बोल बाला था खासकर हिन्दुस्तान की सूरते हाल नेहायत नागुफताबिह थी। मुसलमान दो धडों में तकसीफ हो चुके थे, एक तब्का असरी तालीमयाफता था जो मगरिब की हर चीज को तकलीद व तहसीन की निगाह से देखता था और उसको अपनी जिन्दिगी मेें दाखिल करने को ही अपनी फलाह व कामरानी का जामिन समझता था जब कि दूसरा तब्का उलमाये दीन का था जो इन हालात के पेशे नजर खानकाहोें व दीनी मराकिज मेें महसूर हो गया था। यह तब्का मगरिब से आने वाली हर चीज से बेजार था, यहां तक कि उसे हराम करार देता था। हिन्दुस्तान में मुसलमानों की तारीख बडी रोशन व ताबनाक रही है। यहां ऐसे असहाबे बसीरत उलमा की जमाअत हर दौर मे ंनजर आती है जिन्होंने मिल्लीत की रहनुमाई की उनमें मुतअद्दिद ऐसे उलमा व मशाएख हैं कि अरम व अजम उनकी नजीर पेश करने से कासिर हैं। बर्तान्वी साम्राज के खिलाफ यहां के उलमा ही ने सबसे पहले अलमे हुर्रियत बलंद किया और आजादी का नारा दिया फिर उनके साथ हिन्दू कायदीन भी शामिल हुये। इब्तेदा में सारी कुर्बानियां मुसलमानों ने ही दीं, बर्तान्वी हुकूमत के खिलाफ तहरीक चलायी गयी पूरी तरह उसका बायकाट किया गया। विदेशी सामान जलाया गया, इस नेजाम के तहेत चलने वाले स्कूलों से मुसलमानों और हिन्दुओं ने अपने बच्चों को निकाल लिया। एक तवील जद्दोजेहद के बाद मुल्क आजाद हुआ। गुलामी की इस दौर में उलमा ने महसूस किया था कि अगर दीन का तहफफुज न किया गया तो एक अरसे के बाद इस मुल्क में दीन का नाम लेने वाले मिट जायेंगेें। उन्होंने इसके लिये एक तदबीर की और ऐसे आजाद दीनी मदारिस कायम किये जहां खालिस दीनी तालीम दी जाने लगी ओर उलमा की जमाअत तैयार होने लगी। इस तरह वह खतरा दूर हो गया जो बिल्कुल सरों पर मण्डला रहा था। दूसरी तरफ बाज मुस्लिम दानिशवरों ने जरूरत महसूस की कि मुसलमानों को असरी तालीम में आगे बढने की जरूरत है ताकि वह जमाने के साथ चल सकें। इसलिये उन्होंने दानिशगाहें कायम कीं जिनमें सरे फिहरिस्त अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी है। वह जमाना अंग्रेजो ंसे मरऊबियत का था इसी लिये वह कल्चर हावी था जो उसको न अख्तियार करें उसको दकियानूसी माना जाता था। इस नेजामें तालीम मेें रह कर जो नस्ल परवान चढी थी, वह उलमा से बहुत दूर थी और यह चैंलेंज बराबर बढती जा रही थी, इसकी बुनियादी वजह यह थी कि इस तब्के में जो गलतफहमी पैदा हो रही थी उसको कोई दूर करने वाला नहंी था। इस दौर में जो उलमा मदारिस से फारिग हो रहे थे उनमें दीन का जज्बा था। उलमा की दुनिया अलग थी और जदीद तालीमयाफता तब्का अपनी दुनिया में मगन था। साहबे बसीरत उलमा इसको महसूस कर रहे थे। जो नेजामें तालीम तैयार किया गया था वह अपने वक्त मेें जरूरी था। उस वक्त दीन को बाकी रहखने के लिए खालिस दीनी दर्सगाहें भी जरूरी थीं लेकिन अब ऐसे उलमा की शदीद जरूरत महसूस हो रही थी जो हर तब्के में दावत का काम मोवस्सिर तरीके पर कर सकेें। ऐसे उलमा को तैयार करने के लिये जरूरी था कि नेजाम व नेसाबे तालीम में तब्दीली लायी जाये और उलूमे दीनियात के साथ साथ जरूरी असरी तालीम भी शामिल की जाये ताकि इस नेजाम से फारिग होने वाले उलमा जदीद तालीमयाफता तब्के के लिये अजनबी न हों और वह उनकी जेहनी सतेह को सामने रखकर उनसे गुफतुगू कर सकते हैं और मुतमईन करने की सलाहियत रखते हैं, इस दावत के साथ 1310 हिजरी मुताबिक 1892 मेें तहरीक नदवतुल उलमा वजूद में आयी। इस तहरीके ने उस वक्त के तमाम मदारिस के लिए एक तजवीज पेश की िकवह अपने अपने नेसाबे तालीम का जायजा लें और मकासिद को सामने रखते हुये उसमें जरूरी तब्दीली की कोशिश करें। इस तहरीक ने बुनियादी तौर पर जिन चीजों की तरफ तवज्जोह की वह दर्जजैल हैंः
1- मकासिद वेसाएल की तन्कीह और उनमें फर्क ।
2- कदीम नेसाब में माकूलात की बेजा कसरत पर तन्कीद।
