जम्मू-कश्मीर : मोदीशाही की हार
(आलेख : राजेन्द्र शर्मा)
मंगलवार, 8 अक्टूबर को आये चुनाव के नतीजों में प्रकटत: मुकाबला एकदम बराबरी पर छूटा है। हरियाणा में 90 में से 48 सीटों के साथ भाजपा तीसरी बार सरकार बना रही है, तो जम्मू-कश्मीर में 90 सीटों में से ही 49 सीटों के साथ, इंडिया गठबंधन की सरकार बनना तय है, जिसका नेतृत्व नेशनल कान्फ्रेंस के उमर अब्दुल्ला के करने की संभावना है। बहरहाल, इसे मीडिया पर मोदी राज तथा सत्ताधारी पार्टी की पूरी तरह से जकड़ और सत्ताधारी संघ-भाजपा की मनमाफिक नैरेटिव गढ़ने की महारत का ही साक्ष्य माना जाएगा कि आम तौर पर चुनाव के इस चक्र का नतीजा यही बताया जा रहा है कि भाजपा की जीत हुई है। और यह प्रस्तुति चुनाव के इस चक्र में जीत के दावे तक ही नहीं रुकती है। इससे आगे बढ़कर, भक्त मीडिया ने न सिर्फ इसके दावे करने शुरू कर दिए हैं कि इससे महाराष्ट्र तथा झारखंड के अगले कुछ महीनों में ही होने जा रहे चुनावों में भी भाजपा की जीत का रास्ता बन गया है, बल्कि इसके दावे भी किए जा रहे हैं कि चंद महीने पहले हुए लोकसभा चुनावों में जो मोदी और भाजपा के खिलाफ वातावरण बना था, बदलकर मोदी और भाजपा के पक्ष में हो चला है! महाराष्ट्र में भाजपा के सर्वोच्च नेता तथा उप-मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने खासतौर पर हरियाणा के चुनाव नतीजों के आधार पर यह दावा किया है। लेकिन, चुनाव के इस चक्र के वास्तविक नतीजे तो ऐसे किसी निष्कर्ष की किसी भी तरह इजाजत नहीं देते हैं। उल्टे जैसाकि हम आगे देखेंगे, जम्मू-कश्मीर में मोदीशाही की हार ही इस चुनाव की असली कहानी है, न कि हरियाणा की भाजपा की जीत।
बहरहाल, पहले हरियाणा की भाजपा की जीत। बेशक, भाजपा का लगातार तीसरी बार हरियाणा में सरकार बनाना, उसकी एक बड़ी कामयाबी है। यह कामयाबी इससे और भी बड़ी हो जाती है कि भाजपा ने इस बार, पिछले चुनाव के मुकाबले अपनी सीटों और मत फीसद, दोनों में बढ़ोतरी कर, जीत हासिल की है। वास्तव में 2019 के चुनाव में भाजपा को काफी धक्का लगा था और उसे अपने बल पर बहुमत हासिल नहीं हुआ था, जिसके चलते उसे दुष्यंत चौटाला की जेजेपी के साथ इस बार के चुनाव से ऐन पहले तक गठजोड़ सरकार चलानी पड़ी थी। बहरहाल, इस बार भाजपा को फिर से पूर्ण बहुमत मिल गया है और उसका मत प्रतिशत भी, पिछले चुनाव के 36.49 फीसद से बढ़कर 39.89 फीसद हो गया है। लेकिन, इस चुनाव में भाजपा की कामयाबी की कहानी इतनी ही है, न इससे जरा भी कम और न रत्तीभर ज्यादा। जहां तक इस चुनाव में कुल मिलाकर चुनावी/ राजनीतिक वातावरण में मोदी और उनकी भाजपा के पक्ष में किसी भी तरह के बदलाव के संकेतों का सवाल है, ये संकेत भक्तों की कल्पनाओं की ही उपज हैं। इसके विपरीत, सच्चाई यह है कि हरियाणा के नतीजे का अगर कोई संकेत है, तो वह यही है कि आम चुनाव के समय का वातावरण जस का तस बना हुआ है।
इस सच्चाई का इससे बड़ा सबूत क्या होगा कि अगर लोकसभा चुनाव में हरियाणा की दस सीटें, कांग्रेस और भाजपा के बीच बराबर बंटी थीं — दोनों के हिस्से में पांच-पांच सीटें आई थीं — तो इस चुनाव में भी भाजपा और कांग्रेस का मत फीसद लगभग बराबर है। इस चुनाव में जहां भाजपा को 39.9 फीसद के करीब वोट मिला है, कांग्रेस तथा उसकी सहयोगी सीपीएम को मिलाकर 39.3 फीसद वोट मिला है। रही बात 2019 के चुनाव के मुकाबले भाजपा की सीटों तथा मत फीसद दोनों में बढ़ोतरी की, तो सच्चाई यह है कि कांग्रेस की सीटों में ही चार की बढ़ोतरी नहीं हुई है, उसके मत फीसद में भी पूरे 11 फीसद की नाटकीय बढ़ोतरी हुई है। 2019 के चुनाव में कांग्रेस का वोट कुल 28.08 फीसद था, जो इस बार 39.09 फीसद पर पहुंच गया है। यानी जनमत के समर्थन के लिहाज से, इस चुनाव में भाजपा के हिस्से में अगर कामयाबी आई है, तो कांग्रेस के हिस्से में उससे भी बड़ी कामयाबी आई है। लेकिन, कांग्रेस के हिस्से की यह कामयाबी, आम चुनाव के समय की उसकी कामयाबी जितनी ही थी, न ज्यादा न कम।
