हिन्दी को भी चाहिए संक्रमण से मुक्ति
विनोद बंसल
किसी राष्ट्र को समझना हो तो उसकी संस्कृति को समझना आवश्यक है. उसकी संस्कृति को समझने हेतु वहां की भाषा का ज्ञान भी आवश्यक है. विश्व के लगभग सभी देशों की अपनी अपनी राजभाषाएँ हैं जिनके माध्यम उनके देशवासी परस्पर संवाद, व्यवहार, लेखन, पठन-पाठन इत्यादि कार्य करते हैं. स्वभाषा ही व्यक्ति को स्वच्छंद अभिव्यक्ति, सोचने की शक्ति, विचार, व्यवहार, शिक्षा व संस्कार प्रदान करते हुए उसके जीवन को सुखमय व समृद्ध बनाती है. हम जितना अपनी मात्र भाषा में प्रखरता व प्रामाणिकता से अपने विचारों की अभिव्यक्ति कर सकते हैं उतना किसी अन्य भाषा में नहीं. हमें गर्व है कि विश्व की सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषाओं में हिंदी का तीसरा स्थान हैं. तथा इसे बोलने वाले देश में सबसे अधिक हैं।
इतना सब कुछ होने के बावजूद भी यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारी आज तक कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हमारे संविधान के अनुच्छेद 343 (1) में यह तो कहा गया है कि भारत की राजभाषा ‘हिंदी’ और लिपि ‘देवनागरी’ है। किन्तु इसे राष्ट्र भाषा बनाए जाने के अब तक के सभी प्रयास असफल ही रहे. इसे राजभाषा का स्थान 14 सितंबर 1949 को मिला था.
यदि इसकी पृष्ठ भूमि में जाएँ तो पता चलता है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने हिंदी को जनमानस की भाषा बताते हुए 1918 के हिंदी साहित्य सम्मेलन में इसे राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही थी। जवाहरलाल नेहरू जी ने भी हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की वकालत तो की थी किन्तु उनके शासनकाल में ही हिंदी को एक ‘खिचड़ी भाषा’ के रूप में विकसित करने का अतार्किक और अवैज्ञानिक प्रयास किया गया। उनका मानना था कि हिंदी में देश की सभी भाषाओं के शब्दों को सम्मिलित कर एक ऐसी ‘खिचड़ी भाषा’ बना ली जाए जिस पर किसी को आपत्ति ना हो। उन्होंने हिंदी को ‘हिंदुस्तानी’ (हिंदी और ऊर्दू का मिश्रण) भाषा बनाने का समर्थन किया था। यह प्रयास देखने में तो उस समय अच्छा लगा, परंतु, वास्तव में यही विचार हिंदी का सर्वनाश करने वाला सिद्ध हुआ।
संयोगवश, गत कुछ माह से मुझे लगातार हिन्दी के साथ साथ रेडियो से उर्दू भाषा में भी समाचार सुनने का सौभाग्य मिला. मैंने पाया कि एक ओर जहां उर्दू के समाचारों में हिन्दी का एक शब्द भी ढूँढे नहीं सुनाई नहीं देता था तो वहीँ हिन्दी का कोई भी समाचार ऐसा नहीं था जिसमें उर्दू या अंग्रेजी भाषा की घुसपैठ ना हो. तभी मेरे मन में प्रेरणा जागी कि क्या हम अपनी राजभाषा के संक्रमण की मुक्ति हेतु कुछ नहीं कर सकते !
प्रतिवर्ष 14 सितम्बर आते ही हम हिन्दी बोलने, लिखने, कहने, सुनने, सुनाने इत्यादि के लिए बड़े बड़े प्रचार माध्यमों का प्रयोग तो करते हैं किन्तु दशकों से अपनी स्व-भाषा में हुए व्यापक संक्रमण की मुक्ति हेतु कोई विचार व्यवहार में नहीं ला पाते. ये संक्रमण हिन्दी भाषा में इतना गहराई से पैठ बिठाए हुए है कि हमें कभी पता ही नहीं चलता कि ये शब्द वास्तव में हिन्दी के नहीं हैं. महत्वपूर्ण बात यह भी है कि शब्दों के इस संक्रमणकारी जंजाल से हमारे भाषाई साहित्यकार भी अछूते नहीं रहे. और उन शब्दों को निकल कर आपको यह कहा जाए कि इनका हिन्दी समानार्थी बताओ तो आपको लगेगा कि ये तो हिन्दी के ही हैं. इन घुसपैठिए शब्दों के प्रचार प्रसार में हिंदी समाचार पत्र-पत्रिकाओं, चलचित्रों, इत्यादि साधनों का विशेष स्थान है. हिन्दी के संक्रमण मुक्ति हेतु सबसे पहले उन्हें पहचानना होगा. और उसके बाद उन्हें भगाना होगा. आज मैंने बड़े ध्यान लगा कर 227 शब्दों की एक प्रारम्भिक सूची उन उर्दू के शब्दों की बनाई जो हिन्दी की आत्मा पर सीधा प्रहार कर रहे थे. आओ! उनमें से कतिपय शब्दों पर विचार करते हैं…