3- अरबियत मेें कमाल और उलूमे इस्लामिया में महारात पैदा करने पर जोर
4- जदीद मसाएल और जरूरत पर नये सिरे से गौर करने की जरूरत।
5- फितनये तकफीर मुनाजरा और मुजादला के माहौल में मसलके एतेदाल।
6- मुफीद उलूमे जदीदा की तहसील पर जोर।
ृइस तहरीक के वह बुनियादी मकासिद थे जो उलमा और दानिशवरों के सामने पेश किये गये। आम तौर पर इस तहरीक का इस्तकबाल हुआ, इसके सालाना जलसे हिन्दुस्तानके मुखतलिफ शहरों मंें बडे एहतेमाम के साथ किये गये। मुखतलिफ तब्कात के लोग इसमें शरीक हुये, उलमा और असरी तालीमयाफता तब्के ने जो खलीज थी वह बडी हद तक कम हुयी।
नेसाबे तालीम का मसला बडा अहेम था मदारिस में उस वक्त जो नेसाबे तालीम राएज था उसमें तब्दीली आसान न थी। उलमा असहाबे फिक्र ने उसूली तौर परी इस फिक्र से इत्तेफाक किया लेकिन अमली नमूना सामने न आने की बिना पर नया तजुुर्बा करने से उन कदीम मदारिस ने गुरेज किया। और भी बाज जराये ऐसे हायल हो गये जिसकी वजह से मसाएल को हल न किया जा सका। इन सबके पेशे नजर 14 अक्टूबर, 1898 मे दारूल उलूम नदवतुल उलमा का केयाम अमल मेें आया। दारूल उलूम ने शुरू से इसकी कोशिश की कि तहरीक नदवतुल उलमा के बुनियादी मकासिद को पूरा किया जाय। इनमें सबसे अहेम मसला नेसाबे तालीम का था। वह दौर ऐसे उलमा का मुन्तजिर था जो रसूख फिल इल्म के साथ मुखतलिफ तब्कात से गुफतुगू करने और उन को मुतमईन करने की सलाहियत रखते हैं। तकरीर व तहरीर का उनको ऐसा मलका हासिल हो कि जमाने के रूख को बदल सकते हैं। दारूल उलूम की फिजा में तलबा की एक बडी तादाद परवान चढने लगी और थोडे ही अरसे मेें ऐसे उलमा कीजमाअत तैयार हो गयी जो मुन्दरजा बाला सिफात की हाििमल द्यथी जिनमें सरे फिहरिस्त सैयदुत्ताईफा, अल्लाम सैयद सुलेमान नदवी थे।उन फोजला की तरीरों ने हिन्दुस्तानकीफिजा पर जबर्दस्त असर डाला। खास तौर पर जमीद तालीमयाफता तब्का इससे मुतअस्सिर हुआ और इस तरह उलमा का वेकार बलंद हुआ। शायरे मशकिक अल्लामा इकबाल ने सैयद सुलेमान नदवी को खिताब करके कहा था कि अल्लामा सैयद सुलेमान नदवी जैसे तरजुमाने इस्लाम और जामे उलूम और मौलाना अब्दुल बारी नदवी, फयलसूफ इस्लाम को मिल जाना मिल्लते इस्लामियां हिन्दिया के लिए बडी खुशकिस्मती की बात थी।
नदवे को निस्फ सदी से जायद अरसा गुजर गया और इस नेजाम से परउरदा खादिमे इस्लाम की फिहरिस्त मे जगह पाने लगे आहिस्ता आस्तिा इस फिक्र व तहरीक ने असर डालना शुरू किया उसका नुकतये उरूज वह था कि जब फखरे नदवा ही नहंी, फखरे मिल्ीते इस्लामिया हरतज मौलाना सैयद अबहसन अली नदवी ने दारूल उलूम नदवतुल उलमा के 85 साल मुकम्मल होने पर एक आलमी दीनी तालीम काफ्रेंस मुन्अकिद की। इसमें अरब व अजम के उलमा व कायदीन ने खुल कर नदवे की तहरीक, इसके नेजामे तालीम और उसके बेहतरीन नताएज का एतेराफ किया। जो मदारिस 50 फीसद से जाएद माकूलात की तालीम देते थे उनके यहां यह तनासुब सिर्फ दस-बीस फीसद रह गया जहां यह भी पढाना हराम समझा जाता था वहां अं्रग्रेजी न सिर्फ दाखिल हो गयी बल्कि उसके तखस्सुसात के शोबे काय किये गये और सिर्फ हिन्दुस्तान ही नहंी बल्कि पूरे आलमे इस्लाम में इसकी गॅॅूज सुनाई दी। किसी ने नदवे का न ाम लेकर यह सारी इस्तेलाहात और किसी ने नाम लिये बेगैर तब्दीलियां अख्तियार कीं। नदवा ने सबको एक नजर से देखा, उसके केयाम की बुनियाद यह थीं कि आपस की दूरियां कम हुंयी ंऔर बेजरूरत नकद व एहतेसार से गरेज किया गया। तहरीके नदवे का दर हकीकत यह मकसद कभी नहंी रहा कि हर जगह इसके नाम का झंडा लहराया जाये। उसके सामने एक खास फिक्र थी और अल्हमदु लिल्लाह वह फिक्र पूरे हिन्दुतान में बुनियादी तौर पर कुुबूल की गयी। इसमें कोई शुब्हा नहीं कि इस तहरीक और उसकी फिक्र को आम करने में हजरत मौलाना सैयद अबुल हसन मियां नदवी का सबसे अहेम किरदार रहा। मौलाना की आलमी शख्सियत ने इस फिक्र को भी आलमी बना दिया।