मनरेगा को ख़त्म करने की साजिश, काम के अधिकार को बचाने के लिए भाजपा को हराना ही एकमात्र रास्ता
(आलेख : विक्रम सिंह)
हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के वर्किंग पेपर नंबर 107 में ग्रामीण भारत में नागरिकों की क्रय शक्ति में नकारात्मक रुझान का जिक्र किया है। इसमें कहा गया है कि “भारतीय श्रम ब्यूरो द्वारा प्रकाशित ग्रामीण मासिक वेतन सूचकांक के साथ मुद्रास्फीति के आंकड़ों के आधार पर, वित्त मंत्रालय ने हाल के वर्षों में ग्रामीण भारतीय मजदूरों की क्रय शक्ति में नकारात्मक रुझान देखा है। इस प्रकार, मंत्रालय ने अपने आर्थिक सर्वेक्षण 2022-23 में, अप्रैल और नवंबर 2022 के बीच बढ़ी हुई मुद्रास्फीति के कारण वास्तविक ग्रामीण मजदूरी (यानी, मुद्रास्फीति के लिए समायोजित ग्रामीण मजदूरी) में नकारात्मक वृद्धि पर प्रकाश डाला।”
हालांकि ग्रामीण भारत में लोगों की लगातार कम होती क्रय शक्ति को जानने के लिए हमें अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की जरुरत नहीं है। यह हमारे देश के ग्रामीण नागरिकों के जीवन में साफ़ झलकता है। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के इसी वर्किंग पेपर में ग्रामीण भारत के बारे में एक और तथ्य उजागर किया गया है, जो महत्वपूर्ण है। इसमें उल्लेख किया गया है कि “मनेरगा की शुरुआत और विस्तार के साथ, न्यूनतम वेतन नियमों का अनुपालन बढ़ा है, औपचारिक और आकस्मिक ग्रामीण मज़दूरों के बीच वेतन अंतर कम हो गया है और ग्रामीण क्षेत्रों में जेंडर वेतन गैप कम हो गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि अन्य कारकों के अलावा मनरेगा ने इन सकारात्मक परिवर्तनों में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।”
यह प्रमाण है ग्रामीण भारत में आजीविका और आर्थिकी में मनरेगा के महत्व का। हालांकि देश की सरकार इन तथ्यों के बावजूद मनरेगा के महत्व को कमतर आंकती है और इसके प्रभावी कार्यान्वयन के खिलाफ ही नीतियां बनाती है। सरकार में बैठे लोगों और अफसरशाही को ग्रामीण कामगारों की आजीविका के लिए मनरेगा का महत्व न पता हो, ऐसा समझना गलत होगा ; लेकिन उनकी प्राथमिकता जनता का जीवन नहीं है, अपितु अपने कॉर्पोरेट दोस्तों के वर्गीय हित और मुनाफे हैं।
भाजपा सरकार मनरेगा मज़दूरों, उनके संगठनों, प्रगतिशील बुद्धिजीवियों और अर्थशास्त्रियों की चिंता को अनदेखा करती ही है, लेकिन एक लोकतान्त्रिक देश में ज्यादा चिंताजनक है सरकार द्वारा अपने वर्गीय दृष्टिकोण/हितों के चलते ‘ग्रामीण विकास और पंचायती राज’ पर संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट को न केवल अनदेखा करना, बल्कि ठीक इसके विपरीत काम करना। 08 फरवरी, 2024 को संसद में पेश की गई ग्रामीण विकास और पंचायती राज पर स्थायी संसदीय समिति की रिपोर्ट “ग्रामीण रोजगार — मजदूरी दरों और उससे संबंधित अन्य मामलों पर एक अंतर्दृष्टि” पर रिपोर्ट सरकार की मनरेगा को लागू करने की नीतियों पर गंभीर प्रश्न पैदा करती है और मनरेगा मज़दूरों और उनके संगठनों द्वारा महसूस की गई चिंताओं और मांगों को सही ठहराती है।
