(आलेख : राजेंद्र शर्मा)

उत्तर प्रदेश समेत, देश के विभिन्न राज्यों में और खासतौर पर भाजपा-शासित राज्यों में, ”बुलडोजर (अ)न्याय” की बढ़ती प्रवृत्ति पर, सुप्रीम कोर्ट की हाल की सख्त टिप्पणियों ने अंकुश लगाने का काम अवश्य किया है। देश की सबसे ऊंची अदालत ने दो-टूक शब्दों में इस सिद्घांत का एलान किया है कि “किसी आरोपी तो क्या किसी दोष-सिद्घ अपराधी के भी घर को, समुचित कानूनी/न्यायिक प्रक्रिया के बिना नहीं गिराया जा सकता है।” जस्टिस बीआर गवई तथा के वी विश्वनाथन की पीठ ने, जमीयत-उल-उलेमा-ए-हिंद तथा कुछ अन्य संगठनों की, राज्य सरकारों की बढ़ती बुलडोजर कार्रवाइयों के खिलाफ याचिकाओं पर विचार के क्रम में उक्त तीखी टिप्पणियां की हैं। शीर्ष अदालत ने इस सिलसिले में पूरे देश के लिए एक समान दिशा-निर्देश जारी करने की मंशा जतायी है और दो हफ्ते बाद ही, 17 सितंबर को आगे की सुनवाई करने का फैसला लिया है।

बहरहाल, शीर्ष अदालत की इन तीखी टिप्पणियों के बावजूद, देश में ”बुलडोजर न्याय” के बढ़ते कदमों के रुकने की बहुत उम्मीद नहीं बंधती है। इसका सबसे बड़ा कारण तो ”बुलडोजर न्याय” के नाम पर इस बढ़ते अन्याय को बढ़ावा देने का वर्तमान शासन का रुख ही है। याद रहे कि इस बुलडोजर अन्याय का मुद्दा कोई पहली बार शीर्ष अदालत में नहीं पहुंंचा है। इस मुद्दे पर जब-तब हुए अदालती हस्तक्षेपों के अलावा, जिनमें दिल्ली में जहांगीरपुरी में मनमानी सांप्रदायिक कार्रवाई पर रोक लगाना भी शामिल था, जिसके आदेश के आधार पर वरिष्ठ सीपीआई (एम) नेता, बृंदा कारात बुलडोजर को रुकवाने के लिए उसके सामने जाकर खड़ी हो गयी थीं, 2022 में भी सुप्रीम कोर्ट ने बाकायदा इस मुद्दे पर गौर किया था। लेकिन, कुछ न्यायपालिका की ढील और कुछ मौन सहमति से, उसके बाद गुजरे समय में, बुलडोजर राज सिर्फ जारी ही नहीं रहा है, बल्कि सत्ताधारी भाजपा-शासित राज्यों में उसमें और तेजी ही आयी है।

इसी सचाई का कुछ अंदाजा सर्वोच्च न्यायालय को ताजा सुनवाई के दौरान भी मिल गया होगा। याचिकाओं के अनुसार, इस तरह के बुलडोजर राज की मुख्य आरोपी, उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से पेश हुए, भारत के एडवोकेट जनरल, तुषार मेहता ने दावा किया कि इसमें गैर-कानूनी कार्रवाई जैसा कुछ भी है ही नहीं। घर-दूकानें आदि बुलडोजरों से ध्वस्त करने में कुछ भी गलत नहीं है, क्योंकि म्युनिसिपिल कानूनों में अवैध निर्माणों के मामले में ध्वस्तीकरण का प्रावधान है। और प्राय: सभी मामलों में ध्वस्तीकरण से पहले नोटिस देने आदि की कानूनी प्रक्रियाओं का पालन किया गया है। इस तरह, सब ठीक-ठाक है और शीर्ष अदालत को हस्तक्षेप करने की कोई जरूरत ही नहीं है! लेकिन, इससे बड़ा झूठ दूसरा नहीं हो सकता है। इसीलिए, सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार के शीर्ष न्यायिक अधिकारी के इन दावों को गंभीरता से लेने से इंकार कर दिया और इस मामले में हस्तक्षेप करने का स्पष्ट इरादा जताया है।