अब हम आते हैं, जम्मू-कश्मीर में भाजपा की भारी हार पर। यह हार भारी सिर्फ इसलिए नहीं है कि भाजपा सिर्फ 29 सीटों पर अटक गयी है, जबकि उसके मुख्य प्रतिद्वंद्वी, इंडिया गठबंधन ने नेशनल कान्फ्रेंस की 42, कांग्रेस की 6 और सीपीएम की 1 सीट के साथ, 49 का आंकड़ा छू लिया है, जो निर्वाचित विधायकों के बीच पूर्ण बहुमत से ज्यादा ही है। यह भारी हार सबसे बढ़कर इसलिए है कि इस चुनाव नतीजे के इस अर्थ में विचारधारात्मक हैं कि इनके जरिए जम्मू-कश्मीर की जनता ने आम तौर पर मोदीशाही की नीतियों को और खासतौर पर 5 अगस्त 2019 से लगाकर उसके कथित बड़े फैसलों को ठुकराया है, जिनमें धारा-370 को खत्म करना, उसका राज्य का दर्जा खत्म करना और इस तरह पहले के इस राज्य को दो केंद्र-शासित प्रदेशों में बांटना शामिल है।
प्रधानमंत्री ने 8 अक्टूबर की ही शाम को, भाजपा कार्यालय में अपने ‘विजय संबोधन’ में हाथ की चतुराई दिखाते हुए, यह दिखाने की कोशिश की थी कि जम्मू-कश्मीर में भी जनता का फैसला उनकी पार्टी की कामयाबी को दिखाता है, जहां भाजपा ने 2014 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले न सिर्फ अपनी सीटों में 4 की बढ़ोतरी कर ली है, इसी दौरान अपना मत फीसद भी 22.98 फीसद से बढ़ाकर 25.64 फीसद कर लिया है। इससे भी बड़ी बात यह कि 42 सीटें हासिल करने के बावजूद, नेशनल कान्फ्रे्रेंस का वोट भाजपा के वोट से 2 फीसद कम ही रहा है और इस तरह भाजपा जम्मू-कश्मीर में सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई है। लेकिन, यह दावा इस सच्चाई को छुपाने की चतुराई पर आधारित है कि नेशनल कान्फ्रेंस ने अकेले नहीं, इंडिया गठबंधन के हिस्से के तौर पर यह चुनाव लड़ा था और तुलना के लिए इंडिया गठबंधन का पूरा वोट हिसाब में लिया जाना चाहिए, जो 37 फीसद से ऊपर बैठता है यानी भाजपा के वोट से 11 फीसद से भी ज्यादा। यह साफ तौर पर भाजपा की हार को दिखाता है।
लेकिन, वास्तव में इस चुनाव में मोदीशाही और भाजपा की हार इससे भी ज्यादा भारी है। इसकी सीधी सी वजह यह है कि हरियाणा के विपरीत, जहां भाजपा, कांग्रेस से ठीक बराबर मत फीसद के बल पर, कम से कम अपने मुद्दों के आधार पर किसी निर्णायक जीत का दावा करती है, तो उसे झूठा ही माना जाएगा। जम्मू-कश्मीर में इस केंद्र शासित क्षेत्र के लिए केंद्र सरकार द्वारा लिए गए फैसलों के आधार पर, जनता ने भाजपा के खिलाफ निर्णायक रूप से वोट किया है। जाहिर है कि जनता का यह निर्णायक फैसला सिर्फ इंडिया गठबंधन के पक्ष में पड़े वोट में ही प्रतिबिंबित नहीं होता है। यह फैसला, पीडीपी के 8.89 फीसद वोट में भी अभिव्यक्त होता है। और सच तो यह है कि यह फैसला, अन्य छोटी-छोटी पार्टियों व निर्दलीयों को पड़े 24.83 फीसद वोट में भी प्रतिबिंबित होता है। संक्षेप में कहें तो जम्मू-कश्मीर के चुनाव में राजनीतिक-वैचारिक रूप से एक ओर भाजपा और दूसरी ओर बाकी सब का विभाजन था और इस विभाजन में भाजपा को कुल एक चौथाई वोट मिला है, जबकि पूरा तीन-चौथाई वोट उसके खिलाफ पड़ा है। यह जम्मू-कश्मीर की जनता द्वारा मोदीशाही के फैसलों, नीतियों और पैंतरों के निर्णायक रूप से ठुकराए जाने का ही सबूत है।
