कांवड़िये : चारा भी, शिकार भी, हथियार में बदलते औजार भी
(आलेख : बादल सरोज)
दिल्ली की ओर जाती सड़कें हैरान हैं, दिल्ली से हरिद्वार के सभी राजमार्गों पर कोहराम है, रोज उनसे गुजरने वाले यात्री और उनके आसपास रहने वाले नागरिक परेशान हैं। कहीं उत्पात है, कहीं हुड़दंग है, पूरे रास्तों में दहशत है। कांवड़ यात्रा ने सब कुछ अस्तव्यस्त करके रखा हुआ है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक 13 मौतें हो चुकी हैं, चार जगहों पर आगजनी हो चुकी है। गाजियाबाद में एक कार तोड़ दी गयी, मुज़फ्फरनगर में उत्पात और हंगामे ने पूरे शहर में बवाल कर दिया, रुड़की में तोड़फोड़ हुयी, हरिद्वार में ट्रक को तोड़कर उसमे रखी कोल्ड ड्रिंक्स की बोतलों की लूटमार हो गयी, बरेली में पथराव और सुल्तानपुर में टकराव हो गया, दूर मध्यप्रदेश के खंडवा में भी पहले टकराव और फिर पथराव की घटनाएं घटीं।
हालात इतनी नाजुक है कि “यात्रा के मार्ग में बाधा और क़ानून व्यवस्था में ऊंच-नीच” न हो, इसके लिए समूचे पश्चिमी उत्तरप्रदेश में 26 जुलाई से 2 अगस्त तक स्कूलों को बंद रखने के आदेश जारी करने पड़े हैं ; स्कूल बसों को इसके पहले ही पुलिस और अर्धसैनिक बलों को ढोने के लिए जब्त किया जा चुका था। अराजकता इस कदर है कि इस सबको प्रोत्साहन और संरक्षण देने के लिए धरा पर अवतरित होने वालों में से एक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी, भले दिखावे के लिए ही सही, कांवड़ियों से शान्ति बनाए रखने की अपील करनी पड़ी है, उन्हें याद दिलाना पड़ा है कि “शिव भक्ति के साथ अनुशासन भी जरूरी है।“ यह बताना पड़ा है कि “कोई भी पूजा आत्मानुशासन के बिना संभव नहीं है।“ उनकी इस सात्विक और शाकाहारी अपील का कोई असर हो रहा है, ऐसा कम-से-कम अभी तक तो नजर नहीं आया, किन्तु इससे उन्होंने यह जरूर स्वीकार लिया है कि अशांति के असली जिम्मेदार कौन हैं।
कांवड़ लेकर यात्रा करने की परम्परा नई नहीं है – नया है वह उन्माद, जो जाहिर सी बात है कि अपने आप नहीं पनपा, रातोंरात नहीं बमका!! इस यात्रा का मिथिहास – मिथकों से बनी धारणा – रोचक है। यह शंकर, जिन्हें शिव भी कहा जाता है, से जुड़ी है। गौरतलब बात यह है कि धरा के इस इलाके के मानव समाज के वे अकेले ऐसे देवता हैं, जिनके जनता के बीच आर्य-पूर्व अस्तित्व के प्रमाण खुद आर्य ग्रन्थों मे मिलते हैं। इन ग्रंथों मे ऋचाएं, श्रुति-स्मृति लिखने वाले आर्य विद्वान इस इलाके के मूल निवासियों की भर्त्सना करते हुये कहते हैं कि “कैसे असभ्य और पिछड़े, गंदे और असंस्कारी लोग हैं कि लिंग की पूजा करते हैं।” ध्यान रहे कि शिव मानव समाज के विकास के उस चरण के आराध्य हैं, जब उर्वरता और जीवन का पुनरोत्पादन चिंता का मुख्य विषय हुआ करता था। इस तरह शिव इकलौते अनार्य देवता हैं, जिनकी ठसक और जनप्रियता इतनी अधिक थी कि बाद मे झक मारकर आर्यों को भी अपने देव-मण्डल मे उन्हें सिर्फ जगह ही नहीं देनी पड़ी, बल्कि उनकी पॉपुलैरिटी रेटिंग को देखते हुए उन्हे महादेव बनाना पड़ा। हालांकि ऐसा करते मे भी उनका व्यक्तित्व, जीवन शैली इत्यादि को बड़े खास अंदाज मे गढ़ा गया, जिसमें स्वीकार करने के पीछे की विवशता से उपजी चिढ़ साफ दिखती है।
