इमाम हुसैन किसी मिल्लत, मज़हब या मुल्क की जागीर नहीं
हुसैन से मिली इंसानियत को ऐसी हयात,
यज़ीद आते रहे पर उसे मिटा न सके।
आज मुहर्रम की सातवीं तारीख़ है। आज ही के दिन से रसूल ख़ुदा मोहम्मद मुस्ताफ़ा (स) के निवासे हज़रत इमाम हुसैन (अ स) और उनके बच्चों पर मुसलमानों ( में उन ज़ालिमोंको मुसलमान इसलिए कह रहा हूँ कि आज भी बहुत से मुसलमान उन्हें न सिर्फ़ मुसलमान बल्कि अपना बुज़ुर्ग मानते हैं ) ने पानी बंद कर दिया था। थोड़ी दूर पर दरियाए फ़रात की एक नहर अलक़मा बह रही थी जिस पर चार हज़ार सिपाहियों का पहरा लगा दिया गया था। नहर से कोई भी आदमी या जानवर पानी पी सकता था मगर रसूल के घराने और उनके साथियों के लिए पानी लेने पर पाबन्दी थी। यह एक खुली दहशतगर्दी का बुज़दिलाना मुज़ाहरा ( प्रदर्शन ) था। दुनियां के किसी भी हिस्से में पानी ज़रुरी होती है। जब क़ाफ़िले चलते थे तो वह वहीं रुकते थे जहां पानी होता था। इतिहास बताता है कि, संसार की सभी सभ्यताएं पानी के किनारे ही पनपी हैं। पानी जो काम करता है वह और कोई भी चीज़ नही कर सकती , प्यास फ़ितरी अमल है जो हर किसी को पानी पीने से ही सुकून देती है, इसी ये इमाम हुसैन ने अपने ख़ैमे नहर के किनारे लगाए थे, जिसे चार मोहर्रम को ज़बरदस्ती दूर कर दिए गए थे। इराक के तपते बियाबान में रसूल के ख़ानदान का क्या हाल रहा होगा सोंचिये। मगर मुसलमान यह ज़ालिमाना और ग़ैर इंसानी काम कर गए। यह हरबा यज़ीद बिन मुआविया की ईजाद नहीं था, जब उसके बुज़ुर्ग मक्का से चल कर मदीना में रसूल से लड़ने आये थे तो उस के बाप के नाना अतबा ने बद्र के मुक़ाम पर पानी पर क़ब्ज़ा कर के मुसलमानों पर पानी बंद किया था, रसूल के हुक्म से हज़रत अली (अ स ) ने उस पहरे को तोड़ दिया था, रसूल ने फ़रमाया पानी अल्लाह की आम न्यमत है इसको कोई भी पी और इस्तेमाल कर सकता है चाहे वह हमारा साथी हो या दुश्मन। रसूल ने बद्र के मैदान से इंसानियत का पैग़ाम दिया। काफ़ी दिनों बाद जब सिफ़्फ़ीन में हज़रत अली (अ स) से यज़ीद का बाप मुआविया बिन अबू सुफ़ियान लड़ने के लिए आया तो उन्होंने भी मौला अली के साथियों पर फ़रात के घाट पर पहरा बैठा कर पानी बंद कर दिया, जब मौला अली के हुक्म से मालिक अशतर ने पहरा हटाया तो मौला अली ने वही कहा जो रसूल ने फ़रमाया था, पानी अल्लाह की आम न्यमत है और इस के इस्तेमाल का सभी को हक़ है। करबला में भी यज़ीद ने वही किया जो उसके बाप दादा कर चुके थे। बद्र में यह हरकत करने वाले मुसलमान नहीं थे मगर सिफ़्फ़ीन और करबला में सभी मुसलमान थे। इस बात को हर कोई आसानी से समझ सकता है कि हालात की बिना पर चोला ओढ़ लेना इस्लाम की पैरवी नहीं होती बल्कि, इस्लाम किरदार साज़ी का नाम है। मुसलमान वही होगा जो इस्लामी उसूलों का पाबंद होगा । यहां साफ़ दिखता है कि बहुत से लोग सिर्फ़ नाम के मुसलमान थे मगर उनके किरदार उन्हीं पस्तियों के दलदल में धंसे हुए था जहाँ उनके बुज़ुर्ग धंसे थे।
