इस्लाम की हयात इबादत हुसैन से, दीने खुदा की शान शरीयत हुसैन से
आज मुहर्रम की नवी तारीख़ है। इमाम हुसैन दुश्मनों के घेरे में हैं। यज़ीद बिन मुआविया बिन अबू सुफ़्यान का ज़ुल्म बढ़ता जा रहा है। फ़ौजें बढती जा रही हैं। पानी पर पहरा भी बढ़ा दिया गया है। रसूले के घराने के मर्द औरतें और बच्चे भूखे प्यासे हैं। और ज़ालिम अपने ज़ुल्म पर खुशियाँ मना रहे हैं।
इमाम हुसैन शान्ति क़ायम करने का हर प्रयास कर रहे हैं। मगर यज़ीदी मुसलमान सिर्फ़ क़त्ल करने को दरपय हैं।
मुसलमान दो हिस्से में बंट चूका था। नबिये करीम को मानने वाले इमाम हुसैन के साथ थे और यज़ीद और उसके पुरखों की इस्लाम दुशामी को जानते पहचानते हुए भी उसके साथ थे। जो आज भी दिखाई देती है। दहशतगर्दी इसी का नतीजा है।
रसूले करीम ने जिन बुराइयों को दूर कर इस्लाम की बुनियाद डाली थी उन्हीं बुराइयों के साथ यज़ीद के हमनवा बन गए थे। मगर इमाम हुसैन ने अपने किरदार और अमल से रहती दुनिया तक यह पैग़ाम दे दिया कि जीत और हार जिस्मानी ताक़त और भीड़ की नहीं होती। बल्कि मक़सद की होती है। उन्हों ने कुर’आन की आयत की तफ़सीर अपने अमल से कर दी। आदमी ज़मीन पर चलते हुए भी मुर्दा हो सकता है मगर इंसानियत की राह में मौत को गले लगा कर भी जिंदा (शीहीद ) रहता है। इमाम हुसैन शहीद होकर आज भी जिंदा हैं और यज़ीद को ऐसी मौत आई कि कोई नाम लेवा भी नहीं है।
जिहाद का एक उसूल होता है। सही मकसद के लिए होश हवास में सिर्फ़ अल्लाह की राह ( इंसानियत को बचाने के लिए ) में दुश्मन का मुक़ाबला किया जाये। मगर यह डिफेंसिव हो ना की हमलावरी के साथ। जिहाद और दहशतगर्दी में फ़र्क है इसे कर्बला में इमाम हुसैन ने दुनिया को बता दिया । इमाम हुसैन ने आखिरी वक़्त तक अमन कायम रखने की कोशिश की। उन्होंने यज़ीद के कमांडर उमरे साद से कहा ” अगर तुम्हारे हाकिम को मुझसे ख़तरा लग रहा है तो मुझे रास्ता दे दो ताकि मैं हिन्दोस्तान चला जाऊं”। इमाम हुसैन की इस बात से यह खुल कर सामने आ गया कि हिन्दोस्तान अमन पसंदों की धरती थी और है। मगर ज़ालिम खून के प्यासे थे और इमाम की इस चाहत को नकार दिया।
तब इमाम हुसैन ने फ़रमाया, ” इज्ज़त की मौत ज़िल्लत की ज़िन्दगी से बेहतर है।”
9 मुहर्रम की रात में इमाम हुसैन ने अपने साथियों को जमा किया और फ़रमाया “” यह लोग मेरी जान के दुश्मन हैं। तुमने वफ़ादारी की मिसाल कायम कर दी। रात का अँधेरा है। जाओ और अपनी जान बचा लो”” । मगर कोई भी अपनी जगह से नहीं हिला। इमाम के कहा की शायद रौशनी में जाते हुए हिचक रहे हो। फिर चिराग़ बुझा कर अँधेरा कर दिया। और कहा की चले जाओ। मगर जब उजाला हुआ तो क्या दिखा की सारे साथी अपनी तलवारें अपनी गर्दनों पर रख कर कह रहे हैं की आप हुक्म दें तो अभी अपने हाथों से अपनी गर्दनें काट दूं। साथियों की इस वफ़ादारी और इंसानियत परस्ती को देख कर इमाम हुसैन ने कहा कि ” जैसे साथी मुझे मिले वैसे ना तो मेरे नाना (रसूले करीम ) को मिले और नाही मेरे बाबा ( मौला अली ) को मिले। कहने वाले ने क्या खूब कहा, ” हुसैन कर्बला के मैदान में तनहा नहीं आये थे बल्कि 72 हुसैन लाये थे”। हर कोई इंसानियत व् दीन बचाने में इमाम के साथ खड़ा था। सभी ने इमाम से इजाज़त ले कर हंसी ख़ुशी जंग की और जामे शहादत पिया।
10 मुहर्रम को जब सभी शहीद हो गए और इमाम हुसैन के साथ सिर्फ़ 18 बरस के बेटे अली अकबर ही बचे तो बेटे ने इमाम से जिहाद की इजाज़त मांगी। इमाम के सामने कैसा वक़्त रहा होगा यह कोई भी इंसान समझ सकता है। बेटे को इजाज़त दी। बेटा मैदान में गया। तीन दिन की भूक प्यास और 70 लाशें बाप के साथ उठाने के बाद भी वह जंग की कि दुश्मन में खलबली मच गयी। यज़ीदी फ़ौज के सिपाह सलार उमर बिन साद बिन अबी विक़ास ने कहा की यह बनी हाशिम का नवजवान है। हैदरे कर्रार (मौला अली ) का पूता है इसे घेर कर मारो। एक दुश्मन ने नेज़ा मारा जो अली अकबर के सीने में धंस गया और उसका फल टूट गया। अली अकबर ज़मीन पर गिरे और आवाज़ दी, बाबा मेरा आखिरी सलाम कुबूल करें।
एक बूढ़े बाप का जवान बेटे की लाश पर जाना क़यामत की बात है।
इमाम हुसैन बेटे के पास पहुंचे। सीने से टूटी हुयी बरछी निकली। बरछी के साथ बेटे के कलेजे का टुकड़ा भी आ गया और बेटा शहीद हो गया।
कैसे थे वह मुसलमान जो रसूल के घर वालों के साथ अपना दीन भी क़त्ल कर रहे थे। इमाम हुसैन ने साथियों , भाइयों, भतीजो, भांजों और बेटों के साथ ख़ुद की कुर्बानी देदी मगर इस्लाम और इंसानियत को बचा लिया।
मेहदी अब्बास रिज़वी