मिथिहास के मुताबिक़ समुद्र मंथन में निकले विष को पीने के बाद जब शिव पीड़ा से तड़प रहे थे, तब शिव भक्त रावण उनके लिए कांवड़ – कंधे पर रखी जाने वाली ऐसी बहंगी, जिसके दोनों तरफ सामान रखने की टोकरियाँ होती हैं – में भरकर गंगाजल लाये थे और तभी से यह यात्रा प्रचलन में आ गयी। जो भी खुद को शिव भक्त मानते हैं, वे सावन के महीने में गंगा से पानी लेकर अपने-अपने गाँव-शहर के शिवालयों में चढाते हैं। सभी शिव भक्त हरिद्वार ही नहीं आते, अलग-अलग प्रदेशों की नदियों को ही गंगा मान लेते हैं। बिहार में ऐसी दो-दो यात्राओं का रिवाज है : एक सुल्तानगंज से देवघर, दूसरी पहलेजा घाट से मुजफ्फरपुर तक होती है। एक जमाने में ‘शिवो भूत्वा शिवम् जयेत’ (शिव की पूजा शिव बनकर) की जाने वाली इस यात्रा को इसे करने वाले के लिए काफी कष्टदायक माना जाता था, धीरे-धीरे, खासकर मौजूदा हुक्मरानों के सतत ‘भगीरथी’ प्रयासों के बाद, अब उसे बाकी सबके लिए महा कष्टकारक बना दिया गया है।
1980 के दशक तक यह एक छोटी-सी मामूली यात्रा हुआ करती थी, कुछ संत, कुछ ज्यादा ही पक्के शिव भक्त कावड़ उठाकर जाया करते थे। यह वह दशक है, जिससे भारतीय समाज में एक नया और गुणात्मक रूप से नकारात्मक परिवर्तन की शुरुआत की गयी। भाजपा ने धर्म को अपनी ध्वजा बनाने और इस तरह आम तौर से कई सौ सालों और खासतौर से स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान निर्णायक रूप से कूड़ेदान में फेंक दी गयी धर्माधारित राजनीति को केंद्र में लाने का धतकरम शुरू किया। भगवानों के तब तक प्रचलित पारंपरिक रूप बदले जाने लगे ; सारे पर्व, तीज-त्यौहार अपना विभाजनकारी एजेंडा आगे बढ़ाने का जरिया बनाए जाने लगे। संविधान की जगह मनु विराजमान कराये जाने लगे। इस सबका मकसद उन लोगो को जोड़ने, बाँधने, अपनी तरह ढालने का था, जो अभी तक संघ या भाजपा के साथ जुड़ने, बंधने या उनकी तरह ढलने के लिए तैयार नहीं थे। कांवड़ यात्रा इसका टैक्स्ट बुक उदहारण है।
कांवड़ियों का विराट बहुमत उन जातियों का है, जिनकी पहुँच से ब्राह्मण धर्म और उसके पूजा स्थल अभी भी बाहर हैं। इसमें जाने वाले ज्यादातर लोग दलित हैं या फिर उन अति पिछड़ी जातियों के हैं, जिन्हें आम बोलचाल में भले ओबीसी कहा जाने लगा हो, मगर शास्त्रीय पारिभाषिक शब्दावली और आम आचार में शूद्र ही माना जाता है। कांवड़ यात्रा के बाद भी उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आता। ऐसी अनेक घटनाएं हर साल अखबारों में छपती रहती हैं जिनमे गंगा से लाये पानी को अपने गाँव के शिवालय में लगी शिव की मूर्ति पर डालकर उनका जलाभिषेक करने से इसलिए रोक दिया गया, क्योंकि कांवड़िया शूद्र या कथित नीची जाति का था। कई जगहों पर ऐसा करने की कोशिश करने वाले कांवड़ियों पर हमले हुए, कुछ की तो इन हमलों में मौतें तक हो गयीं। इस बार भी यही होने वाला है। मगर इसके बाद भी इसे हर तरह से प्रोत्साहित करने वाले जानते हैं कि इस प्रक्रिया से गुजरते में उनके व्यक्तित्व, सोच और रुझान में एक ऐसा परिवर्तन लाया जा सकता है, जिसके चलते वह, जो अब तक उनका नहीं है, वह कुछ-कुछ उनका हो सकता है, देर सबेर उसे पूरा अपना बनाया जा सकता है।
