कांग्रेस को हारना ही था, शायद आगे भी हारे
(कँवल भारती)
राजनीति में हार-जीत लगी रहती है, लेकिन मौजूदा राजनीति में, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्यों में कांग्रेस की हार ख़ास मायने रखती है। और वह इसलिए कि कांग्रेस की यह हार दो हजार चौबीस के लोकसभा चुनावों में भी संभावित है। मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूँ, हालाँकि ज्योतिषी की भविष्यवाणी, जरूरी नहीं है कि सच निकले, पर मेरी भविष्यवाणी शायद ही गलत निकले, क्योंकि मैं पराजित कांग्रेस की शव-परीक्षा करने के बाद अपना निष्कर्ष दे रहा हूँ।
भले ही कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे हैं, पर नेतृत्व राहुल गाँधी ने ही संभाला हुआ है। राहुल गाँधी की वर्गीय स्थिति की तुलना मैं अपने शहर के नवाबजादे काजिम अली उर्फ नावेद मियां से करना चाहता हूँ, जो कभी आम जनता के आदमी बनकर नहीं रहे। उनका अपना एक शाही वर्ग है, और उनकी संवेदनाएं उसी शाही वर्ग के लिए हैं। उन्होंने इन चार राज्यों के चुनावों में बकायदा प्रेस नोट जारी करके, पूर्व शासकों के वंशजों—ग्वालियर की राजकुमारी और धौलपुर की महारानी वसुंधरा राजे, जयपुर की राजकुमारी दीया कुमारी, कोटा के महाराज की पत्नी महारानी कल्पना देवी, बीकानेर की राजकुमारी सिद्धि कुमारी, कुंवर नटवर सिंह के पुत्र जगत सिंह और महाराणा प्रताप के वंशज विश्वराज सिंह मेवाड़ को जीत हासिल करने पर बधाई दी है। राहुल गाँधी का भी एक शाही कुलीन वर्ग सवर्णों का है, जिनकी वह चिंता करते हैं, और उनको अपना मित्र समझते हैं, जबकि वे उनके साथ नहीं हैं। राहुल गाँधी जातीय जनगणना की बात करते हैं। उन्होंने घोषणा की थी कि कांग्रेस की सत्ता आने पर जातीय जनगणना कराई जायेगी। पर उनके सवर्ण मित्र जातीय सर्वेक्षण नहीं चाहते। वे न दलितों के सशक्तिकरण के समर्थन में हैं और न पिछड़ी जातियों के। वे आदिवासियों के सशक्तिकरण के भी साथ नहीं हैं, और न वे यह चाहते हैं कि अल्पसंख्यकों, ख़ास तौर से मुसलमानों का सामाजिक और आर्थिक सशक्तिकरण हो। वे किसी सामाजिक परिवर्तन के साथ नहीं हैं।
लेकिन राहुल गाँधी सवर्णों और ब्राह्मणों को खुश करने के लिए नरम हिंदुत्व की बात करते हैं, और भूल जाते हैं कि हिन्दुत्व चाहे गरम हो या नरम, वह आरएसएस और भाजपा के हिंदुत्व का ही समर्थन है। उनके सवर्ण मित्र नरम हिन्दुत्व की नहीं, बल्कि गरम हिन्दुत्व की राजनीति के साथ हैं, और वे यह भी जानते हैं कि जितने बेहतर ढंग से इसकी राजनीति भाजपा करती है, कांग्रेस नहीं कर सकती। क्या राहुल गाँधी से यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि उनकी नरम हिन्दुत्व की राजनीति किस काम की, जो ज्ञानवापी और मथुरा के ईदगाह मामले में हो रहे आक्रामक हिन्दुत्व की अलोकतांत्रिक और अवैधानिक राजनीति पर मुंह सिलकर रहती है? उनका यह नरम हिन्दुत्व किस काम का, जिसने इन ऐतिहासिक धरोहरों को मिथकों के नाम पर ध्वस्त करने की उन्मादी हिंदू कार्यवाही को रोकने के लिए कोई विरोध-प्रदर्शन नहीं किया, कोई कानूनी दखलंदाजी नहीं की? आखिर क्यों? क्यों वह यह सब होने दे रहे हैं? क्या उनका लोकतान्त्रिक दायित्व नहीं बनता है? जवाब एक ही है कि वह सवर्णों को नाराज करना नहीं चाहते। पर, राहुल गाँधी अपने सवर्ण मित्रों को सनातन धर्म पर कुछ कांग्रेसी नेताओं की टिप्पणियों से नाराज होने से नहीं रोक सके।
राहुल गाँधी को मालूम नहीं है या वह जानना नहीं चाहते कि उनके सवर्ण मित्र जिस हिन्दुत्व को पसंद करते हैं, उसमें गैर-हिंदुओं का ही नहीं, पिछड़ों का भी विकास संभव नहीं है। क्या उन्हें अपनी सरकारों का इतिहास नहीं मालूम है? कांग्रेस ने अल्पसंख्यकों में, खास तौर से मुसलमानों में आरएसएस का डर दिखाकर चालीस साल तक शासन किया, और कांग्रेस के ये शासक, वही सवर्ण और ब्राह्मण थे, जो आज भाजपा के साथ हैं। इसलिए कांग्रेसी सरकारों ने कभी भी मुलसमानों का आर्थिक सशक्तिकरण नहीं होने दिया। आज भी मुस्लिम पसमांदा समाज सबसे ज्यादा अशिक्षित और गरीब है। क्या इसके लिए कांग्रेस की वे सरकारें जिम्मेदार नहीं थीं, जिनके शासक सवर्ण और ब्राह्मण थे। क्यों कांग्रेस की सरकारों ने सच्चर कमेटी की सिफारिशों को लागू नहीं लिया? क्या राहुल गाँधी आज भी अपने भाषणों में मुसलमानों के लिए इन सिफारिशों को लागू करने की बात करते हैं? जवाब है, नहीं करते, क्योंकि उन्हें अपने सवर्ण मित्रों की चिंता है।
