झंडा बुलंद सच का  है सारे जहान में,
चर्चा हुसैनियत का ज़मीं आसमान में।

माह मोहर्रम आ गया। हर तरफ़ हुसैन हुसैन की सदायें बुलंद होने लगीं। हर ख़ास ओ आम दरे इमाम हुसैन की तरफ़ ज़ौक़ वो शौक़ से बढ़ने लगा। कहीं मजलिस कहीं तक़रीर, कहीं नौहा कहीं मातम, कही जुलूस कहीं सबीलें दिखाई पड़ने लगीं। इमाम हुसैन बेशक निवासए रसूल थे, जब रसूल अल्लाह के दीन इस्लाम पर इस्लाम के नाम से बेदीनी छाने लगी। झूठ को सच बताया जाने लगा तो, इमाम हुसैन ने अपने नाना के सच्चे दीन को बचाने के लिए अपना सब कुछ क़ुरबान कर दिया। अब ता क़यामत इस्लाम अपनी तमाम ख़ुसूसियात के साथ सर बुलंद रहे गा। कोई भी ताक़त कितने भी जतन कर ले न इम्माम हुसैन का नाम मिट सकता है और न ही उन का मिशन। 
आज दुनियां के सारे धर्मावलंबी इमाम हुसैन का ज़िक्र बड़े एहतराम से करते हैं। अपनी अपनी तरह से उनकी बेमिसाल क़ुरबानी की याद मनाते हैं, उन्हें पता है कि इमाम हुसैन ने अज़ीम क़ुरबानी दे कर इंसानियत को ज़िन्दगी बख्श दी है। आज हर कौम हर मिल्लत का आदमी कहता है हुसैन हमारे हैं। यहां यह बात  साबित हो जाती है कि इंसानियत दरअसल इस्लाम ही का दूसरा नाम है। झूठे मक्कार लोगों ने इस्लाम का लिबादा ओढ़ कर उसे बदनाम कर दिया।
आज से हज़ारों साल पहले मक्का की वादी में हज़रत इब्राहीम ( जिन्हें एब्राहम भी कहा जाता है ) ने अपने बेटे जनाबे इस्माईल की कुर्बानी अल्लाह के हुक्म से दिया , मगर अल्लाह ने उन्हें बचा कर उनकी जगह एक दुम्बा ( भेंड़ की एक प्रजाति ) भेज दिया, हज़रत इस्माईल बच गए तो हज़रत इब्राहीम ने दुआ की कि मेरी क़ुरबानी क्यों क़ुबूल न हुई, अल्लाह ने कहा कि मैं ने इन की जगह एक बड़ी क़ुरबानी को खास कर दिया, जो तुम्हारी ही औलाद  दे गी। जब इस्लाम पर सब से ज़्यादा सख़्त घड़ी आयेगी।
मक्का में उन्हीं की औलादें फली फूलीं, समय के साथ उन में बुराइयां आती गई, मगर एक घराना उन बुराइयों से सदा दूर रह। जिसे बनी हाशिम कहते हैं। उसी घराने में रसूले ख़ुदा मोहम्मद साहब और मौला अली पैदा हुए। मोहम्मद साहब ने झूठों के बीच सच और इंसानियत का आंदोलन छेड़ा तो मक्का वाले उन के दुश्मन हो गए। मगर उनकी सच्चाई और अमानतदारी को झुठला न सके। दुश्मनी करते रहे मगर सादिक़ ( सच्चा ) और अमीन कहकर अपनी अमानतें उन के पास रखते रहे। अरब का समाज उस समय बहुत बिगड़ा हुआ था,ऐसे में मोहम्मद साहब ने तमाम मुसीबतों का सामना करते हुए अपना आंदोलन जारी रखा। यह आंदोलन इंसानियत का आंदोलन था। जब मक्का वाले उन के कत्ल पर उतर आए तो वह मदीना चले गए।
अब मदीना इस्लाम का केंद्र बन चुका था मगर मक्का की अज़मत बरक़रार रही। क्योंकि वहां अल्लाह का घर ( काबा ) है। मदीना में लाखों लोग मुसलमान बन गए, मगर मोमिन कुछ ही लोग थे, ( इस का गवाह पवित्र कुरआन है ), इस लिए वक़्त गुज़रने के साथ विचारों में बदलाव आने लगे। सच्चे लोगों पर झूठे लोग हाकिम बन गए और इस्लाम को  अपनी मर्ज़ी का निज़ाम बना कर रख दिया। कहने को सभी मुसलमान थे मगर इस्लाम से बहुत  दूर थे।
ऐसे में इमाम हुसैन ने इंसानियत को ज़िन्दगी देने के लिए अपने घर वालों और कुछ साथियों के साथ मैदान करबला में क़ुरबानी देकर हमेशा के लिए इंसानियत और इस्लाम को बचा लिया।

इंजीनियर मेहदी अब्बास रिज़वी