बड़ी बात रखने और फेंकने का फ़र्क
-योगेन्द्र यादव
प्रधानमंत्री ने लाल किले की प्राचीर से एक बड़ी बात कही। उन्होंने कहा कि आज़ादी की अमृत जयंती के अवसर पर हम सिर्फ अतीत का गुणगान न करें, बल्कि आने वाले 25 वर्ष के लिए देश की दिशा तय करें। इसे सामने रखते हुए उन्होंने ‘‘पंच प्राण’’ पेश किए, यानी कि वह पांच सूत्र जो देश को आगे ले जा सकते हैं।
प्रधानमंत्री अक्सर बड़ी बातें कहते हैं। सही भी है। एक बड़े नेता को एक बड़े अवसर पर बड़ी बात ही कहनी चाहिए। लेकिन बड़ी बात रखने और बड़ी बात फेंकने में एक बड़ा फर्क होता है। बड़ी बात फैंकने का काम तो कोई भी लफ्फाज कर सकता है। उसके लिए चाहिए बस बड़ी-बड़ी बातें बनाने की वाकपटुता और बड़ा-सा भोंपू, यानी टी.वी.।
देश के सामने एक बड़ी बात रखने का मतलब है एक स्पष्ट दृष्टि, उस दृष्टि को एक योजना का स्वरूप देना, उस योजना के क्रियान्वयन के दिशा निर्देश तैयार करना और समय-समय पर उसकी समीक्षा कर यह सुनिश्चित करना कि देश उस लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है। इस कसौटी पर कसें तो मोदी जी के पंच प्राण अधूरे जान पड़ते हैं। उन्हें पूरा करने की जुर्रत मुझे करनी पड़ी।
प्रधानमंत्री का पहला पंच प्राण था: बड़े संकल्प लेकर चलें। ऐसा नरेंद्र मोदी जी ने पहली बार नहीं कहा। वे अक्सर बड़े सपने देखने की बात करते रहे हैं और बड़े सपने दिखाते भी रहे हैं। लेकिन इस बात में एक संशोधन करने की जरूरत है: बड़े संकल्प लेकर चलें लेकिन पुराने संकल्पों का हिसाब भी दें।
मुझ जैसे करोड़ों हिंदुस्तानियों ने उम्मीद लगाई थी कि इस 15 अगस्त को प्रधानमंत्री सबसे पहले उन तमाम सपनों और संकल्पों का हिसाब देंगे जो उन्होंने पिछले कुछ साल में दिखाए थे और जिनके लिए स्वयं उन्होंने 15 अगस्त 2022 की समय सीमा तय की थी। ऐसे संकल्पों की लिस्ट बहुत लंबी है और यहां गिनाई भी नहीं जा सकती।
मसलन संकल्प यह था कि आजादी की 75वीं सालगिरह तक देश में एक भी घर ऐसा नहीं होगा जो पक्का न हो। और पक्के का मतलब चारों दीवारें और छत भी पक्की, घर में नल, नल में जल, बिजली का कनैक्शन और साथ में एल.ई.डी. का बल्ब (यह व्याख्या मेरी नहीं है, स्वयं मोदीजी के शब्द हैं)। इसकी सच्चाई इतनी कड़वी और जगजाहिर है कि प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में इसका जिक्र भी नहीं किया। संकल्प यह भी था कि किसानों की आय दोगुनी कर दी जाएगी। छह साल तक इसका डमरू बजाने के बाद अब सरकार एकदम चुप है।
प्रधानमंत्री द्वारा घोषित संकल्प यह भी था कि 2022 तक जी.डी.पी. की वृद्धि दर 8% हो जाएगी, कि महिलाओं के रोजगार को 30% तक पहुंचा दिया जाएगा, कि मैन्युफैक्चरिंग दो गुणा हो जाएगी, रेलवे में एक्सीडैंट शून्य हो जाएंगे …। पूरी लिस्ट गिनाकर मैं प्रधानमंत्री को शर्मिंदा नहीं करना चाहता, बस इतना आग्रह करना चाहता हूं कि अगली बार कोई संकल्प लें तो उसकी योजना भी बनाएं, उसकी समीक्षा करें और ईमानदारी से उसकी सफलता असफलता का लेखा-जोखा देश के सामने पेश करें। अगर मुझसे पूछें तो एक ही बड़ा संकल्प लें: हर हाथ में तिरंगा की बजाय हर हाथ को काम दें।
प्रधानमंत्री का दूसरा सूत्र था : गुलामी का छोटा सा अंश भी न बचने दें। यह बात मुझे बहुत भायी, क्योंकि आजादी के बाद से खास तौर पर पढ़े-लिखे हिंदुस्तानियों की मानसिक गुलामी मुझे बहुत चुभती है। लेकिन प्रधानमंत्री की इस बात की खुशी अंदर तक उतरती उससे पहले मैं प्रधानमंत्री के मुंह से वही सब जुमले सुन रहा था जो हमारे पढ़े-लिखे अंग्रेज दा वर्ग की मानसिक गुलामी की निशानियां हैं।
पंचप्राण का तीसरा सूत्र था: अपनी विरासत पर गर्व करें। मुझे लगा कि प्रधानमंत्री लाल किले की विरासत की बात करेंगे जहां खड़े होकर वह बोल रहे थे, लेकिन उस विरासत के बारे में वे चुप रहे। वैसे उनकी बात सही थी क्योंकि आज के अंग्रेजीदा भारतीय को अपने देश की भाषा, भूषा, संस्कृति और हमारी ऐतिहासिक धरोहर का पता भी नहीं है। हर भारतीय को अपने तरीके से भारत की खोज करनी होगी। लेकिन यह खोज तभी हो सकती है अगर हम अपनी विरासत में क्या ग्राह्य है और क्या त्याज्य, इसके कुछ पैमाने बना सकें। जाहिर है जिस अध्यापक में हमारी संस्कृति का हवाला देकर अपने मटके से पानी पीने की चेष्टा करने वाले बच्चे को पीट-पीटकर मार दिया वह तो हमारी विरासत नहीं हो सकती।
विरासत में मिले अमूल्य रत्नों को संजीव के समय हमें विरासत में मिले कूड़े-कर्कट को फैंकने का संकल्प भी करना होगा। विरासत में मिले सुंदर मूल्यों को दोहराने से काम नहीं चलेगा। जब उनका उल्लंघन होता है, जब सड़क पर किसी बेगुनाह की लिंचिंग होती है तब उस पर शर्म करना भी राष्ट्रीय गर्व की पूर्व शर्त होगी।
तो तीसरा सूत्र बनेगा: विरासत पर गर्व करें लेकिन पहले उसकी सफाई भी करें फिर उस पर अमल भी करें। प्रधानमंत्री का चौथा सूत्र था एकता और एकजुटता बनाएं। बात सीधी-सादी और आपत्तिहीन थी लेकिन मुझे हजम नहीं हो सकी। अगर प्रधानमंत्री हिंदू एकता की बात कहते तो बात गलत होती लेकिन कम से कम समझ तो आती लेकिन पिछले कई समय से देश की एकता को तोडऩे वाले अभियान को चुपचाप से देख शह देने वाले नरेंद्र मोदी जी जब राष्ट्रीय एकता की बात करते हैं तो अखर जाती है।
पांचवां सूत्र भी वैसे निरापद सा था: नागरिकों का कर्तव्य निभाएं। लेकिन न जाने क्यों मुझे उसमें स्कूल की नागरिक शास्त्र की किताबों की बू आ रही थी इतिहास का वह सबक याद आ रहा था कि हर अहंकारी तानाशाह सिर्फ नागरिकों के कत्र्तव्य की बात करता है, उनके अधिकारों की नहीं। गांधी जी की सीख याद आ रही थी कि अन्याय का प्रतिकार करना हर नागरिक का सबसे बड़ा कर्तव्य है। इसलिए मैं अंतिम सूत्र में संशोधन करने वाला था: कत्र्तव्य का पालन करें लेकिन याद रहे कि प्रतिरोध भी एक कत्र्तव्य है। तभी मुझे मोदी जी का एक वाक्य सुना: ‘‘जिनके जहन में लोकतंत्र होता है, वह जब संकल्प लेते हैं, वह सामथ्र्य दुनिया की बड़ी-बड़ी सल्तनत के लिए संकटकाल लेकर आता है।’’ यहां मैं मोदी जी से सहमत था।