फिर भी यह कहना पड़ेगा कि सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार के शीर्ष वकील के झूठ को आधा ही ठुकराया है या आधे ही सच को रेखांकित किया है। देश के बड़े हिस्से में इस समय कानून के न्याय की जगह बुलडोजर (अ)न्याय चल रहा होना, कानून तथा संविधान के शासन के लिए बहुत ही चिंताजनक होने के बावजूद, सिर्फ आधा ही सच है। इसी सचाई का शेष आधा भाग यह है कि यह बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक राजनीति का हथियार मात्र है। कई बार, बहुत भोलेपन में या सवा चतुराई में, कई लोग इस तरह का दिखावा करने की कोशिश करते हैं, जैसे बुलडोजर (अ)न्याय, देश में न्याय व्यवस्था की कमजोरियों की और खासतौर पर उसमें होने वाले बहुत भारी विलंब की ही प्रतिक्रिया हो। भारतीय न्याय प्रणाली में ”तारीख पर तारीख” पड़ती रहती है, खासतौर पर संपत्ति संबंधी मामलों के फैसले तक पहुंचने में दशकों लग जाते हैं, जबकि बुलडोजर तुरंत फैसला कर देता है! लेकिन, सांप्रदायिक उन्माद की धूल को हटाकर देखें तो, यह देखने में जरा भी देर नहीं लगेगी कि बुलडोजर के फैसलों का लोगों या समाज के हित के अर्थ में, न्याय से कुछ लेना-देना ही नहीं है। हां! उसका सांप्रदायिक बदले के एहसास से सब कुछ लेना-देना है।

वास्तव में यह मानना खुद को सोच-समझकर धोखा देने के सिवा और कुछ नहीं है कि इन बुलडोजर कार्रवाइयों का गलियां-सड़कें आदि चौड़ी करने या आम तौर पर शहरों-कस्बों का सुंदरीकरण करने या नागरिकों के लिए सुविधाएं बेहतर करने से कोई लेना-देना है। हमारे जैसे देश में ऐसे ध्वस्तीकरणों की नैतिकता के गंभीर सवालों को अगर हम उठाकर भी रख दें, तब भी पहले कभी शहरी ध्वस्तीकरणों की ऐसी सेकुलर भूमिका रही होगी, तो रही होगी। अब नहीं।

वर्तमान भाजपा निजाम में, खासतौर पर डबल-ट्रिपल इंजनिया सरकारों के जमाने में बुलडोलर को त्वरित ध्वस्तीकरण से आगे, त्वरित सांप्रदायिक ध्वस्तीकरण के औजार में तब्दील किया जा चुका है। इसीलिए, हैरानी की बात नहीं है कि महिलाओं के साथ बदसलूकी समेत जिस तरह के अपराधों के मुस्लिम आरोपियों के खिलाफ और कभी-कभी अवर्ण या दलित आरोपियों के भी खिलाफ तुरत-फुरत बुलडोजर सक्रिय हो जाता है, बुलडोजर की वैसी सक्रियता इन निजामों में वैसे ही अपराधों के सवर्ण हिंदू आरोपियों के खिलाफ शायद ही कभी दिखाई देता होगी। और अगर आरोपी को कहीं सत्ताधारी पार्टी का संरक्षण हासिल हो, तब तो पूरी शासन व्यवस्था उसे बचाने में या कम से कम उसके खिलाफ आरोपों को कमजोर करने में जुट जाती है। जिस उत्तर प्रदेश में महिलाओं के साथ छेड़छाड़ के मुस्लिम आरोपियों के घर पर फौरन बुलडोजर पहुंच जाता है, उसी उत्तर प्रदेश में बीएचयू की छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार के आरोपी, भाजपा के आइटी सैल के तीन पदाधिकारियों के घर पर बुलडोजर पहुंचना तो दूर, उन्हें छ:-सात महीने में जमानत देकर जेल से बाहर भी करा दिया गया है। ठीक इसी चीज ने बुलडोजर को बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक ”शक्ति” और ब्राह्मणवादी सवर्णता की शक्ति के भी प्रतीक में बदल दिया है और आदित्यनाथ जैसे शासकों को इस बुलडोजर अन्याय के साथ उनके लगाव के चलते, ”बुलडोजर बाबा” जैसे नाम दे दिए गए हैं।