एक सवाल किसी के भी ज़ेहन में आ सकता है कि वह ऐसा क्यों कर रहे थे, क्या रसूल के घर वाले इस्लाम को बदल रहे थे, या फिर मुसलमान रसूल के निवासे से ज़्यादा इस्लाम समझ रहे थे, क्या मुसलमान इमाम हुसैन से इस्लाम को बचाने के लिए लड़ रहे थे, आख़िर मुसलमान किस मक़सद से रसूल के घराने का खून बहाने पर इकठ्ठा हुए थे? नहीं,
दरअसल कबीलों में बंटे अरब समाज ने हालात के बदलते रुख़ के चलते अपने को मुसलमान ज़ाहिर कर दिया था, कुछ ही ऐसे थे जो सही मानी में इस्लाम के पैरोकार थे, जो दुनियावी नुक़्तये नज़र से बड़े क़द के थे उन्होंने अपने व्यापार को बढाने के लिए यह चोगा चढ़ा लिया था मगर, व्यापर का वही तरीक़ा क़ायम रखा जो इस्लामी नहीं था। और आज भी कमो बेश वही है। जो हुकूमत के शैदाई थे उन्होंने ने हुकूमत की लालच में अपना रंग बदल लिया था न कि इस्लाम की मोहब्बत में। इस्लाम इंसानी उसूलों की बात करता है जबकि उन्होंने ने सत्ता के लिए उसे रौंदना शुरू किया, और रसूल के बाद कुछ ही दिनों में वह तस्वीर सामने आ गई जो उनके दिलों में थी। रसूल और इस्लाम के उसूलों से बार बार लड़ने वाले इकठ्ठा होने लगे और कुछ ही सालों में कुनबा परवरी के चलते वह बदकार, अवाम पर मुसल्लित हो गए जो मस्जिदों को सैरो तफ़रीह की जगह में बदलने लगे, किसी ने अगर उनकी बदकारियो पर एतराज़ किया तो उसे सरे आम क़त्ल करने लगे और देखते देखते शाम ( सीरिया ) में इस्लाम के नाम पर तख़्तो ताज के साथ बादशाहत क़ायम कर उनको मिटाने की कोशिश शुरू हो गई जो रसूल, रिसालत और इस्लाम के मुहाफ़िज़ थे।
कर्बला में यह खुल कर सामने आ गया। इस्लाम को मिटाने वाले इस्लाम के मुहाफिज़ों से दरिन्दगी को इस्लाम मनवाने के लिए दबाव डालने लगे।
इस्लाम हक़ और इंसानियत को बचाने के लिए क़ुरबानी की तालीम देता है न कि बेगुनाहों के ख़ून बहाने की। मगर करबला में मुसलमान वही कर रहे थे जिस से मुसलमान को रोका गया है।
बेशक इमाम हुसैन 72 कुर्बानियों के साथ इस्लाम की कश्ती को उस भंवर से निकाल लाये जो मुसलमानों ने बनाई थी, आज कोई भी यज़ीद को अपना नहीं कहता क्योंकि यज़ीद उस बुराई का नाम है जो उसकी रगों में उसके बुज़ुर्गों से आया था, इमाम हुसैन की रगों में रसूले पाक का लहू था जो सच्चाई और इंसानियत के लिए ज़मीन को अपने ख़ून से सुर्ख़ तो कर सकता था मगर बुराई के आगे कभी नहीं झुक सकता। आज भी दो तरह के जो मुसलमान दिख रहे हैं सब करबला के आईने की तस्वीरें हैं। एक जो इस्लाम के नाम पर दहशतगर्दी फैला रहे हैं वह यज़ीदी हैं और जो ज़ुल्म सह रहे हैं या उस ज़ुल्म के ख़िलाफ़ खड़े हैं वह सब हुसैनी हैं।
इमाम हुसैन किसी मिल्लत, मज़हब या मुल्क की जागीर नहीं हैं, जो भी इंसानियत परस्त है और दहशत गर्दी के ख़िलाफ़ है वह हुसैनी है और जो दहशतगर्दी को पसंद करता है वह यज़ीदी है,लानती है।
मेहदी अब्बास रिज़वी