आईसी 814 : सवालों को दबाने की कोशिश
(आलेख : सर्वमित्रा सुरजन)
आईसी 814 उस विमान का नाम है, जिसे 24 दिसंबर 1999 को काठमांडू से दिल्ली आते वक्त अगवा कर लिया गया था। पत्रकार श्रींजॉय चौधरी और आईसी-814 के कैप्टन देवी शरण की लिखी किताब ‘फ्लाइट इन टू फियर : द कैप्टन स्टोरी’ पर अनुभव सिन्हा ने आईसी 814 नाम से ही सीरीज़ बनाई है। इस सीरीज़ में वास्तविक घटनाओं को ही दिखाया गया है। काठमांडू से भारतीय एजेंट द्वारा दी गई चेतावनी की अनदेखी से लेकर विमान के हाईजैक होने और सात दिन बाद अफगानिस्तान के कंधार में तीन दुर्दांत आतंकवादियों मौलाना मसूद अज़हर, अहमद उमर सईद शेख और मुश्ताक अहमद ज़रगर की रिहाई तक की सारी घटनाओं को इस सीरीज़ में पेश किया गया है।
काठमांडू से निकला जहाज ईंधन न होने के कारण अमृतसर में उतारा गया, फिर लाहौर और दुबई होते हुए आखिर में कंधार पहुंचा और इन सात दिनों तक जहाज में सवार आम यात्रियों की जिंदगी पूरी तरह से अपहरणकर्ताओं की दया पर ही रही। एक यात्री की मौत के अलावा बाकी सारे यात्रियों को विमान के चालकदल समेत आखिर में छुड़ा लिया गया, लेकिन इसकी भारी कीमत देश ने चुकाई है। क्योंकि जिन तीन आतंकवादियों को कांग्रेस के शासनकाल में पकड़ा गया था, उन्हें भाजपा की अटलबिहारी वाजपेयी सरकार ने छोड़ा और उसके बाद देश की संसद पर हमले समेत कई और आतंकी घटनाएं हुईं। यह सब किसी उपन्यास का प्लॉट या फिल्म की कहानी होती, तो पहले ही दिन आठ-दस कमांडो जांबाज़ी दिखाते और सब चंगा सी हो जाता। जितने देर विमान बंधक रहता, उतनी देर प्रधानमंत्री अपने दफ्तर में सारे दल-बल के साथ गहन चिंतन में डूबे नजर आते, उनके सलाहकार और अधिकारी देशप्रेम को ऊपर रखते हुए किसी प्रोटोकॉल की परवाह नहीं करते और सैन्य जवानों की काबिलियत पर भरोसा करते हुए उन्हें खुली छूट दे दी जाती कि जैसे भी हो, चाहे भारत की जमीन पर या विदेशी जमीन पर, अपहर्ताओं को मार गिराओ और बंधकों को छुड़ा दो। लेकिन अफसोस कि हकीकत इससे काफी अलग रही।
हकीकत यह थी कि विमान अमृतसर में जब थोड़ी देर रुका, तब भी भारतीय कमांडो कुछ नहीं कर पाए। क्यों नहीं कर पाए, यही सबसे बड़ा सवाल है। इस सीरीज़ में इसी सवाल से एक बेचैनी उपजती है, जो सीधे दर्शकों तक पहुंचती है। देश के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, लौहपुरुष कहे जाने वाले गृहमंत्री लालकृष्ण आडवानी, पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल इन सब की भूमिकाओं और प्राथमिकताओं पर सवाल उठते हैं। सीरीज़ में जिस तरह नौकरशाही को जनता के सरोकारों से बिल्कुल कटा हुआ दिखाया गया है, वह रवैया भी कहीं न कहीं बेचैन करता है। यह रवैया सही नहीं है, लेकिन सच के काफी करीब है। अनुभव सिन्हा ने एक वरिष्ठ अधिकारी के किरदार से “टू मच डेमोक्रेसी” का संवाद भी कहलवाया है, जो आज के दौर की भाजपा का है, लेकिन भाजपा के पहले शासनकाल में भी शायद यही देश की हकीकत थी।
आईसी 814 सीरीज़ ने वाजपेयी शासनकाल की एक बड़ी नाकामी को जनता को याद दिला दिया है। शाइनिंग इंडिया जैसे नारों के जरिए तो भाजपा की कोशिश यही रही कि कारगिल से लेकर कंधार हाईजैक और संसद पर हमले जैसी तमाम घटनाओं को जनता बुरे ख्वाब की तरह भूल जाए, लेकिन 2004 के चुनाव परिणामों ने बता दिया कि जनता ने इन घटनाओं को याद रखा। हालांकि 2014 में फिर से भाजपा आई और तब से अब तक फिर वही कोशिश शुरु हो गई है। पुलवामा की घटना को 2019 के चुनाव में नरेन्द्र मोदी ने बखूबी इस्तेमाल कर लिया। लेकिन अभी आईसी 814 सीरीज़ को देखकर लगा कि इतने बरसों में कुछ भी नहीं बदला है। तब भी घटना के फौरन बाद प्रधानमंत्री से बात करने की कोशिश होती रही। इतना बड़ा संकट आने के बाद भी देश के मुखिया से संपर्क न हो पाना, विडंबना है या कुछ और, ये सोचना होगा।
लेकिन 14 फरवरी 2019 को भी तो ऐसा ही हुआ था। पुलवामा में दोपहर 3 बजकर 10 मिनट पर सैनिकों को ले जा रही बस से विस्फोटक भरी गाड़ी टकराती है औरउस वक्त प्रधानमंत्री जिम कार्बेट के जंगलों में ‘मैन वर्सेस वाइल्ड’ की शूटिंग में व्यस्त थे। शाम सात बजे वे वहां से बाहर निकले। इस बीच 5 बजकर 10 मिनट पर रुद्रपुर में भाजपा के कार्यक्रम को उन्होंने फोन से संबोधित किया। उस भाषण में उन्होंने पुलवामा हमले का कोई उल्लेख नहीं किया। तो क्या श्री मोदी को पुलवामा हमले की जानकारी नहीं थी, या उन्होंने इस बारे में इसलिए नहीं बोला, क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं विपक्ष इसे मुद्दा न बना ले कि इतना बड़ा हमला होने के बावजूद प्रधानमंत्री डिस्कवरी क्रू के साथ समय बिता रहे थे?
