देश को कोरोना से बचाने के लिए मजदूरों में फैल रही अफरा-तफरी का ख़ात्मा जरूरी: डॉ पीके शुक्ला
सन्देश तलवार
लखनऊ: चिकित्सा के क्षेत्र में कुछ चुनिंदा पैथियों मैं उत्तम समझी जाने वाली होम्योपैथिक के जनकदाता डॉक्टर हैनीमैन के बाद देश में इस पैथी को शिखर पर ले जाने के लिए गिने-चुने कुछ नामों में से एक डॉक्टर प्रदीप कुमार शुक्ला ने कोविड-19 कोरोनावायरस संक्रमण से लोगों को बचाने के लिए प्रवासी मजदूरों व कामगारों की अधिकतम संभव सहायता कर उनमें फैल रही अफरा-तफरी रोकने की सरकार व आमजन से अपील की है.
उन्होंने वीडियो जारी कर कहा कि ज्यादातर मजदूर व कामगार भाइयों को क्वॉरेंटाइन सजा लग रही है. वह इसे जेल जाना समझ कर सरकारी मदद लेने से भयभीत हो रहे है और बसों व ट्रेनों की जगह चारों तरफ भागा -दौड़ी कर रहे हैं जिससे कोरोना फैलने का खतरा और बढ़ जाता है
उन्होंने कहा कि हमें नहीं भूलना चाहिए कि यह वही मजदूर है जो हम लोग के घर बनाते हैं और आज खुद बेघर हैं. इनकी नौकरियां जा चुकी है. इनके पास भोजन नहीं है. यह फिक्रमंद है परेशान है और मूल निवास पर पहुंचने की बेताबी में भागदौड़ कर रहे हैं
डॉ पीके शुक्ला ने बताया कि कोविड-19 की एक जांच मैं तकरीबन 4 से ₹5000 का खर्च आता है और इतने बड़े पैमाने पर सभी की जांच करा पाना सरकार के द्वारा शायद संभव नहीं है| इसके अलावा यह बात भी जगजाहिर है कि कोरोना संक्रमण का फिलहाल कोई इलाज नहीं है और सोशल या फिजिकल डिस्टेंसिंग ही बचाव का एक मात्र उपाय है | अतः समाज और हम सबको इन मजदूर भाइयों फिजिकल डिस्टेंसिंग के महत्व को समझाते हुए इनकी समस्याओं को हमें समझना होगा… तभी हम देश को इस महामारी से बचा सकते हैं|
डॉ पीके शुक्ला ने आगे बताया कि गांव और मलिन बस्तियों में रहने वाले लोग सरकार द्वारा मुहैया कराएं जा रहे राशन का आसानी से इस्तेमाल कर सकते हैं क्योंकि उनके पास इसे बनाने के साधन है लेकिन पैदल चलने वाले इन मजदूरों के पास इस तरह का कोई साधन नहीं है|
यह देखा गया है कि अब तक इन प्रवासी श्रमिकों व कामगारों को तमाम समाजसेवी संस्थाएं व सरकार अपने पूरे सामर्थ के साथ जो खाने पीने के लिए भोज्य पदार्थ उपलब्ध करा रही है वह 6 से 8 घंटे तक इस्तेमाल हो सकता है| उन्होंने सुझाव दिया कि यदि पके हुए भोजन के स्थान पर( जिसे ग्रीष्म ऋतु की वजह से देर तक संरक्षित रख पाना मुमकिन नहीं है) इन्हें ऐसा प्रिपेयर्ड फूड उपलब्ध कराया जाए जिसे देर तक इस्तेमाल किया जा सके तो कहीं बेहतर होगा| उन्होंने बताया कि अपने देश में सन 50 व 60 के दशक के बीच हमारे बुजुर्ग इसी तरह के एक प्रिपेयर्ड फूड– सत्तू — का इस्तेमाल करते थे( इसे सतुआ भी कहा जाता है) और यह बहुत ही सुपाच्य होता है . इसे बनाने के लिए सिर्फ पानी की ही आवश्यकता है|
