ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट(आइपीएफ) की राष्ट्रीय कार्य समिति ने वर्तमान समय के तीन महत्वपूर्ण मुद्दों पर अच्छी चर्चा की। जिसमें बांग्लादेश में उत्पन्न राजनीतिक स्थिति, सत्ता परिवर्तन और उसकी दिशा, दूसरा देवेंद्र सिंह व अन्य बनाम पंजाब सरकार व अन्य के संदर्भ में 1 अगस्त 2024 को माननीय उच्चतम न्यायालय के आदेश व निर्णय और वक्फ कानून में संशोधन के संदर्भ में बातचीत की गई। बांग्लादेश की स्थिति और अनुसूचित जाति व जनजाति में उप वर्गीकरण पर उच्चतम न्यायालय के आदेश पर आइपीएफ के मत पर बयान व वीडियो जारी किया गया। नागरिक समाज और लोकतांत्रिक शक्तियों ने हमारे राजनीतिक मत का समर्थन किया और यह माना कि बांग्लादेश में हुए परिवर्तन को समग्रता में देखा जाना चाहिए। बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के सवाल को उठाते हुए भी यह माना गया कि जो ताकतें इस राजनीतिक बदलाव के बारे में ढेर सारी गलत बयानी कर रही हैं और मुद्दे का सांप्रदायिकरण कर रही हैं उनसे सचेत रहने की जरूरत है। भारत सरकार से भी अपेक्षा की गई कि वह दोनों संप्रभु राष्ट्रों के बीच बराबरी और आपसी समझदारी का रिश्ता बनाए और दोनों देशों की जनता के बीच रिश्तों को मजबूत किया जाए। साथ ही भारत सरकार को दक्षिण एशियाई सहयोग संगठन (सार्क) को मजबूत करने की दिशा में भी कार्रवाई करना चाहिए।

अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति में उप वर्गीकरण करने के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बारे में भी यह कहा गया कि उसकी मंशा पर ऊर्जा केंद्रित करने की जगह यह देखा जाना चाहिए कि समाज के उपेक्षित इन तबकों को भौतिक और शैक्षणिक रूप से कैसे सबल बनाया जाए। जिससे कि वह अपने दिए हुए कोटे को भर सकें। यह दुखद लेकिन सच है कि अभी तक अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए जो पद आरक्षित हैं वह भी पूरे भरे नहीं जाते। उन पदों को भरा जाए और अगर नहीं भी भरा जाता तो उसे अनुसूचित जाति व जनजाति के कोटे के बाहर कतई ना लाया जाए। हर हाल में इन्हीं तबकों से इन पदों को भरा जाना सुनिश्चित किया जाए। यह भी नोट किया गया कि बेहतर होता कि सुप्रीम कोर्ट इस सवाल पर गौर करता और उचित निर्णय लेता। बहरहाल आइपीएफ का मत है कि इन प्रश्नों पर संसद में अभी तक बात हो जानी चाहिए थी और इस बार जो जल्दबाजी में मोदी नेतृत्व की केंद्र सरकार ने संसद के सत्र को स्थगित कर दिया उसकी भी आलोचना की गई। इस पर सभी राजनीतिक दलों से आइपीएफ ने अनुरोध किया कि वह देश में माहौल और दबाव बनाए कि संसद का विशेष सत्र बुलाया जाए और संविधान में दिए गए इन मूलभूत सवालों पर सकारात्मक कार्रवाई और चर्चा हो तथा ठोस निर्णय लिए जाएं।

