तारीख साज़ शख्सियत मौलाना मोहम्मद अली जौहर
मोहम्मद आरिफ नगरामी
तारीखे इन्सानी का दामन न जाने कितनी अहम ओैर अहदसाज शख्सियात से मुनव्वर है कि अगर कोई वक्फे-वक्फे से भी उनके कारहाय नुमायां को मुरत्तब करने लगे तो भी सदियां गुजर जायेंगी मगर इन अहमतरीरन और मुकद्दस शख्सियात का मुकम्मल तजकिरा व अहवाल और उनके जरिये अन्जाम दी गयीं कौमी व मुल्की खिदमात मन्जरे आम पर लाने से कासिर व आजिज रहेगा। ऐसी ही अहमतरीन और अहदसाज एक नुमायां शख्सियत है रईसुल एहरार काफिलये आजादीये हिन्द के सालार मुल्क व मिल्लत के अजीम कायद व सरबराह, मैदाने सहाफत के बेबाक, बेलौस और निडर रहनुमा आला पाया के साहबे अन्शा परदाज नीज हिन्दू मुस्लिम इत्तेहाद के अजीमुल मर्तबत व काबिले कदर अलमबरदार मौलाना मोहम्मद अली जौहर, रामपुरी जद्दोजहद आजादी के अजीम मुस्लिम रहनुमाओं मेें शुमार किये जाने वाले मौलाना मोहम्मद अली जौहर 10 दिसम्बर 1878 को रामपुर मेें पैदा हुये थे। आपने मुल्क व कौम के लिये बेपायां खिदमात अन्जाम दीं। बहैसियत सहाफी मौलाना मोहम्मद अली जौहर ने अंग्रेजी मेें ‘कामरेड‘ और उर्दू मेें ‘‘हमदर्द‘‘ नामी अखबारात शाया किये। मौलाना जौहर ने सहाफत को मिशन के तौर पर इस्तेमाल किया और मकसदी बनाया। उन्होंने उस वक्त के हालात के कवाएद का मुशाहिदा किया और मुल्क उस वक्त जिन मसाएल से दो चार था उस को ईमानदारी के साथ अपने अखबारात में शाया करके सच्ची और हकीकत पसंदाना सहाफत का सुबूत दिया। मौलाना ने कामरेड और हमदर्द के जरिये अपनी काबिलियत के जौहर दिखाये और सहाफती सलाहियतों का लोहा मनवा लिया। मौलाना अखबारात के जरिये भी तहरीके आजादी, खिलाफत तहरीक और हुर्रियत के जज्बे को आम करके हुसूले आजादी के लिये कोशिश और काविश और इस्लामी फिक्र और इस्लाम के दाई बनते हुये मुल्क मेें इस्लामी तालीम को आम करने की कामयाब कोशिश की। अल्लाह तआला ने मौलाना मोहम्मद अली जौहर को सब सलाहियतेें और कमालात अता फरमाये थे जो मौलाना जैसे रहनुमाओं के लिये जरूरी है। जो मुल्कों और कौमों मेें इन्केलाब लाते हैं, सोती हुयी बस्ती जगाते हैं और ममूलों को शहबाज से लडा देते हैं। मौलाना मेें खुलूस का एक दरियाये बेकरां, पारे की सीमाबी और बिजलियों की बेताबी खिताबत की जादूगरी, शख्सियत की दिलावेजी, खुलकी और फितरी महबूबियत सब मौजूद था। मौलाना मोहम्मद अली जौहर जैसा मुखलिस, जरी, निडर बहादुर और खुदा परस्त, आशिके इस्लाम, काएद इस मिल्लत को इस सदी मेें नहीं मिला, लेकिन बदकिस्मती की बात यह थी कि उन्होंने एक ऐसे मसले को अपने हाथ में लिया था और उस को अपनी सहरअंगेज शख्सियत की तवानाईयों और काएदाना सलाहियतों का महवर बनाया था जिसकी जमाने कारान उन के हाथ में नहीं बल्कि मुल्क के बाहर सात समन्दर पार एक ऐसी जमाअत और फर्द के हाथ मेें थी जो उनके मशविरों का ताबे और उनकी सलाहियतों का पाबंद न था बल्कि अपने मसालह और मगरिबी ताकतों के चश्मे अबरू का गुलाम था। ऐसी मसला खिलाफत जिसको कमाल अतातुर्क ने इत्तेहादियों के इशारे और खास तौर पर बर्तानिया के मशविरे और हिदायत पर बयेक जुम्बिशे लब या गर्दिश कलम खत्म कर दिया और सारा आलम खास तौर पर हिन्दुस्तान को मजरूह, सितमरसीदा मुसलमान देखता रह गया।
उमर के आखिरी अय्याम में फिर मौलाना मोहम्मद अली जौहर की मुजतरिब रूह और बेचैन तबियत ने अपना जौहर दिखाया और उसने अपने मर्कजे असल की तरफ परवाज की। सन् 1930-31 में गोल मेज कान्फ्रेंस, लन्दन मेें वह शेर की तरह गरजे और बुलबुल की तरह चहके। मौलाना मोहम्मद अली जौहर ने उस वक्त तक हिन्दुस्तान वापस जाने से इन्कार कर दिया जब तक उनको इस मुल्क की आजादी का मुकम्मल परवाना न मिल जाये और वहीं लन्दन मेें 4 जनवरी 1931 मेें उनकी ताएरे रूहे कफस उन्सरी से परवाज की। मुफ्तिये आजम फिलिस्तीन की दावत व तहरीक पर उनकी नाअश फिलिस्तीन ले जायी गयी और उनके जिस्मे खाकी को सरजमीनें अम्बिया और मेराजे नबवी की पहली मन्जिल बैतुल मुकद्दस के एक गोशे मेें जगह मिली।
दुनिया मेें हाफिजे की कोताही, हकाएक से चश्मपोशी और जूद फरामोशी की ऐसी मिसालेें कम मिलेंगी जैसी हिन्दुस्तान की तहरीके आजादी की तारीख लिखने वालों ने और हिन्दुस्तानी अवाम ने तहरीके आजादी के जांबाज सिपाही और उसके काफिले सालार मौलाना मोहम्मद अली जौहर के मामले में पेश की। बाज मुसन्निफीन ने जिन को खुर्दबीन और दूरबीन निगाहों ने छोटे-छोटे वाकेआत और गैर अहम शख्सियात को भी फरामोश नहीं किया। मगर मौलाना को यकसर नजर अन्दाज कर दिया या हिन्दुस्तान की आजादी की लड़ाई लड़ने वालों की बज्म मेें उनको बादिले नख्वास्ता और किसी किनारे पर जगह दी और खुद उनकी उम्मत का तर्जे अमल भी उनके साथ कुछ ज्यादा जौहर शनासी और मिन्नत पजीरी का नहीं रहा और यह मिल्लत भी अपनी जिन्दगी फरामोशी व मुर्दापरस्ती मेें बदनामी की हद तक नामवर होने के बावजूद उनके नाम को जिन्दा और ताबिन्दा न रख सकी।