(आलेख : राजेन्द्र शर्मा)

कहा जाता था कि भारत में ब्रिटिश हुकूमत को असली मजबूती, शीर्ष नौकरशाही के उसके ‘आइरन फ्रेम’ से मिलती थी। स्वतंत्र भारत को यह आइरन फ्रेम विरासत में मिला था और मामूली परिवर्तनों के साथ, इसने अपनी ताकत को बनाए रखा। लेकिन, अब ऐसा लगता है कि यह आइरन फ्रेम तेजी से जंग खाता जा रहा है। संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) द्वारा आईएएस, आईएफएस, आईआरएस आदि शीर्ष पद संभालने वाले कॉडर पर टिकी इस व्यवस्था की सीमाओं को लेकर कई आलोचनाएं तो पहले भी होती रही थीं। लेकिन, पिछले ही दिनों सामने आए, आईएएस ट्रेनी पूजा खेडकर के फर्जीवाड़े से, इस आइरन फ्रेम में अंदर तक जंग लग जाने से गंभीर सवाल खड़े हो गए। इन सवालों को इसकी आशंकाओं ने और भी बढ़ा दिया था कि यह धोखाधड़ी पूजा खेडकर के मामले तक सीमित नहीं लगती है और जाति से लेकर विकलांगता तक के फर्जी दावों के बल पर, पूरी व्यवस्था को ठग कर चोरी से इस आइरन फ्रेम में घुसपैठ करने वालों की संख्या बीसियों में हो सकती है। बहरहाल, ठगी के इस धक्के से यह आइरन फ्रेम संभल भी नहीं पाया था कि पिछले दरवाजे से प्रवेश या लेटरल एंट्री का, इस पूरी व्यवस्था के ही पूरी तरह से झकझोर कर रख दिए जाने का प्रसंग सामने आ गया।

यह अगर संयोग है, तब भी बहुत कुछ कहने वाला संयोग है कि स्वतंत्रता दिवस के फौरन बाद 17 अगस्त को मोदी सरकार ने पूरे 22 मंत्रालयों में संयुक्त सचिव, निदेशक तथा उप-सचिव जैसे उच्च पदों पर, पिछले दरवाजे से 45 नियुक्तियों के लिए विज्ञापन निकाला। ये नियुक्तियां हाथ के हाथ, 17 सितंबर तक हो जानी थीं। ये पद निजी क्षेत्र में सेवा का अनुभव रखने वालों के लिए सुरक्षित थे, जिनके लिए कोई सरकारी कर्मचारी एप्लाई नहीं कर सकता था। ये नियुक्तियां कांट्रैक्ट पर तीन साल के लिए होनी थीं, जिनका आगे दो साल विस्तार किया जा सकता था। हालांकि, सरकार की ओर से इन नियुक्तियों मेें पूरी पारदर्शिता का दावा करते हुए, इसकी दुहाई दी जा रही थी कि ये नियुक्तियां संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) के जरिए ही की जाएंगी, जो कि शेष उच्च प्रशासनिक कॉडर की नियुक्ति के लिए जिम्मेदार है, प्रशासनिक सेवा की सामान्य भर्ती प्रक्रिया से भिन्न, ये नियुक्तियां सिर्फ और सिर्फ साक्षात्कार के आधार पर की जा रही थीं।

योग्यता के नाम पर सिर्फ कथित ‘काम का अनुभव’ पर सारा जोर रहने और सिर्फ साक्षात्कार पर आधारित चयन प्रक्रिया को देखते हुए, अगर व्यापक रूप से इसकी आशंकाएं जतायी जा रही थीं, तो यह हैरानी की बात नहीं है कि यह सत्ताधारियों के पसंदीदा लोगों की पिछले दरवाजे से उच्च नौकरशाही में घुसपैठ का जरिया साबित होगा। वर्तमान शासन के संदर्भ में इसे सत्ताधारी पार्टी के मातृ संगठन, आरएसएस के लोगों के नौकरशाही में प्रवेश के चोर दरवाजा खोले जाने के रूप में देखा जा रहा है। स्वाभाविक रूप से इसे इस तथ्य से भी जोड़कर देखा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी के तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के चंद रोज बाद ही, सरकारी कर्मचारियों के आरएसएस की गतिविधियों में शामिल होने पर लगी लगभग पांच दशक पुरानी पाबंदी को हटा लिया गया था। यानी इन दो कदमों का संयुक्त प्रभाव यह होना था कि शीर्ष नौकरशाही पर आरएसएस का शिकंजा और कस जाने वाला था।