बेशक, इसका अर्थ यह हर्गिज नहीं है कि जम्मू-कश्मीर में जनतांत्रिक ताकतों के लिए, संघ-भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति की चुनौती कोई कम हो गयी है। उल्टे सीटों की बढ़ी हुई संख्या और भाजपा के हिस्से में करीब हरेक चौथा वोट जाना, इस चुनौती के बढ़ने का ही इशारा करता है। इसी का एक और भी खतरनाक पहलू है, भाजपा की हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक पहचान और उसके हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक आधार का और ज्यादा पुख्ता होना। यह संयोग ही नहीं है कि भाजपा को सारी तिकड़मों के बावजूद, उसे सारी सीटें जम्मू क्षेत्र के हिंदू-बहुल इलाकों से ही मिली हैं और कश्मीर की घाटी में उसे 2 फीसद से जरा से ज्यादा वोट ही मिले हैं। दूसरी ओर, भले ही जम्मू क्षेत्र में लगभग 45 फीसद वोट हासिल कर, भाजपा ने अपना बोलबाला कायम रखा हो, फिर भी इस क्षेत्र में करीब हरेक तीसरा (32.8प्रतिशत) वोट हासिल कर, इंडिया गठबंधन ने यह दिखा दिया है कि वही व्यापक रूप से जम्मू-कश्मीर की तमाम जनता का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि भाजपा उसके सिर्फ हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक हिस्से का प्रतिनिधित्व करती है। बहरहाल, यह चुनाव इस हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक हिस्से के और बढ़ने को भी दिखाता है।
इसमें आगे जनतांत्रिक ताकतों के लिए चुनौतियां और बढ़ने के ही बीज छुपे हुए हैं। अपने इस बढ़े हुए आधार को, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और बढ़ाने के जरिए पुख्ता करने की कोशिश में संघ-भाजपा जोड़ी, अन्य चीजों के अलावा अपनी केंद्र सरकार के जरिए, निर्वाचित राज्य सरकार से टकराव बढ़ाने की कोशिश कर सकती है। यह राज्य के दर्जे की बहाली की सबसे प्रमुख मांग को पूरा करने में टालमटोल तक ही सीमित रहे यह भी जरूरी नहीं है। चुनाव से ऐन पहले अनेक क्षेत्रों में, जिनमें पुलिस प्रशासन भी शामिल है, निर्वाचित सरकार के अधिकार उससे छीनकर केंद्र द्वारा नियुक्त लैफ्टीनेंट गवर्नर को थमा दिए जाने से लेकर, उसे अपनी मर्जी से पांच विधायकों की नामजदगी के अधिकार दिए जाने तक, अनेक मामले सामने आएंगे, जो केंद्र और राज्य प्रशासन के बीच टकराव को तीखा कर सकते हैं। और इस टकराव में बढ़त हासिल करने के लिए केंद्र तथा उसके एजेंट के रूप में लैफ्टीनेंट गवर्नर और उसके राजनीतिक एजेंटों के रूप में संघ-भाजपा, हिंदू बहुल जम्मू बनाम मुस्लिम बहुल कश्मीर के विभाजन को और धारदार बनाने की कोशिश कर सकते हैं, जैसाकि अधिकांश विपक्ष-शासित राज्यों में पहले ही किया जा रहा है। श्रीनगर में आने वाली सरकार के लिए यह एक बड़ी चुनौती होगी।
अंत में एक बात और। हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के नतीजों के अंतर में विपक्ष के लिए एक जरूरी सबक भी है। याद रहे कि जम्मू-कश्मीर में इंडिया गठबंधन की प्रक्रिया को इस चुनाव में सुरक्षित रखा जा सका था, जबकि हरियाणा में खासतौर पर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की खींचतान के चलते, शुरूआती कोशिशों और शीर्ष नेतृत्व की इच्छाओं के बावजूद, इस प्रक्रिया को कायम नहीं रखा सका था। हरियाणा में भाजपा के तीसरी बार सत्ता में आने का एक कारण यह भी लगता है। आशा की जानी चाहिए कि अगले कुछ महीनों में ही होने जा रहे महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावों में और उससे आगे भी, इस सबक को याद रखा जाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)