2024 के आम चुनाव में लगे धक्के बाद, इस बुलडोजरवाद से पीछे हट जाने के बजाए, वर्तमान सत्ताधारी उसी रास्ते पर और तेजी से बढ़ रहे हैं। यह विडंबनापूर्ण किंतु सच है कि चुनावी धक्के से नरेंद्र मोदी के दबदबे के कमजोर नजर आने लगने से, सत्ताधारी भाजपा के मुख्यमंत्रियों के बीच, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का सबसे बड़ा चेहरा बनकर उभरने की होड़ बहुत तेज हो गयी है। और सांप्रदायिक बोली तथा सांप्रदायिक कानूनों व अन्य कदमों के ही हिस्से के तौर पर, सभी भाजपायी मुख्यमंत्री बुलडोजर राज को आगे बढ़ाने के लिए एक-दूसरे से होड़ कर रहे हैं।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के अलावा, जिन्होंने 2019 के आखिर के सीएए-विरोधी आंदोलन के समय से इस सांप्रदायिक बुलडोजर राज की शुरूआत की थी, अब असम, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, आदि राज्यों के मुख्यमंत्री भी इस होड़ में कूद चुके हैं। हैरानी की बात नहीं है कि बुलडोजर अ(न्याय) की हाल की दो चर्चित घटनाएं, जिनकी गूंज सुप्रीम कोर्ट तक सुनाई दी है, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान में ही हुई हैं। मध्य प्रदेश में छतरपुर में हुई घटना में, कथित रूप से पुलिस थाने पर पथराव के बदले की कार्रवाई में, पुलिस ने हाजी शहजाद अली के घर और परिसर को, वहां खड़ी दो एसयूवी गाड़ियों समेत, बुलडोजर से ध्वस्त ही नहीं कर दिया, उनके परिजनों को अभद्र नारे लगाते एक जुलूस में चलने के लिए भी मजबूर कर दिया गया। इसी प्रकार, राजस्थान में दो स्कूली छात्रों के बीच झगड़े में चाकूबाजी की घटना में, हिंदू छात्र के घायल हो जाने पर (बाद में उसकी मौत हो गयी), आरोपी मुस्लिम छात्र के परिवार के घर को, जहां वे वास्तव में किराएदार भर थे, बुलडोजर से पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया गया। और ये तो सिर्फ दो ताजातरीन उदाहरण हैं इस तरह के बुलडोजर (अ)न्याय के।

दुर्भाग्य से सुप्रीम कोर्ट भी इस बुलडोजर राज के सांप्रदायिक और ब्राह्मणवादी आशयों, आग्रहों, अर्थों से कतराते हुुए, इसे सिर्फ न्यायिक विचलन के मामले की तरह लेने के लिए उत्सुक नजर आता है। लेकिन, इस तरह के नजरिए से तो, सबसे नेक इरादों से भी, ज्यादा से ज्यादा इस बुलडोजर अन्याय की अतियों पर ही अंकुश लग सकता है। जाहिर है कि इस बुलडोजर अन्याय का वास्तविक इलाज तो अंतत: जनता ही, इस अन्याय को बढ़ावा देने वाली ताकतों को सत्ता से बाहर करने के जरिए करेगी। फिर भी, सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप, इस तरह के बुलडोजर अन्याय पर सवाल उठाने में मदद तो करेगा ही। यह भी इस तरह के अन्याय राज को चलाने वालों को अंतत: सत्ता से बाहर करने में मदद ही करेगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)