आरएसएस का शिकंजा कसना, सिर्फ नौकरशाही में एक संगठन का प्रभाव बढ़ने का ही मामला नहीं है। यह समूची जनतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ जाता है, क्योंकि जनतांत्रिक व्यवस्था, सत्ताधारियों और शासन में एक भेद बने रहने का तकाजा करती है। जनतांत्रिक व्यवस्था में सत्ताधारी बदलते हैं, जबकि शासन से निरंतरता की अपेक्षा की जाती है और उससे सत्ताधारियों की मनमर्जी से नहीं बल्कि देश के कानून व संविधान से ही संचालित होने की उम्मीद की जाती है। हालांकि हमारे देश के आज के हालात के संदर्भ में यह बहुत दूर की कल्पना लगती है, फिर भी जनतंत्र उच्च नौकरशाही से इसकी अपेक्षा करता है कि देश के कानून तथा संविधान के तकाजों के आधार पर उसे, सत्ताधारियों के अवैध आदेशों का पालन करने से इंकार करने की स्थिति में होना चाहिए। उच्च नौकरशाही के माध्यम से शासन तंत्र पर आरएसएस का बढ़ता हुआ कब्जा, न सिर्फ उक्त अपेक्षाओं को नकारता है, बल्कि जनतांत्रिक व्यवस्था में सत्ताधारियों के बदलने की स्थिति में, नयी राजनीतिक सत्ता के साथ शासन तंत्र के साथ अनुचित टकराव की स्थितियां भी पैदा कर सकता है। राजधानी-राज्य दिल्ली में निर्वाचित सरकार और नौकरशाही के बीच केंद्र सरकार द्वारा भड़काया गया अंतहीन द्वंद्व, इन खतरों की वास्तविकता को रेखांकित कर देता है।

बहरहाल, यह तो आइरन फ्रेम के भीतर से जंग खाया बनाए जाने का एक खास राजनीतिक पहलू भर है। इतना ही महत्वपूर्ण है, इस तरह की पिछले दरवाजे से भर्ती के जरिए, शासन तंत्र में निजी क्षेत्र की बढ़ती घुसपैठ के जरिए, शासन तंत्र की भूमिका के चरित्र का ही बदला जाना। जनतंत्र में शासन तंत्र से, समाज में विभिन्न वर्गों तथा उनके दावों से ऊपर, एक पंच की भूमिका अदा करने की अपेक्षा की जाती है। और जनतंत्र चूंकि जनता के बहुमत का प्रतिनिधित्व करने का दावा करता है, इस पंच से जनता के बहुमत यानी वंचितों के पक्ष में झुका हुआ होने की ही अपेक्षा की जाती है। लेकिन, पिछले दरवाजे से निजी क्षेत्र के खिलाड़ियों का शासन तंत्र में बढ़ता दखल, शासन की भूमिका के इस चरित्र को, निजी क्षेत्र के पक्ष में ज्यादा से ज्यादा झुकाने का ही काम करता है। इस लिहाज से, नौकरशाही में इन पिछले दरवाजे से भर्तियों की ‘अग्निवीरों’ से तुलना, बिल्कुल ही अनुपयुक्त है। निजी क्षेत्र से आने वाले ये अफसरान, शासन में रहते हुए सहज रूप से निजी क्षेत्र के स्वार्थों को आगे तो बढ़ा ही रहे होंगे, इसके साथ ही उनका तीन या पांच साल की अवधि के लिए ही शासन को उपलब्ध होना, यही सुनिश्चित करेगा कि इस अवधि में भी वे, आगे के लिए निजी क्षेत्र में अपनी जगह सुरक्षित रखने की गरज से, इजारेदार पूंजी की सेवा करने का ही खास ध्यान रखें। यह राजनीतिक सत्ता को ही नहीं, समग्रता में शासन तंत्र को ही इजारेदार पूंजी के हक में झुकाने का काम करेगा।