मांग पर आधारित मनरेगा को लागू करने में सबसे बड़ी बाधा फंड की कमी ही है। पिछले दस वर्षो में महामारी के समय के अपवाद को छोड़ कर मनरेगा के बजट में कटौती ही की गई है। वित्तीय वर्ष 2009 में मनरेगा के लिए बजट कुल बजट का 3.4 प्रतिशत था। भाजपा जब सत्ता में आई, उस समय भी यह कुल बजट का 1.85 प्रतिशत था, जो वर्ष 2023-24 में कम होकर केवल 1.33 प्रतिशत रह गया है। मनरेगा के लिए बजट बढ़ाने की पुरजोर मांग के बावजूद, 2024-25 के वित्तीय वर्ष के बजट में वित्तीय वर्ष 2023-24 के संशोधित अनुमान की तुलना में कोई वृद्धि नहीं हुई है, उल्टा कमी ही की गई है। अंतरिम बजट में मनरेगा के लिए 86000 करोड़ रुपये आबंटित किए गए हैं, जबकि चालू वर्ष के लिए मनरेगा पर अब तक कुल मिलाकर 88,309.72 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। लेकिन गोदी मीडिया तो मनरेगा के लिए इस वर्ष के बजट को बड़ी उपलब्धि की तरह पेश कर चुनावी माहौल बनाने में मशगूल है।
हालांकि इस मुद्दे पर सरकार की तरफ से हमेशा तर्क दिया जाता है कि मनरेगा मांग पर आधारित योजना है, जिसमें फण्ड की कभी कमी नहीं होने देंगे और इसके लिए कभी भी फण्ड बढ़ाया जा सकता है। देश की वित्त मंत्री भी पत्रकारों के सवाल पूछने पर यही तर्क देती हैं कि मनरेगा के लिए धन आबंटन में कोई कमी नहीं आई है। यह मांग पर आधारित योजना है। जब भी मांग बढ़ती है, अधिक धन का प्रावधान कर दिया जाता है।” हालांकि धरातल पर मनरेगा को लागू करने में फण्ड की कमी को साफ़ समझा जा सकता है।
संसदीय समिति की रिपोर्ट यह स्वीकार करते हुए भी कि “आवश्यकता के आधार पर संसाधनों की पूर्ति की जा सकती है” सिफारिश करती है कि वर्ष की शुरुआत में अनुमानित बजट में ही फंड में कटौती करने से मनरेगा कार्यान्वयन के विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं पर व्यापक रूप से प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसलिए कमेटी यह महसूस करती है कि जमीनी स्तर पर इस योजना के सुचारू कार्यान्वयन के लिए फण्ड की कमी एक बहुत बड़ी बाधा है। मनरेगा के लिए शुरू में ही उपयुक्त बजट का प्रावधान किया जाना चाहिए, जिसका आधार पिछले वर्ष के खर्चे का चलन हो सकता है। गौरतलब है कि प्रतिवर्ष मनरेगा में आबंटन का लगभग तीस प्रतिशत हिस्सा पिछले वर्ष की देनदारियों में ही चला जाता है।
इस रिपोर्ट के अनुसार फण्ड की कमी के साथ जो दूसरा बड़ा कारण मनरेगा को प्रभावित करता है, वह है फण्ड जारी करने में देरी। मनरेगा का समुचित कार्यान्वयन पूरी तरह राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों को पर्याप्त धनराशि समय पर जारी करने पर निर्भर करता है। केंद्र सरकार फंड जारी करने में देरी के लिए अलग-अलग कारण (बहाने) पेश करती है, जिनमें कुछ वाजिब भी हो सकती है : जैसे, राज्यों के द्वारा समय पर सूचनाएं मुहैया न करवाना या फिर मंत्रालय द्वारा जारी दिशा-निर्देशों को लागू न करना। हालांकि इसका एक कारण मनरेगा कार्यान्वयन को अत्यधिक केंद्रीकृत करना भी है। खैर, इस बाबत संसदीय कमेटी का आंकलन बहुत महत्वपूर्ण है। कमेटी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि केंद्र सरकार से मनरेगा के लिए फण्ड जारी करने में देरी के कारण चाहे कुछ भी हो, लेकिन “इसके पीड़ित तो गरीब और वंचित लाभार्थी ही है।” राज्यों और केंद्र सरकार में इसी तरह की तकरार और तकीनीकी उलझनों में गांव का गरीब ही प्रभावित होता है, जैसा कि पश्चिम बंगाल में देखने को मिल रहा है। भ्रष्टाचार के नाम पर गत वर्षों से राज्य के लिए मनरेगा का बजट रोक दिया गया है, लेकिन भ्रष्टाचार को रोकने व उसकी जड़ों को खत्म करने का कोई भी प्रयास न तो केंद्र सरकार और न ही राज्य की तृणमूल सरकार ने किया है। सब जानते हैं, इस भ्रष्टाचार की जड़ें राजनीति की ज़मीन में गड़ी है, जिसमें भाजपा और तृणमूल दोनों पार्टियों के कार्यकर्ता अपनी लाभ की खेती करते हैं।