डॉक्टर शुक्ला ने बताया कि सत्तू चना व जौ के आटे से बनता है, चने में भरपूर मात्रा में प्रोटीन और जौ के आटे में कार्बोहाइड्रेट्स के साथ-साथ मिनरल और विटामिन होते हैं, यदि 1 किलो सत्तू किसी मजदूर को उपलब्ध कराया जाता है कम से कम 2 से 4 प्राणियों का परिवार का 2 दिनों तक पेट भर सकता है और यदि किसी मजदूर को 4 से 6 दिन के लिए सत्तू प्रदान किया जाता है तो यह घबराकर सड़कों पर भूख और प्यास से व्याकुल हो इधर-उधर भागेंगे नहीं. इनके सामने हर वक्त भूख की समस्या नहीं होगी| लिहाजा इन मजदूरों व कामगारों को सिर्फ सत्तू और पानी ही उपलब्ध करा दिया जाए तो भूख की समस्या के बिना लंबे समय तक इन्हें कहीं रखा जा सकता है और समाज के लिए यह कोई समस्या नहीं बनेंगे|
उन्होंने कहा कि यह सिर्फ भोजन की तलाश में पलायन कर रहे हैं और पलायन ही सोशल डिस्टेंसिंग की समस्या पैदा कर रहा है. यह हमारे बीच के लोग हैं.
हम पुलिस या बल के माध्यम से इन्हें नहीं रोक सकते.यह हमारे भविष्य का हिस्सा है. हम इनके बगैर हमारा जीवन चल नहीं सकता. इन्होंने समाज को बनाया है. हम अगर इन्हें बना नहीं सकते हैं तो बिगाड़ेंगे नहीं. हमें इन्हें सुरक्षा देनी होगी|
डॉ शुक्ला ने सुझाव दिया कि जिन शहरों से इनका पलायन हो रहा है वहां के कॉरपोरेटर सभासद सेक्टर वार्डन सम्मानित विधायक व सांसदों के पास एक चैनल होता है. इनके द्वारा विस्थापित मजदूरों की सूची तैयार करवाई जाए और यह सूची डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन व सरकार के साथ साझा हो जिसके बाद स्थानीय सरकार साधन देकर इन्हें ऐसे स्थान पर एकत्रित करें जहां 100 -100 के समूह में फिजिकल डिस्टेंसिंग का पालन कराते हुए इन लोगों को इकट्ठा रखा जा सके ,अपेक्षित दिनों तक रखने के बाद इन्हें बसो या ट्रेनों से इनके गंतव्य पहुंचाने की व्यवस्था की जाए|
डॉक्टर शुक्ला ने कहा की इनके मन में नहीं है कि किसी के लिए समस्या अथवा देश के लिए घातक बने लेकिन भोजन व भूख एक ऐसी ही समस्या होती है जिस से लड़ने के लिए व्यक्ति कुछ भी करता है चाहे इसके लिए उसकी जान ही क्यों न चली जाए| समाज को समझना होगा कि इनकी जान सिर्फ इनकी नहीं है हम सब इनसे जुड़े हैं| अपनी जिंदगी की जद्दोजहद में यह कोरोनावायरस को मजबूरी व नासमझी में फैला सकते हैं लिहाजा समाज को अगर बचाना है तो हमें इनकी मदद करनी होगी हमें अगर बचना है तो इन्हें बचाना होगा. इनकी भोजन की समस्या सुलझानी होगी.
सत्तू के अलावा चना एक अच्छा विकल्प है. जऔ अथवा मूंग को भी भिगो कर इस्तेमाल किया सकता है| सीधे शब्दों में कर कहा जाए तो इन्हें प्रिपेयर्ड फूड (जैसे आलू पूरी सब्जी रोटी) के बजाय इन्हें ऐसा फूड दिया जाए जो बिना पकाए ही खाया जा सके और वह लंबे समय तक रखा भी जा सके| उन्होंने ऐसे लोगों का आवाहन करते हुए कहा अपने समाज अथवा अगल-बगल इन मजदूरों को ऐसे ही खाद्य पदार्थ देकर उनकी मदद करें ताकि वह भागदौड़ से रुक जाए|