हैरानी की बात नहीं है कि उच्च नौकरशाही में पिछले दरवाजे से प्रवेश का यह आइडिया भी मोदी सरकार ने, अपनी पूर्ववर्ती यूपीए सरकार से ही उधार लिया है। वास्तव में नव-उदारवादी व्यवस्था के आने के बाद से ही, जो शासन तथा शासन तंत्र पर, आम जनता के दावे को खत्म करना चाहती है और इजारेदारों के दावे को ही मजबूत करना चाहती है, इसकी मांग की जाती रही है कि निजी क्षेत्र को नौकरशाही को ‘नये संस्कार’ देने का मौका दिया जाना चाहिए। इसी के हिस्से के तौर पर शीर्ष नौकरशाही के नये जमाने की जरूरतों के अनुरूप न होने की आलोचनाएं की जाती रही हैं। नौकरशाहों के संदर्भ में कथित ‘डोमेन एक्सपर्ट्स’ बनाम ‘जनरलिस्ट’ का द्वैध खड़ा कर, निजी क्षेत्र से आने वालों को श्रेष्ठतर ठहराने की कोशिश की जाती है। लेकिन, सच्चाई यह है कि अगर डोमेन एक्सपर्ट्स को सीमित क्षेत्र विशेष की विशेषज्ञता से संपन्न मान भी लिया जाए तब भी, उनके जनता से संबंध रखने वाले पहलुओं के मामले शून्य, बल्कि ऋणात्मक ही होने से कोई कैसे इंकार कर सकता है।

वास्तव में उक्त विभाजन इसलिए भी भारतीय संदर्भ में शुरू से ही झूठा है कि पिछले दशकों में सिविल सेवाओं में आने वालों में इंजीनियरिंग, डाक्टरी, वाणिज्य, मीडिया आदि विभिन्न क्षेत्रों का प्रशिक्षण प्राप्त लोगों का हिस्सा उल्लेखनीय रूप से बढ़ चुका है और साधारण डिग्रीधारियों का हिस्सा उसी अनुपात में पहले ही काफी घट चुका है। इसके बावजूद, निजी क्षेत्र से डोमेन एक्सपर्ट्स को लाए जाने की पुकारें थमने का नाम नहीं ले रही हैं। उल्टे, यूपीए के राज में जहां यह एक आइडिया भर था, जिसे प्रस्तावों से आगे ले जाने की किसी ने कोशिश तक नहीं की थी, मोदी राज ने इसे बाकायदा नौकरशाही के आइरन फ्रेम को, अफसरों की दो अलग-अलग श्रेणियां बनाने के जरिए, बीच से दो फाड़ करने का ही हथियार बना लिया है।

और सामाजिक संदर्भ को पूरी तरह से अनदेखा ही किए जाने के हिस्से के तौर पर, पिछले दरवाजे से प्रवेश की यह व्यवस्था, निजी क्षेत्र के मॉडल का ही अनुसरण करते हुए, सामाजिक आरक्षण की समूची व्यवस्था को ही अमान्य करती है। हैरानी की बात नहीं है कि खासतौर पर इस पहलू से, आम तौर पर विपक्ष ने ही नहीं, बल्कि सत्ताधारी गठबंधन में शामिल लोक जनशक्ति पार्टी तथा जनता दल-यूनाइटेड जैसी सामाजिक न्याय का पक्षधर होने का दावा करने वाली पार्टियों ने भी, इन भर्तियों पर ऐतराज उठाया था। लोक जनशक्ति पार्टी के मुखिया और केंद्रीय मंत्री, चिराग पासवान ने खासतौर पर सार्वजनिक रूप से इन भर्तियों पर विरोध दर्ज कराते हुए, इसे कभी स्वीकार नहीं करने की बात कही थी। इस चौतरफा विरोध के बाद और खासतौर पर संविधान में प्रदत्त सामाजिक आरक्षण के प्रावधान को सरकारी नौकरियों में भी कमजोर किए जाने के तीखे आरोपों के सामने, मोदी सरकार को पिछले दरवाजे की इन भर्तियों के मामले में पांव पीछे खींचने पड़े हैं और प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से यह ऐलान करना पड़ा है कि भर्तियों को ‘आरक्षण के सिद्घांतों के साथ संगति में लाने’ के लिए, यूपीएससी से पिछले दरवाजे से भर्तियों के नोटिस को वापस लेने के लिए कहा गया है।

(लेखक साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)