लोक संस्कृति व्यवहार में रहे तो जिंदा रहेगी: डा.विद्याविंदु सिंह
लखनऊ: लोक संगीत और संस्कृति मात्र संग्रहालय में सहेजने की वस्तु नहीं, यह जब तक सहजता के साथ व्यवहार में रहेगी तभी तक जीवित रहेगी। इसे संरक्षित करना उस संस्कृति से जुड़े हर व्यक्ति का, समाज का, शासन व्यवस्था और यहां तक कि न्याय व्यवस्था का भी दायित्व है।
उक्त उद्गार लोक संस्कृतिविद् डा.विद्याविंदु सिंह ने यहां उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी सभागार में व्यक्त किये। यहां उनकी ‘वर्तमान में लोक संगीत की प्रासंगिकता’ विषय पर अकादमी अभिलेखागार के लिए रिकाॅर्डिंग की गई। इस संदर्भ में ज्वलंत सवालों को लेकर उनके सामने लोक कलाकार डा.शिखा भदौरिया थीं। कलाकारों का स्वागत अकादमी के सचित तरुण राज ने किया। उन्होंने कहा कि नई पीढ़ी को अपनी लोक संस्कृति और संगीत की विरासत से परिचित कराने में ऐसे गुणी विद्वानों के विचार महत्वपूर्ण और मददगार साबित होंगे। इस रिकार्डिंग का जीवंत प्रसारण अकादमी फेसबुक पेज पर भी किया गया, जहां अनेक कला प्रेमी प्रसारण से जुड़े।
डा.विद्याविंदु सिंह ने बताया कि आधुनिकता के फेर में हमारे विवाह संस्कार जैसे अनेक संस्कारों की परम्पराओं और लोक संगीत के परम्परागत स्वरूप में बहुत बदलाव आया है। इसे वास्तविक दृष्टि से देखा जाए तो समाज में जैसे परिवर्तन आया है वैसे ही लोक ने इसे ग्रहण किया है। इनमें बहुत से परिवर्तन भदेस भी हैं, क्योंकि आज का नजरिया मूलतः व्यावसायिक नजरिया है। फिल्मों और व्यावसायिक दुनिया के लिए लोक संगीत और लोक संस्कृति ‘कच्चे माल’ की तरह देखी जाती है। इसमें उनके आर्थिक हित और स्वार्थ छुपे हैं। सुधी नागरिकों, संस्कृतिकर्मी और लोक विधा के विद्वानों के लिए इसका आकलन करना जरूरी है कि ये परिवर्तन कितने ग्राह्य हैं। मेरे हिसाब से जो परिवर्तन परम्परा को ध्यान में रखते हुए सहजता के साथ हुए और जिनमें लोकधर्मिता और संवेदनात्मक पक्ष है वही ग्रहण किए जाएं। इससे परम्परा अक्षुण्ण बनी रहेगी। बाकी बहुत कुछ समय के प्रवाह में निकल जाएगा।
उन्होंने कहा कि इस कोरोना काल में हम विभिन्न जनसंचार माध्यमों के जरिए ही आपस में जुड़े रहे। इन संचार माध्यमों से भी बहुत कुछ सहेजा जा सकता है पर यह काम व्यावसायिक दृष्टि से कतई नहीं होना चाहिए। अपनी अगली पीढ़ी को हम प्रचलित कथाओं, गीतों और संस्कारों के माध्यम से सहज रूप से सिखाते, आत्मसात कराते रहे हैं, न कि उपदेश के रूप में। हमारी लचीली लोक विरासत, लोक संस्कृति का यही सबसे बड़ा गुण है। यह खुले आकाश की तरह है, मिट्टी की लोंदे की तरह है, जहां उसे मनचाहा आकार देने की अपार संभावनाएं हैं। पर यहां लचीलेपन के साथ लोकधर्मिता के कुछ बंधन भी हैं। इस सहजता, लय, स्पंदन जैसे कई बंधनों में ही लोक संगीत या कलाकार हमारी चेतना को स्पर्श करता है। उन्होंने कहा कि कथक जैसी विश्व प्रसिद्व नृत्य विधा मंदिरों की परम्पराओं से निकलकर ही शास्त्रीय बनी और फिर फैली है। फिल्मों में लोक संगीत को लोक संगीत को लेकर जो प्रयोग हो रहे हैं, वे उन्हें आधुनिक ढंग से आकर्षक बनाने और बेचने के लिए। जहां तेज गति और शोर जैसी तीव्रता जड़ी जा रही है पर लोक संगीत में आत्मीय जुड़ाव होता है, मांसल नहीं। लोक धुनें आज खत्म हो रही हैं। उन्हें तोड़-मरोड़कर पेश किया जा रहा है। दूसरी ओर विदेशी और पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित लोग उसकी चमक-दमक से ऊब रहे हैं। पाश्चात्य लोग हमारी संस्कृति की ओर लौट रहे हैं। हमारी संस्कृति में जो सरलता है, वह अन्यत्र नहीं। दूसरों को सुख पहुंचाकर सुख महसूस करना ही हमारी हमारी लोक संस्कृति है।