पुलवामा की घटना को पांच साल से ऊपर हो गए हैं, इस बीच कई और गंभीर सवाल इस हमले को लेकर उठे, लेकिन राष्ट्रवाद के नाम पर सब दबा दिए गए। भाजपा तो अब तीसरी बार सत्ता में आ गई है, लेकिन अतीत के कुछ सवाल अब भी उसका पीछा नहीं छोड़ रहे हैं और इसलिए उन सवालों से ध्यान भटकाने की कोशिश की जा रही है। जैसे आईसी 814 में अपहृताओं के नामों में भोला और शंकर जैसे नाम क्यों शामिल किए गए, इसे लेकर नेटफ्लिक्स को ही घेर लिया गया। अब नेटफ्लिक्स ने स्पष्ट कर दिया है कि अपहृताओं के असली नाम भी दिखाए जाएंगे। लेकिन इस हाईजैक की एक भुक्तभोगी ने भी बताया है कि दो अपहृताओं को भोला और शंकर के नाम से बुलाया जा रहा था। उन्होंने ये भी कहा है कि सीरीज में विमान के भीतर का जो कुछ दिखाया गया है, उस वक्त सब वैसा ही घटा था, इसमें कोई अतिरेक नहीं बरता गया है।
लेकिन फिर भी भाजपा समर्थकों और भक्त पत्रकारों द्वारा अनुभव सिन्हा को निशाने पर लेने का सिलसिला शुरु हो गया है। एक भयावह घटना को हिंदू-मुसलमान बनाकर पेश करने की कोशिश शुरु हो गई है। अनुभव सिन्हा में स्वघोषित राष्ट्रवादियों, राष्ट्रप्रेमियों, भारत मां के सपूतों, हिंदुत्व के रक्षकों को देश का दुश्मन, हिंदुत्व का शत्रु, वामपंथी नजर आ रहा है। और ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। पहले भी अनुभव सिन्हा की फिल्में विवादों में आ चुकी हैं। अनुभव सिन्हा की आर्टिकल 15, भीड़, मुल्क और थप्पड़ जैसी फिल्में तो ऐसी हैं, जिनसे कई लोगों की दुखती रग पर हाथ पड़ जाता है।
सोशल मीडिया के प्रचार तंत्र के जरिए भाजपा को देश की सबसे महान पार्टी, नरेन्द्र मोदी को अवतरित नायक और भाजपा के शासन को असली आजादी का जो मिथ गढ़ा गया है, वो सब ऐसी फिल्मों से भरभराकर गिरने लगता है। अनुभव सिन्हा की तमाम फिल्मों की खासियत यही है कि वे दर्शकों पर कोई विचार थोपते नहीं हैं, बल्कि उसे मंथन करने पर मजबूर कर देते हैं। जबकि मौजूदा शासक यही चाहते हैं कि हिंदुस्तान की जनता विचार-विमर्श से दूर रहे, किसी भी मुद्दे पर अपनी सहज बुद्धि का इस्तेमाल न करे, केवल वही देखे और समझे, जो समाचार चैनलों के जरिए उसे समझाया जा रहा है।
चैनल भी दर्शकों के दिमाग पर कब्जा करने में पूरी मेहनत कर रहे हैं। हाल ही में उप्र में आदमखोर भेड़िये को पकड़ने की खबर एक रिपोर्टर ने खुद को जाल में फंसा कर की, इससे पहले युद्ध या बाढ़ जैसी आपात खबरों को स्टूडियो में इसी तरह माहौल बनाकर परोसा जा चुका है। दरअसल इस वक्त मीडिया घराने जिन पूंजीपतियों की पूंजी से संचालित हो रहे हैं, उनके हित साधना सरकार की जिम्मेदारी है। इसलिए पूंजीपति, सरकार, मीडिया इन सबके गठजोड़ से देश चल रहा है।
इस व्यवस्था में कोई रचना अगर खलल पैदा करती है, दर्शकों को सवाल करने पर मजबूर करती है, भाजपा के शासन की नाकामी को सामने लाती है, तो जाहिर है उस रचना को देशविरोधी साबित करने की कोशिश की जाएगी। आईसी 814 के साथ इस समय यही कोशिश चल रही है। देखना होगा कि जनता इसमें किस तरह अपने विवेक का इस्तेमाल करती है।
(लेखिका ‘देशबंधु’ समूह से जुड़ी पत्रकार हैं।)