सहमति के रास्ते के लिए किसानों को भी दिखाना होगा लचीलापन
अशोक भाटिया
किसान आंदोलन से जुड़े मुद्दों को वार्ता के जरिए हल करने के प्रयासों को उस वक्त धक्का पहुंचा जब किसान नेताओं और सरकार के बीच 11वें दौर की बातचीत भी बिना किसी नतीजे के समाप्त हो गई। बैठक की अगली तारीख का ऐलान भी नहीं किया गया।बैठक के बाद किसान नेताओं ने कहा कि सरकार चाहती थी कि कानून में संशोधन और उनके अमल पर एक-डेढ़ वर्ष के लिए रोक लगाने संबंधी पेशकश पर चर्चा की जाए। जबकि, किसान संगठन कानूनों की वापसी पर कायम थे।किसान नेताओं के अनुसार बैठक में कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने कहा कि कृषि कानूनों में कोई कमी नहीं है। सरकार ने किसानों का सम्मान करते हुए उनके सामने पेशकश की थी। इस पर किसान संगठन फैसला नहीं कर सके। किसान संगठन आने वाले दिनों में यदि किसी निर्णय पर पहुंचते हैं तो सरकार को सूचित करें। सरकार पूरे प्रकरण पर किसान संगठनों के साथ फिर चर्चा करेगी।
भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत ने कहा कि सरकार की ओर से बैठक में कहा गया कि वार्ता का अगला दौर तभी होगा जब किसान संगठन सरकार की पेशकश स्वीकार करेंगे। टिकैत ने कहा कि 26 जनवरी को किसानों की ट्रैक्टर रैली पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार होगी। एक अन्य किसान नेता एसएस पंढ़ेर ने कहा कि कृषि मंत्री ने बैठक में किसान नेताओं को साढ़े तीन घंटे तक इंतजार कराया। उन्होंने इसे किसानों का अपमान बताया। किसान नेता ने बताया कि कृषि मंत्री ने कहा कि किसान संगठन सरकार के प्रस्तावों पर विचार करें।किसान नेताओं के अनुसार कृषि मंत्री ने कहा कि यह सरकार वार्ता संबंधी बैठकों की प्रक्रिया को समाप्त कर रही है।
उल्लेखनीय है कि पिछले करीब एक महीने के दौरान सरकार और किसान संगठनों के बीच कुछ अंतराल के बाद बातचीत होती रही है। बातचीत का पिछला दौर सबसे सकारात्मक था जब सरकार ने नए कृषि कानूनों को एक-डेढ़ साल तक स्थगित करने की पेशकश की थी। सरकार के इस प्रस्ताव को किसान नेताओं ने खारिज कर दिया था।किसान संगठनों के इस रवैये के कारण; लगता है कि सरकार का मिजाज भी कुछ सख्त हो गया है। किसान आंदोलन और राजधानी दिल्ली की घेराबंदी का मामला इस समय सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है। 26 जनवरी की प्रस्ताविक ट्रैक्टर रैली रोकने के लिए अदालत ने कोई आदेश जारी करने से इन्कार कर दिया है। हालांकि, अदालत ने दिल्ली पुलिस से कहा है कि वह कानून व्यवस्था और परिस्थितियों के आधार पर खुद फैसला कर सकती है।
वैसे स्वतन्त्र भारत में किसानों का इतना लम्बा आन्दोलन आज तक नहीं चला है जिसकी वजह से आम देशवासी चिन्तित हैं। इसके साथ बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के सहारे कृषि उपज को छोड़ देने का जो विश्लेषण कृषि वैज्ञानिक कर रहे हैं उनमें से एक वर्ग का मत है कि इससे सामान्य तौर पर कृषि उत्पादों के मूल्य में बढ़ौत्तरी होगी जिसका अन्त में भार साधारण उपभोक्ताओं पर पड़े बिना नहीं रहेगा और साथ ही कृषि की लागत में भी भारी वृद्धि होगी। क्योंकि बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में अन्ततः सभी कुछ बाजार पर उसी प्रकार छोड़ा जायेगा जिस प्रकार पेट्रोलियम उत्पादों को सरकार ने छोड़ा है, परन्तु दूसरे वर्ग का कहना है कि इस व्यवस्था में अन्ततः किसानों को ही लाभ होगा क्योंकि उनकी उपज का मूल्य बाजार की शक्तियां पूरे लागत खर्च का हिसाब-किताब निकाल कर ही तय करेंगी। इन दो घोर विरोधी मतों के बीच सरकार ने जो रुख अपनाया है वह न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली व मंडी व्यवस्था को जारी रखने के आश्वासन का उठाया। इस मामले में किसानों का कहना है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली को कानूनी जामा पहनाये और इसे किसानों का संवैधानिक अधिकार घोषित करे।
दरअसल डेढ़ साल तक नये कानूनों को बरतरफ करके जो समिति बनेगी उसमें इन सभी मुद्दों पर विचार हो सकता है जिससे आम सहमति बन सके, परन्तु 11वें दौर की वार्ता ‘टूट’ जाने से यह आशंका बढ़ गई है कि किसानों का आन्दोलन जारी रहेगा । यदि सरकार द्वारा अपने रुख में ढीलापन लाने से आम नागरिक आशान्वित हुआ है कि किसान भी इसी प्रकार लचीला पन दिखायेंगे। अतः इस मनोवैज्ञानिक स्थिति का भी विश्लेषण होना चाहिए और किसानों को यथानुरूप अपने आन्दोलन में संशोधन करते हुए आम सहमति का रास्ता खोजना चाहिए।
अशोक भाटिया
स्वतंत्र पत्रकार
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