यह प्रक्रिया गढ़ी ही इस प्रकार से जाती और नियमतः अमल में लाई जाती है : जैसे जब ये गरीब गुरबे, निम्न मध्यवर्गीय श्रद्धालु कांवड़ यात्रा पर निकलते हैं, तो शहर के वणिक व्यापारी अपने नौनिहालों को किसी आईआईटी, आईएएस कोचिंग या लन्दन, पेरिस, ऑस्ट्रेलिया पढने के लिए सुरक्षित भेजने के पुण्य कार्य से निवृत्त होने के बाद अपनी कारों में, सजे-धजे परिवार के साथ लदकर कांवड़ियों को स्टेशन और बस अड्डे पर विदा करने आते हैं। उन्हें पत्रम, पुष्पम, वस्त्रम, द्रव्यम देकर उनके मन में खुद के प्रति कुछ क्षणों के आभासीय आत्मगौरव की गलतफहमी और दाताओं के प्रति श्रद्धा और आदरभाव पैदा करते हैं। इतना भर करने के बाद ये प्रायोजक गण वापस अपने वातानुकूलित ड्राइंग रूम्स से पहुँच कर ‘घर घर में ‘कांवड़िया पैदा होना चाहिए मेरे घर को छोड़कर’ का जाप करते हुए निश्चिंतता की नींद सो जाते हैं – धर्म के प्रति इनकी प्रतिबद्धता इतनी अगाध चुनिंदा और सजग होती है कि ये भूले से भी अपने घर, परिवार या रिश्तेदार को ऐसी यात्रा पर नहीं भेजते। कहने की जरूरत नही कि यह विदाई समारोह स्वतःस्फूर्त नहीं होता ; उस इलाके के नेकरिया भाई साहब और भाजपा शासित प्रदेशों में प्रशासनिक अमला बाकायदा योजना बनाकर इसे करता है।
बात यहीं तक नहीं रुकती ; क्षणिक महत्त्व की इस मरीचिका और भुलावे को रास्ते भर दिखाया और दोहराया जाता है। पिछली बार तो उत्तर प्रदेश का डीजीपी खुद हेलीकॉप्टर में सवार होकर आकाश से फूल बरसाने के लिए गया था। अब इसे और ज्यादा विकेन्द्रीकृत कर दिया गया है। पुलिस को साफ साफ़ निर्देश हैं कि चाहें जो होता रहे, वे अपनी आंखे मूँद कर रखेंगे ; बजाय क़ानून व्यवस्था से निबटने के, नियम-कायदों पर चलने के लिए वह भोले कांवड़ियों को समझाएगी ; सिर्फ समझाएगी नहीं, उनकी “जरूरतों” का ख्याल रखेगी ; उनकी सराहना ही नहीं, सेवा सुश्रुषा भी करेगी। इस तरह अभयदान देकर उन्हें – भले चंद दिनों के लिए – क़ानून विधान से ऊपर होने का सुख दे दिया जाता है।
पिछली बार पुलिस के एक आलातरीन अफसर इन भोले भंडारियों के पाँव दबाने तक पहुँच गए थे। यह कुछ उत्साही लालों का उमड़ता-घुमड़ता जोश और उनके भीतर से उठती धर्म की उफान नहीं है – यह एक सुविचारित स्क्रिप्ट है, जिसका उद्देश्य धार्मिक नहीं, शुद्ध राजनीतिक है। इसका एकमात्र मकसद सांप्रदायिक ध्रुवीकरण है। इसकी शुरुआत योगी सरकार के इशारे पर उस आदेश के साथ हुई, जिसमें ठेले पर फल बेचने वालों से लेकर, ढाबों और खाने-पीने की दुकानों, होटलों पर उनके मालिक का नाम लिखना अनिवार्य किया गया। सुप्रीम कोर्ट