तीसरे मुद्दा वक्फ कानून 1995 में भारत सरकार द्वारा ले आए संशोधन पर चर्चा की गई। यह नोट किया गया कि केंद्र की सरकार द्वारा सुधार के नाम पर लाए गए संशोधन मूलतः नागरिकों के अधिकारों की कटौती और सांप्रदायिकरण के लिए ही होते हैं। ताजा उदाहरण के तौर पर लेबर कोड के जरिए कानून के सरलीकरण के नाम पर जो सैकड़ो वर्षों में अपने संघर्षों से मजदूरों ने अधिकार हासिल किए थे उन्हें खत्म किया जा रहा है। जिसका परिणाम है कि कमोवेश सभी राज्य सरकारों ने मजदूरों के काम के 8 घंटे की जगह 12 घंटे कर दिए हैं। इसी तरह से अच्छे शब्दों के जरिए किए गए जितने भी संशोधन किए गए हैं वह परिणामत: जन विरोधी रहे हैं। वक्फ कानून में बदलाव भी इसका अपवाद नहीं है। इस संशोधन के जरिए वक्फ कानून 1995 को नया नाम संयुक्त वक्फ प्रबंधन, सशक्तिकरण, दक्षता और विकास अधिनियम दिया गया है। इसका जो सबसे खतरनाक पहलू है वह पूरे मुद्दे का सांप्रदायिकरण करना है। भाजपा-आरएसएस और उससे जुड़े कथित बौद्धिक प्रकोष्ठ और वकीलों की एक जमात द्वारा यह प्रचार किया गया कि मानो वक्फ कानून और बोर्ड देश के कानून के ऊपर है। यह बताया गया कि वक्फ बोर्ड चाहे तो किसी भी जमीन, स्थल, धरोहर को अपनी संपत्ति घोषित कर सकता है और उसके विरुद्ध आप किसी सिविल कोर्ट में भी जा नहीं सकते हैं। यह सरासर समाज के विभाजन और भाजपा की राजनीति को परवान चढ़ाने के लिए बोला गया झूठ है। यह भी बताया गया कि रक्षा और रेल के बाद इस देश में सबसे अधिक जमीन लगभग साढ़े 8 लाख एकड़ वक्फ बोर्ड के कब्जे में है। सहज समाज अचंभित हो गया और यह महसूस करने लगा कि कोई संस्था कैसे देश के कानून के ऊपर हो सकती है। आरएसएस-बीजेपी के प्रचार तंत्र के इस भ्रम को फैलाने में कुछ एक मुस्लिम संगठनों ने भी भूमिका निभाई। हालांकि बहुत सारे मुस्लिम बुद्धिजीवी और संगठन के लोगों ने वास्तविक स्थिति से आम लोगों को वाकिफ कराया फिर भी उनकी पहुंच बेहद सीमित ही रही है। आइपीएफ यह महसूस करता है कि यह महज मुस्लिम अधिकारों का सवाल नहीं है। देश में कोई भी संस्था सिविल कानून के ऊपर नहीं है, इस पर जोर देने की जगह विपक्षी दलों ने इसे महज मुस्लिम अधिकारों के ऊपर हमले के रूप में ही चिन्हित किया। विपक्ष के इन राजनीतिक दलों ने पूरे मुद्दे को संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) में भेज कर अपने काम की इति श्री समझ ली। लेकिन बड़ा काम समाज के सभी तबकों को इससे वाकिफ कराना है कि यह भाजपा के झूठ अभियान का हिस्सा है जिससे उनकी अधिनायकवादी राजनीति फल फूल सके और उसके लगातार घटते जनाधार को वह बचा सके।

तथ्य यह है कि वक्फ देने की परंपरा हमारे देश में सैकड़ो साल पुरानी है और निजी लाभ के बजाए समाज की भलाई के लिए जैसे स्कूल, अस्पताल और अन्य सामाजिक कल्याणकारी कार्यों के लिए लोगों ने अपनी जमीन और संपत्ति दान की है। मुसलमानों के अलावा हिंदुओं ने भी वक्फ के लिए दान दिए हैं। सभी लोग जानते हैं कि इस वक्फ में मुसलमान की मस्जिद, ईदगाह, दरगाह और दफ्न के लिए कब्रिस्तान भी आते हैं। इन संपत्तियों की तुलना रक्षा और रेल की जमीन से करना परले दर्जे की धृष्टता है और लोगों की सांप्रदायिक आधार पर गोलबंदी करना इसका मकसद है। आइपीएफ यह मानता है कि वक्फ के नियमों में बदलाव के लिए जो कानून लाया गया है उसका भी मकसद राजनीतिक दांव पेंच है। जैसे यह कहना कि अब जिलाधिकारी वक्फ की जमीनों पर अंतिम फैसला लेगा। इसके जरिए सिविल कोर्ट की जगह जिलाधिकारी के न्यायिक कार्य को और बढ़ा देने से लोगों के साथ न्याय नहीं होगा। केवल वक्फ के ट्रिब्यूनल नहीं ढेर सारे ट्रिब्यूनल है जहां विभिन्न विभागों के केस सीधे तौर पर जाते हैं। कानून का कोई भी जानकार और मुकदमा लड़ने वाला इससे भली भांति अवगत है। यह भी बता दें कि जमीन की देखरेख और कौन जमीन वक्फ की है, इसके लिए राज्य सरकारें सर्वे कमिश्नर नियुक्त करती हैं जो फैसला लेने के लिए अधिकृत है। इनकी रिपोर्ट पर ही राज्यों में वक्फ की जमीनों का गजट जारी किया जाता है। वक्फ बोर्ड में भी राज्य सरकारों के बड़े अधिकारी ही भेजे जाते हैं। कौन अधिकारी हिंदू है और कौन मुसलमान है इस आधार पर विभाजन करना संविधान की व्यवस्था और नागरिक मूल्य के विरुद्ध है। केंद्र में वक्फ की कौंसिल बनती है उसमें केंद्र सरकार का वक्फ से संबंधित कैबिनेट मंत्री होता है जो इस कौंसिल का पदेन अध्यक्ष होता है।

बहरहाल आइपीएफ का मत है कि यह कानूनी संशोधन नहीं अधिनायकवादी राजनीति का हिस्सा है। इसके कानूनी प्रावधानों के बारे में और पूरी वक्फ संबंधी व्यवस्था जानने के लिए आइपीएफ आम नागरिकों से अपील करता है कि कानून के जानकार लोगों से वह जानकारी लें और भाजपा के झूठ के अभियान के विरुद्ध खड़े हों।