सबसे महत्वपूर्ण सवाल, जिसे मनरेगा पर संसदीय समिति ने उठाया है, वह है मनरेगा में कम मज़दूरी और न्यूनतम मज़दूरी को तय करने के विसंगतिपूर्ण तरीके के बारे में। मनरेगा अधिनियम, 2005 की धारा 6 में केंद्र सरकार को ‘न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948’ के किसी भी प्रावधान से बंधे बिना, मनरेगा मजदूरों के लिए मजदूरी तय करने का अधिकार दिया गया है। इसका उद्देश्य सभी बाधाओं को दूर करना और मजदूरी दरों में लगातार, नियमित और सुचारू संशोधन सुनिश्चित करना है। यह मज़दूरी अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग हो सकती है, लेकिन किसी भी हालत में अधिसूचित मज़दूरी खेत मज़दूरों के लिए निर्धारित न्यूनतम मज़दूरी से कम नहीं होनी चाहिए। संसदीय समिति ने कहा है कि इसका मकसद ग्रामीण बेरोजगारों के लिए उचित मज़दूरी की दर पर रोजगार प्रदान कर उनके लिए एक सुरक्षा की भावना पैदा करना है। रिपोर्ट में कहा गया कि “वर्ष 2008 से वेतन की दर का अवलोकन करते हुए, कमेटी ने पाया है कि यह मज़दूरी अपर्याप्त है और जीवन यापन की लागत में वृद्धि के अनुरूप नहीं है। इस समय, खेतिहर मजदूरों और चिनाई/विविध कार्यों में शामिल अन्य मजदूरों को इससे अधिक दिहाड़ी मिलती है।”
यह बहुत महत्वपूर्ण पक्ष है। बिना मज़दूरी बढ़ाये मनरेगा अपने लक्ष्य को पूरा करने में अक्षम है। मज़दूरों को जिन्दा रहने लायक दिहाड़ी तो मिलनी ही चाहिए, अन्यथा वह मज़दूरी क्यों करेंगे? मज़दूरी बढ़ाने की मांग मनरेगा मज़दूर और उनके संगठन काफी समय से कर रहें हैं, लेकिन सरकार तो मज़दूरी वृद्धि के नाम पर केवल रस्म अदायगी करती है और प्रतिवर्ष दिखावे के लिए कुछ रुपयों की बढ़ौतरी कर मज़दूरों पर एहसान जताती है।
कम मज़दूरी का सवाल उठाते हुए संसदीय कमेटी ने एक महत्वपूर्ण मुद्दे को चिन्हित किया है। मनरेगा मज़दूरों के संगठन भी यही मांग कर रहे है कि न्यूनतम मज़दूरी तय करने के मापदंड बदलने की जरुरत है। केंद्र सरकार खेत मज़दूरों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई-एएल) का प्रयोग करके मज़दूरी की दर तय करती है, जिसमें 1 अप्रैल 2009 को मिलने वाली मज़दूरी या 100 रुपये, जो भी अधिक हो, को आधार बनाया गया है। कमेटी ने निष्कर्ष निकाला है कि 2009-2010 के आधार वर्ष का उपयोग करके गणना की यह पद्धति, वर्तमान मुद्रास्फीति और जीवनयापन की बढ़ी हुई लागत के अनुरूप मज़दूरी निर्धारित करने में असफल रही है। इसके लिए कमेटी ने सुझाया है कि मज़दूरी तय करने की इस पद्धति में आधार वर्ष कम-से-कम 2014 करना चाहिए। संसदीय समिति ने इसके लिए महेंद्र देव कमेटी की सिफारिशों का सहारा लिया है। हालांकि संसदीय समिति एक कदम आगे बढ़कर इस पूरी पद्धति को बदलने की चर्चा भी करती है।
देखा जाए, तो वर्ष 2014 भी अब पुराना हो गया है। लेकिन भाजपा सरकार ने दिहाड़ी निर्धारित करने के तरीके में फेरबदल करने की इस न्यूनतम सिफारिश पर भी एक शब्द भी खर्च नहीं किया है। हालांकि गैर-लोकतांत्रिक भाजपा सरकार से आशा भी क्या की जा सकती है?