विचार आया कि क्या हम अखबार को समाचार पत्र, आजादी को स्वतंत्रता, आबादी को जन-संख्या, आम को सामान्य, आराम को विश्राम, आवाज को ध्वनी, इंतजाम को प्रबंध, इंतज़ार को प्रतीक्षा, इंसान को मनुष्य, इजाज़त को आज्ञा, इवादत तो प्रार्थना, इज्जत को मान या प्रतिष्ठा, इलाके को क्षेत्र, इलाज को उपचार, इश्तिहार को विज्ञापन, इस्तीफे को त्यागपत्र, ईमानदार को निष्ठावान, उम्र को आयु, एतराज को आपत्ति, एहसान को उपकार, क़त्ल को ह्त्या, अक्ल को बुद्धि, कर्ज को ऋण, कमी को अभाव, क़रीब को समीप, क़सूर को दोष, कातिल को हत्यारा, क़ाबिल को सक्षम, कामयाब को सफल, किताब को पुस्तक, किस्मत को भाग्य, कीमत को मूल्य, क़ुदरत को प्रकृति, कोशिश को प्रयास, खतरनाक को भयानक, खराब को बुरा, खराबी को बुराई, खारिज को रद्द, ख़ूबसूरत को सुन्दर, गिरफ्तार को बंदी, गुनाह को अपराध, गुलाम को दास, जबरदस्ती को दबाव पूर्वक, ज़रूर को अवश्य, जल्दी को शीघ्र, जानवर को पशु, जिंदगी को जीवन,ज्यादा को अधिक, झूंठ को मिथ्या, तरीका को ढंग, तस्वीर को चित्र, तारीख़ को दिनांक, तेज को तीव्र,दुश्मन को शत्रु, धोखा को छल, नतीजे को परिणाम, परेशान को दुखी,फ़ीसदी को प्रतिशत, फैसले को निर्णय, बजह को कारण नहीं बोल सकते. इन सभी 227 शब्दों को मेरे ट्विटर @vinod_bansal पर या फेसबुक पर जाकर देख सकते हैं.
अब कुछ उदाहरण अंग्रेजी की घुसपैठ के.. एक व्यक्ति अपनी पत्नी से: ‘आज तो कोई ऐसा डेलिशियस फ़ूड बनाओ कि ‘मूड फ्रेश हो जाए’। महोदय आफिस पहुंचे तो बॉस का ‘स्टुपिड’ टाइप सम्बोधन। हमारी सुबह की चाय ‘बेड-टी’ तो शौचादिनिवृति ‘फ्रेश हो लो’ का सम्बोधन बन चुकी। कलेवा (नाश्ता) ब्रेकफास्ट बन गया तो दही ‘कर्ड’. अंकुरित ‘स्पराउड्स’ तो पौष्टिक दलिया ‘ओट्स’, सुबह की राम राम ‘गुड मॉर्निंग’ तो शुभरात्रि ‘गुड नाईट’ में बदल गई। नमस्कार ‘हेलो हाय’ में तो ‘अच्छा चलते हैं’ ‘बाय’ में रूपांतरित हो चुका। माता ‘मॉम’ तो पिता ‘पॉप’ हो लिए। चचेरे, ममेरे व फुफेरे सम्बंध सब ‘कजन’ बन चुके तो, गुरुजी ‘सर’ में बदल गए तथा गुरुमाता ‘मैडम’। भाई ‘ब्रदर’, बहन ‘सिस्टर’ तो दोस्त आज ‘फ्रेंड’ हैं। लेख ‘आर्टिकल’ तो कविता ‘पोएम’ निबन्ध ‘ऐसए’, पत्र ‘लेटर’, चालक ’ड्राइवर’ परिचालक ‘कंडक्टर’, वैद्य ‘डॉक्टर’ हंसी ‘लाफ्टर’, कलम ‘पेन’ पत्रिका ‘मैग्जीन’, उधार ‘क्रेडिट’ तथा भुगतान ‘पेमेंट बन गया. कुल मिला कर बात यह है कि हम चाहे हिन्दू हैं, हिंदी हैं, हिंदुस्थानी हैं किन्तु हिन्दी को नहीं बचा पाए!
आओ इस बार के हिन्दी दिवस को हम एक प्रेरणा दिवस के रूप में मनाएं. आज से ही प्रारम्भ करें कि जब भी हम हिन्दी में बोलेंगे, लिखेंगे, कहेंगे, सुनेंगे, गाएंगे, गवाएंगे तो सिर्फ हिन्दी के ही शब्दों का प्रयोग करेंगे और भाषा में हुई घुसपैठ के विरुद्ध एक अभियान छेड़ कर पहले घुसपैठियों को ठीक से पहचानेंगे, विकल्प देखेंगे और उसे पूरी तरह से संक्रमण मुक्त कर स्वभाषा के गौरव को जन जन तक पहुंचाएंगे.
हिन्दी है माथे की बिंदी, इसका मान बढ़ाएंगे.
हम सब भारतवासी मिलकर इसे समृद्ध बनाएंगे..
**लेखक विश्व हिन्दू परिषद के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं