वर्ण व्यवस्था के विनाशक गुरु रविदास
गौतम राणे सागर
संत शिरोमणि गुरु रविदास अध्यात्मवाद के ऐसे पुरोधा है जिन्होंने प्रचलित मूर्ति पूजा परंपरा को भक्तिकाल में ठोकर मारने का साहस दिखाया । अपने कर्म योग से उन्होंने देश के सामने एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया यदि व्यक्ति अपने कर्मयोग को पूरे मनोयोग से साधना में तब्दील कर दे, तब वह जात, धर्म व संप्रदाय के बेड़े से दूर निकल मानवीय मूल्यों को समझ सकता है। मानव समाज के हित की सुरक्षा एवं संरक्षा करते हुए संपूर्ण मानव का हृदय सम्राट भी बन सकता है। गुरु रविदास के पुरूषार्थ ने उन्हें देश के प्रथम संत शिरोमणि की पहचान दी ।
गुरु रविदास की विमल वाणी संदेह गुत्थियों को सुलझाने में परम सहायक है । उन्होंने धर्म के ठेकेदारों के प्रभाव तले दबे हुए रूढ़िग्रस्त, सामंतों के कठोर हाथों से पीड़ित देश के बहुसंख्यक समाज को मानवीय अधिकारों के रचनात्मक विचारों से प्रेरित कर पुरातन की जंजीरें तोड़कर सभी को समता भाव की मृदुल भूमि पर ला खड़ा किया । इनकी वाणियों में एक वृहद आंदोलन का स्वरूप समाहित है। जिसके कारण भक्ति आंदोलन को एक महत्वपूर्ण ऊंचाई पर पहुंचने की दिशा प्राप्त हुई ।
भक्ति काल में प्रचलित पाखंडवाद पर कठोर प्रहार करते हुए उन्होंने यह कहा कि जितने भी भक्त (साधु संत) अपने प्रियतम( ईश्वर )की तलाश में वन-वन भटक रहे हैं वह उन्हें कभी भी नहीं मिलेगा । क्योंकि वही प्रियतम तो हममे रचे-बसे हैं जो हमारे मानव प्रेम प्रदर्शन पर स्वतः प्रकट हो जाते हैं। हमें कस्तूरी मृग नहीं बनना है।
वन खोजों पी ना मिला वन मे प्रीतम नाही ।
रविदास पी हम बसे रह्यौ मानव प्रेमी माही।।
गुरु रविदास सदैव मानव प्रेम की ही बात करते हैं यह गौतम बुद्ध के मानव प्रेम और करुणा को अपनी वाणी व कर्म के माध्यम से गति प्रदान करते हैं। #तथागत गौतम बुद्ध ने अपनी बात ज्ञान की भाषा में एक मंझी हुई भाषा के नपे-तुले शब्दों में कही जिसे तर्क के तूफान के थपेड़ों को सहना पड़ा#। गुरु रविदास की भाषा भक्ति की भाषा व प्रेम की भाषा है। शायद इसीलिए रविदास को तर्क के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकी स्वीकार करना ही अंतिम पड़ाव बना। यह उल्लेख प्रासंगिक होगा यदि गुरु रविदास और संत कबीर दास ना होते तब शायद रामानंद भक्ति काल में अपना स्थान भी नहीं बना पाते बल्कि विस्मृत भी कर दिए होते।
गुरु रविदास दार्शनिक ना होकर आध्यात्मिक पुरुष थे फिर भी वह एक दार्शनिक की भाषाएं प्रयोग करते थे। यदि उन्हे दर्शनशास्त्र की शिक्षा मिली होती या उस समय सभी को शिक्षा ग्रहण करने की आजादी होती , वह निस्संदेह दार्शनिकों की अगली पंक्ति में खड़े होते! संतो को उपदेश देते हुए उन्होंने सलाह दी कि संत के मन में सहानुभूति कूट-कूट कर भरी होती है। संत पराई पीर को जानने के लिए खुद दर्द की कहानी बन जाते हैं ।उन्होंने कहा कि “सो का जाने पीर पराई जाके अंदर दरद न पाई” जात्याभिमानी संतो को फटकारते हुए उन्होंने कहा था कि:-
संतन के मन होत हैं ,सबके हित की बात।
घट-घट देखे अलख को पूछै जात न पात ।।
जाति पाॅत की भावना से यह बहुत द्रवित थे । उन्हें अहसास होने लगा कि यदि इस तरह जातिवादी सोच दिन दूना रात चौगुना फलता-फूलता रहा तो संपूर्ण ब्रह्मांड जातिवादी दावानल से धूं-धूं कर जल उठेगा और मानवता राख में तब्दील हो जाएगी । संपूर्ण भारत निर्धन एवं निर्जल हो जाएगा । वह विशुद्ध रूप से एक सामाजिक स्रष्टा थे । वह सदैव सभ्य समाज एवं स्वच्छ सभ्यता और संस्कृति के निर्माण में प्रयासरत रहे, जब भी मानवीय मूल्यों पर किसी भी आड़ से आक्रमण होता था तब उनका हृदय घायल हो जाता । उन्हीं के शब्दों में:
जात-जात में जात है जौ केलन में पात ।
रविदास मनुख ना जुर सके जो लो जात न जात ।।
जात-पात के फेर में उरझि रह्यो सब लोग ।
मानुषता कूं खात हई रविदास जात कर लोग।।
शिक्षा ग्रहण करने के अधिकार से वंचित होने के कारण वह मनुस्मृति का अध्ययन तो नहीं कर सकते थे। लेकिन जब उनके कानों में मनुस्मृति में वर्णित वर्ण व्यवस्था, उसके अधिकार व कर्तव्य सुनाई पड़ते थे तब उन्हें ऐसा लगता था जैसे उनका हृदय वीणा के तारों की तरह तार-तार कर टूट कर बिखर रहा है । जब यह ध्वनि उनके कानों से टकराती थी कि वर्ण व्यवस्था जाति के आधार पर नहीं बल्कि कर्म पर आधारित है तो यह टीस उनके दुःख को और बढ़ा देती। उनका अंतस मानवता को कलंकित करने वाली वर्ण व्यवस्था के संचालकों के प्रति तिरस्कार से भर जाता । गुरु रविदास सृजनात्मक एवं रचनात्मक सोच के महानविभूति थे । अतएवं वर्ण व्यवस्था के खिलाफ जेहाद करने की बजाय उन्होंने वर्ण व्यवस्था के कर्म के व्यवहारिक पक्ष को परिभाषित किया । मनुस्मृति की इस प्रकार वर्णित प्रचलित परिभाषाओं को नकारते हुए उन्होंने इस तरह से नई परिभाषाएं दी :-
“मनु स्मृति की परिभाषाएं”
“ब्राह्मण” :-
“अध्यापनम् अध्ययनम् यजनं याजनं च।
“दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानाम् कल्पयत् ।।मनुस्मृति1-88
पढ़ना,पढ़ाना, यज्ञ करना, दान लेना यह ब्राम्हण के लिए आरक्षित है
“क्षत्रिय” :-
“प्रजानां रक्षणं दानमिज्या ध्ययनमेव च।
विषयेष्वप्रसिक्तश्च क्षत्रियस्य समासतः।। मनुस्मृति 1-89
” प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ कराना ,पढ़ना अन्य विषयों की तरफ ध्यान न देना यह क्षत्रिय के लिए आरक्षित है।“
“वैश्य”:-
पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च ।
वणिक्पथ कुसीदं च वैशयस्य कृषिमेव च।।मनुस्मृति1-90
पशुओं की रक्षा करना ,दान देना ,यज्ञ कराना, पढ़ना, व्यापार ,ब्याज और खेती करना यह कर्म वैश्य लिए आरक्षित हैं।
“शूद्र” :-
“एकमेव तू शूद्रस्य प्रभु कर्म समादिशत्।
“एतेषामेव वर्णानां शुसुश्रुषामन सूचया।। मनुस्मृति 1-91
“प्रभु ने शूद्र के लिए एक ही कर्म आरक्षित किया है कि वह इन तीनों वर्णों की निष्कपट भाव से सेवा करें ।”
गुरु रविदास की परिभाषाएं :-
ब्राह्मण:-
“ऊंच कुल के कारने ब्राह्मण कोय न होय।
“जो जनहै ब्रह्म आत्मा रविदास कह ब्राह्मण सोय।।
“काम ,क्रोध मद, लोभ तजि धरम का कार ।
“सोई ब्राह्मण जानहि ,कहि रविदास विचार ।।
“क्षत्रिय:-
“दीन दु:खी के हेत जो वारे अपने प्रान।
“रविदास ऊह नर सूर को सच्चा क्षत्री जान।।
वैश्य:–
“सांची हांटी पैठकर सौदा साँचे देय।
तकरीर तौल साँच की रविदास वैस है सोय।।
शूद्र :-
“रविदास जो अति पवित्त है सोई सूदर जान ।
जऊ कुकुरमी असुध जनि तिन्हहि न सूदर मान।।
वर्ण व्यवस्था की कूपमंडूकता ने दलित जातियों को समाज में धन, सम्मान और समानता प्राप्त करने के अवसर को भक्तिकाल तक पूरी तरह से वंचित कर रखा था । इस प्रवंचना में ईश्वर भी शामिल था ।ईश्वर भक्ति और मंदिर यह तीनों सवर्ण जातियों की प्रतिष्ठा के आयाम थे। दलित जातियों के संतों ने समाज और अध्यात्म दोनों स्तरों पर धन ,सम्मान और समानता के लिए जेहाद छेड़ा जिसके फलस्वरुप सामाजिक क्षेत्र में श्रम और श्रमिक को प्रतिष्ठा मिली परंतु इसके बावजूद वह अपने लिए निर्धारित पेशे को बदल नहीं सकते थे ।
अध्यात्म के क्षेत्र में उन्होंने ईश्वर भक्त और मंदिर पर कब्जा करने का भरसक प्रयास किया , उनके इस प्रयास ने अध्यात्मवाद को ही दो भागों में विभक्त कर दिया ।अध्यात्मवाद का ईश्वर सगुण और निर्गुण में विभक्त हो गया । निर्गुण संतों में प्रमुख रविदास ,कबीर दास ,मलूक दास ,सुंदरदास ,घासीदास ,नानक देव चोखामेला इत्यादि थे।परंतु निर्गुण पंथ की धुरी रैदास और कबीरदास के ही ईद गिर्द घूमती रही। निर्गुण पंथ इन्हीं दोनों महान विभूतियों के नेतृत्व में पनप रहा था।
ऐसा प्रतीत होता है कि सगुण और निर्गुण पंथ की स्थापना भी जातियों के आधार पर ही हुई थी ,अन्यथा कोई कारण नहीं दिखता है कि रैदास के गुरु रामानंद जी और शिष्य मीराबाई उच्च कुल में उत्पन्न होने के कारण सगुण उपासक हो गए और गुरु रविदास नीच कुल के कारण निर्गुण । संत शिरोमणि रविदास ने अपने जीवन यापन के साधन को नहीं त्यागा वह सोचते थे कि संत समाज को परजीवी नहीं अपितु सहजीवी व कर्मजीवी होना चाहिए । यदि संत समाज के लिए अमरबेल बन गए तो सिर्फ मानवी संरचना का ढांचा ही नहीं चरमराएगा अपितु संपूर्ण भारतवर्ष खस्ताहाल हो जाएगा। उनकी यह सीख आज भी कितनी प्रासंगिक है इसका अनुमान सभ्य और स्वस्थ समाज स्वतः लगा सकता है ।आज यदि भारत वर्ष कर्ज के भारी बोझ तले दबा है तो क्या उसके लिए हमारे संत व आध्यात्मिक पाखंड व दिखावा भी जिम्मेदार नहीं है?
गुरु रविदास के बारे में अक्सर पढ़ने को मिल जाता है कि उन्होंने अपनी जात और कर्म दोनों को ओछा कहां है। यह कहने में वह तनिक भी सकुचाते नहीं थे। अब प्रश्न यह उठता है क्या गुरु रविदास स्वाभिमान के साथ अपने जात और कर्म के ओछा होने का बयान करते हैं या फिर जातिवाद के जात्याभिमानी पैगंबरों के कार्यों का उपहास ?