मरता मज़दूर और आत्मनिर्भरता का डोज़
ज़ीनत शम्स
श्रमिक वह है जो अपने शारीरिक और मानसिक बल पर देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है| उद्योगपति इन्हीं श्रमिकों के दम पर बिजनेस टाइकून बनते हैं और सरकार इन्हीं श्रमिकों के सहयोग से देश की अर्थव्यवस्था मज़बूत करती है| अगर यह श्रमिक रुक जाय तो इकोनॉमी का पहिया भी रुक जायेगा| कल कारखानों में निर्माण कार्य रुक जायेगा |
कोरोना के कारण हुए लॉकडाउन में श्रमिकों को अपने वजूद की लड़ाई लड़ने पर मजबूर होना पड़ा क्योंकि लॉकडाउन होते ही यह लोग बेसहारा हो गए, सबकुछ बंद हो गया, आने जाने के साधन भी| लोग तो अपने घरों में क़ैद हो गए मगर यह राष्ट्र निर्माता सड़कों पर आ गए| केंद्र व राज्य सरकारें इनके प्रति असंवेदनशील हो गयी| कोई योजना नहीं सिर्फ बयानबाज़ी| कभी घर पहुँचाने की बात तो कभी शहर न छोड़ने की बात| प्रधानमंत्री जी को भी काफी दिनों बाद समझ में आया कि यह इंसानी फितरत होती कि वह परेशानी में घर की तरफ भागता है|
मरता मज़दूर बेचारा क्या करता, पैदल ही घरों की तरफ निकलने लगा और मरने लगा| दूर प्रदेशों में पैसा कमाने गए यह मज़दूर सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने लगे| कोई रिकशा, कोई हाथ गाड़ी कोई बैलगाड़ी लेकर निकल पड़ा| बैलगाड़ी का बैल मर गया तो बैलों की जगह खुद को लगा लिया| महिलाओं के प्रसव सड़कों पर होने लगे लेकिन घर पहुँचने का जूनून ऐसा कि प्रसव के बाद फिर उठ खड़ी हुईं और गाँव की ओर बढ़ चलीं|
आज के आधुनिक युग में दुनिया को आधुनिक बनाने वालों के लिए कोई व्यवस्था न हो सकी| क्या हम एक सभ्य समाज कहे जाने योग्य हैं, क्या हम विश्व गुरु बनने के लायक हैं| छत्तीसगढ़ में रेल की पटरियों पर बिखरी मज़दूरों की क्षत विक्षत लाशें, रोज़ाना सड़क किनारे पैदल चल रहे मजबूरों की मौतें| इनकी पीड़ा सुनने वाला कोई नहीं, इनकी मजबूरी समझने वाला कोई नहीं| पता नहीं कितने घर उजड़ गए, कितने बच्चों ने अपने सामने माँ बाप को मरते देखा, कितनी माओं ने अपने लाल की लाश को अपनी गोद में छुपाते देखा |
निराशा और हताशा से भरा हुआ यह वहीं वर्ग है जो नारे लगाता था “नून रोटी खाएंगे …. को जिताएंगे| बड़ी आशाएं थी इसे सरकार से मगर … !
प्रधानमंत्री जी ने कोरोना से हुए नुक्सान की भरपाई के लिए और उद्योगों को सहारा देने के लिए 20 लाख करोड़ रूपये के पैकेज का एलान किया और लोगों से आत्मनिर्भर होने को कहा है| आत्मनिर्भरता का यह स्वप्न क्या मज़दूरों के बिना मुमकिन है| सड़क पर मर रहा मज़दूर सरकार के इस फैसले से खुश नहीं | वह कह रहा है की आपदा के इस समय सरकार ने हमारा साथ छोड़ दिया| आर्थिक पैकेज क्या होता है इन्हें नहीं मालूम, इन्हें तो बस इतना मालूम कि इन्हें कुछ नहीं मिलने वाला| यह तो बस अपने घर पहुंचना चाहते हैं और पलट कर कभी वापस शहर नहीं आना चाहते क्योंकि इनका सरकार पर से भरोसा उठ गया है |
भारत में बेरोज़गारी वैसे भी बहुत है कोरोना ने हालात और बिगाड़ दिए हैं| कोरोना के कारण १२. २ करोड़ लोगों ने अपनी नौकरी खोई है, मज़दूरों के 13 करोड़ परिवार सड़क पर आ गए हैं | वैश्वीकरण की कड़ी समीक्षा का यह समय है | बहुत से देशों ने आयात निर्यात पर प्रतिबन्ध लगा दिया है जिससे आवश्यक वस्तुओं की कमी हो रही है |
प्राकृतिक आपदा की स्थिति में कौन किसका हक़ दबा सकता है इसमें प्रतियोगिता शुरू हो चुकी है| सरकार वेतन कटौती कर रही है, कम्पनिया वेतन के साथ मज़दूरों की भी कटौती कर रही हैं| काम के घंटे बढाए जा रहे हैं, नए नए बहानों से श्रमिक कानूनों में बदलाव किये जा रहे हैं| अगर समय रहते न चेते तो अमीरी और ग़रीबी की खाई और बढ़ने वाली है|
सरकार के पास इन मज़दूरों के लिए कोई ठोस योजना नहीं| देखना है कि इस राहत पैकेज में क्या वाकई इन मज़दूरों को कुछ मिल पायेगा या फिर इन्हें आत्मनिर्भरता के मिले डोज़ से ही काम चलाना पड़ेगा