जैसा कि ऊपर कहा गया है कि भाजपा सरकार मनरेगा का केन्द्रीयकरण कर रही है। सभी फैसले दिल्ली से तय हो रहे है और बिना चर्चा और ज़मीनी हक़ीक़त समझे नित नए दिशा-निर्देश राज्यों को भेजे जा रहे है। मनरेगा के कार्यान्वयन में एक लचीलापन था, जिसके चलते राज्य सरकारें अपनी परिस्थितियों के अनुसार इसे लागू करती थी। पिछले पांच वर्षो में राज्य और पंचायतों की भागीदारी लगभग ख़त्म कर दी गई है। इसके इतर मनरेगा को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए इसका विकेन्द्रीयकरण करने की ज्यादा जरुरत है, जिसमें पंचायतों की निर्णायक भूमिका है। यह सब किया जा रहा है भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने के नाम पर, जैसे राज्यों और पंचायतों स्तर पर सभी बेईमान है और सभी ईंमानदार केवल दिल्ली की सरकार और मंत्रालय में हैं।
पिछले दशक में एक और चिंताजनक रवैया भाजपा सरकार ने अपनाया है। मनरेगा को लागू करने और इसकी मॉनिटरिंग के लिए तकनीक का अत्याधिक उपयोग किया जा रहा है। उन्नत तकनीक का इस्तेमाल बिल्कुल जायज और जरुरी है, लेकिन तकनीक के सामने इंसान को ही दोयम बना देना वाजिब नहीं है। यह भी केन्द्रीयकरण को ही बढ़ा रहा है। निचले स्तर के अनुभवों को दरकिनार कर, निर्णय लेने में पंचायतों और जिला प्रशासन की बिना भागीदारी के केवल केंद्र से तकनीक थोपी जा रही है। एनएमएमएस से दिन में दो बार ‘जिओटैग्ड ऑनलाइन हाज़िरी’ और आधार बेस्ड पेमेंट सिस्टम (एबीपीएस) इसी समझ की पराकाष्टा है। इन सब निर्णयों का मज़दूरों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। ग्रामीण विकास विभाग और मंत्रालय की आंतरिक बैठकों में ऑनलाइन हाज़िरी पर गहरे सवाल उठाये गए हैं, लेकिन आश्वासन देने के बावजूद इसे लागू किया जा रहा है। एबीपीएस का मज़दूरों पर सीधा प्रभाव हुआ है। लिब टेक इंडिया (जोकि शिक्षाविदों का एक संघ है) के डेटा के अनुसार लगभग पिछले दो वर्षो में मनरेगा की व्यवस्था में से 7.6 करोड़ जॉब कार्ड निरस्त कर दिए गए हैं। इसके कई कारण बताये जा रहे हैं। लेकिन जानकारों का कहना है कि इसका एक बड़ा कारण एबीपीएस के अनुसार राज्यों में सभी मज़दूरों के जॉब कार्ड को इसके लिए योग्य बनाने के लक्ष्य को पूरा करने के दवाब के चलते ही बड़ी संख्या में जॉब कार्ड ही निरस्त कर दिए गए हैं।
भ्रष्टाचार से लड़ने की सरकारों की मंशा को समझने के लिए पंचायतो में सोशल ऑडिट की स्थिति का जायजा लेना जरुरी है। इस मोर्चे पर सोशल ऑडिट सबसे महत्वपूर्ण हथियार है, जहां काम का सामाजिक परीक्षण होता है। सोशल ऑडिट की रिपोर्ट सार्वजनिक होती है। भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर पूरी मनरेगा को ही संकट में डालने वाली सरकार और राजनीतिक पार्टियां सोशल ऑडिट से डरती हैं। सोशल ऑडिट की टीम के सदस्यों पर हमलों की खबरें आम बात हैं। उनको डराया जाता है और गलत रिपोर्ट्स तैयार करने के लिए दबाव बनाया जाता है। लेकिन सबसे आसान तरीका है सोशल ऑडिट होने ही न देना और इसके लिए आसान तरीका है बजट उपलब्ध न करवाना। संसद की समिति ने भी सोशल ऑडिट के लिए बजट की कमी पर गहरी चिंता व्यक्त की है।
मनरेगा को लागू करने में भाजपा सरकार के पिछले दस सालों का रिकॉर्ड बहुत ख़राब रहा है। मांग के आधार पर लागू होने से इस कानून में इतने फेरबदल किये जा रहे हैं कि इसका स्वरुप बदल कर सामान्य कल्याणकारी योजना की तरह बना दिया है, जिसका कार्यान्वयन सरकारों की इच्छा और उपलब्ध बजट पर निर्भर करता है। संसदीय समिति की रिपोर्ट में भी इसी तरफ इशारा किया गया है। केंद्रीय मंत्रियों और नीति-निर्धारकों के बयान भविष्य में मनरेगा पर ज्यादा बड़े हमलों की तरफ इशारा कर रहे हैं, जैसे राज्य सरकारों पर खर्चे का हिस्सा ज्यादा करने का सुझाव। हालांकि अब चुनाव के चलते भाजपा को भी ग्रामीण विकास और मनेरगा की याद आएगी। लेकिन अनुभव तो यही बताते है कि ‘काम के अधिकार- मनरेगा’ को बचाने के लिए भाजपा को हराना ही एकमात्र रास्ता है।
(विक्रम सिंह अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन के संयुक्त सचिव हैं।)