के एक धुंधले से अंतरिम आदेश के बाद फिलहाल इसे स्थगित कर दिया गया है, मगर जो काम किया जाना था, वह हो चुका है, ध्रुवीकरण की मथनी चलाई जा चुकी है। इसके बाद हरिद्वार में हुकुम जारी किया गया और कथित रूप से कांवड़ियों के रास्ते में पड़ने वाली मस्जिदों, दरगाहों को परदे में ढांपने के निर्देश निकाल दिए गए। हालांकि बाद में इस बेहूदा फरमान को भी वापस ले लिया गया, लेकिन हिन्दू बनाम मुस्लिम का जो संदेशा देना था, वह तो पहुंचा ही दिया गया।
इसे ही और हवा देने के लिए नफरती मीडिया ने कांवड़ियों पर आतंकी हमले की तैयारी और अलाने-फलाने-ढिकाने अरबी भाषा वाले नाम के किसी संगठन की योजनाओं की झूठी खबरें छापकर किया, आज भी किया जा रहा है। यात्रा के रास्ते में पड़ने वाले यूपी के शहरों–गाँवों में निशानदेही के साथ ऐसे लोगों को पकड़ा और पाबंद किया जा रहा है, जिन्हें प्रशासन कथित रूप से उत्पात करने की आशंका वाला मानता है ; ये लोग कौन होंगे, इसे आसानी से समझा जा सकता है। इस तरह ध्रुवीकरण को एकदम नीचे तक पहुंचा दिया गया है।
मेरठ पुलिस ने तो जैसे संविधान और सरकारी विभागों की कार्यशैली की स्पष्ट हिदायतों की पुंगी ही बना दी, उनके नकार और धिक्कार को शिखर पर पहुंचा दिया। यहाँ हरेक पुलिस थाने और चौकी से कहा गया है कि वह अपने परिसर में और अपने इलाके में आने वाले हर मंदिर में ताजा गंगाजल लाकर रखे। इसे ठेठ हरिद्वार से लाये जाने के लिए पुलिस की दो टीम पुजारियों के साथ हरिद्वार भेजी गयी, उसके द्वारा लाये गए गंगाजल को थानों, चौकियों में पधराया गया ; अब इसकी रोज पूजा और आरती भी कराई जायेगी।
कुल मिलाकर यह कि एक नई उन्मादी भीड़ संगठित और प्रशिक्षित की जा रही है। उसे क्रमशः और योजनाबद्ध तरीके से नफरती जहर में रंगा और पागा जा रहा है। ड्रेस रिहर्सल कराके उसे उस विभाजनकारी मशीन का पुर्जा, उस खंजर की मूठ बनाया जा रहा है, जो अंततः उन्हीं पर चलनी है। उसे खुद ही का शिकार करने के लिए चारा बनाया जा रहा है, एक हथियार में बदलता औजार बनाया जा रहा है, ताकि वह जिन गाँवों से आया है, उनमें सुरसा की तरह पांव फैलाती गरीबी, महामारी की तरह बढ़ती बेरोजगारी और तेजी के साथ बढ़ती सामाजिक जकड़न के बारे में सोचने की क्षमता और विवेक को पूरी तरह गँवा दे। इन हालात को चुनौती देने वाले जुलूस में बदलने की बजाय एक आत्मघाती भीड़ बनकर रह जाए। बमभोले की गूँज-अनुगूंज से चकरा कर तांडव करना और तीसरा नेत्र खोलकर असली दुश्मन की पहचान और उसे भस्म करने की ताब ही खो दे।
ठीक जिन हालात को छुपाने और उनसे ध्यान हटाने के लिए यह किया जा रहा है, ठीक उन्हीं को उठाकर और ताकतवर तरीके से एजेंडे पर लाकर इस साजिश को असफल किया जा सकता है। यह बात उन्हें भी मालूम है, इसलिए वे हरचंद कोशिश करेंगे कि ऐसा न हो सके। हमें भी मालूम है, इसलिए हम भी पूरी शक्ति झोंककर ऐसा करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।
(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)