राहुल जी भले ही नरम हिंदुत्व की बात करते हैं, पर कांग्रेसी सरकारों का इतिहास गरम हिंदुत्व का रहा है, जिसके एजेंडे में दलित-पिछड़ी जातियों का विकास कभी नहीं रहा। इसी आधार पर कांग्रेस की सरकारों ने ओबीसी के वैधानिक अधिकारों को कभी स्वीकार नहीं किया। पिछड़ी जातियों के लिए पहली बार 1955 में काका कालेलकर आयोग ने सिफारिशें की थी। सरकार ने उसकी रिपोर्ट को ही खारिज कर दिया। इसके 27 साल बाद मंडल आयोग बना और उसने 1982 में अपनी सिफारिशें सरकार को सौंपीं। सरकार ने इसे भी लागू नहीं किया। इसके दस साल बाद 1992 में उसे वीपी सिंह की गैर-कांग्रेसी सरकार ने लागू किया। और जैसे ही मंडल आयोग की रिपोर्ट के अनुसार पिछड़ी जातियों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने की घोषणा हुई, पूरे देश में सवर्णों ने आरक्षण के विरुद्ध आक्रामक और हिंसक आन्दोलन शुरू कर दिया। कुछ सवर्ण उसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट से स्टे भी ले आए। वास्तव में कांग्रेसी सरकारों ने पिछड़ी जातियों के आरक्षण को हिंदुत्व के आधार पर स्वीकार नहीं किया था। उसे लागू करने का वीपी सिंह का आधार लोकतान्त्रिक और संवैधानिक था, पर लोकतंत्र और संविधान से भी बड़ा साबित हुआ हिंदुत्व, जो पिछड़ी जातियों के देशव्यापी विरोध का आधार बना। राहुल गाँधी ने कभी भी अपने चुनावी भाषणों में पिछड़ी जातियों के आरक्षण के मुद्दे को नहीं उठाया, जिसे भाजपा सरकार ने लगभग खत्म कर दिया है। उन्होंने इस मुद्दे को इसलिए नहीं उठाया, क्योंकि हिन्दुत्व के केन्द्र में सवर्णों का विकास ही प्रावधानित है। भारत का सवर्ण जनमानस दलितों, पिछड़ों, और मुसलमानों के विकास को बर्दाश्त कर नहीं सकता। लेकिन इसी जनमानस ने आर्थिक आधार पर सवर्णों के लिए दस प्रतिशत आरक्षण को पूरे हर्ष के साथ स्वीकार किया, और सुप्रीम कोर्ट तक ने उस पर कोई आपत्ति नहीं की। किन्तु सवाल यह है कि क्या राहुल गाँधी ने संसद में इस सवर्ण-आरक्षण का विरोध किया? क्या संसद के बाहर या चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने इस सवर्ण-आरक्षण को खत्म करने के बारे में अपनी पार्टी की कोई प्रतिबद्धता दर्शाई? जवाब है नहीं। क्योंकि उनका नरम हिन्दुत्व भी सवर्ण-आरक्षण के खिलाफ नहीं है।
लेकिन मुझे कहना चाहिए कि अगर कांग्रेस की सरकार ने 1955 में ही कालेलकर आयोग की सिफारिशों को स्वीकार करके लागू कर दिया होता, तो इन सत्तर सालों में पिछड़ी जातियों का जो शैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक सशक्तिकरण होता, और जो बौद्धिक विकास होता, उससे लोकतंत्र इतना मजबूत होता, कि आरएसएस का उन्मादी हिन्दुत्व उनके मस्तिष्क में घुसता ही नहीं। क्योंकि धार्मिक उन्माद अपना शिकार अशिक्षितों और गरीबों को बनाता है, विवेकशील लोगों को नहीं। लेकिन ऐसा इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि कांग्रेस की सरकारों को भी लोकतंत्र में हिंदुत्व ही चलाना था।
हालाँकि मैं यह दावा नहीं करूँगा कि राहुल गाँधी दलितों और पिछड़ों के साथ नहीं है, पर यह जरूर कहूँगा कि उनके पास इन जातियों के सशक्तिकरण की कोई योजना नहीं है। वह भी उन्हें एक लाभार्थी से ज्यादा नहीं समझते। वह भी उसी राजतंत्रीय सोच के हैं, जिसमें यह मानकर चला जाता है कि राज्य में कुछ गरीब और कमजोर वर्ग हैं, जिन्हें कुछ विशेष सुविधाओं की जरूरत है। जैसे राजा अपने राज्य की गरीब और कमजोर प्रजा को कम्बल या कुछ खैरात बांट देती थी और प्रजा राजा की दुहाई देती हुई खुश हो जाती थी। आज की सरकारें भी यही करती हैं। यह लोकतंत्र का नहीं, राजतंत्र का माडल है, और इसे स्वतंत्र भारत में कांग्रेस ने ही राजे-महाराजाओं और नवाबों को जनता का प्रतिनिधि बनाकर सरकार में शामिल करके स्थापित किया था। ऐसी स्थिति में जनता के समान उत्थान और समान विकास का एक सामान्य लोकतान्त्रिक माडल कैसे विकसित हो सकता था? इसी राजतंत्रीय माडल ने सामाजिक और आर्थिक असमानताओं की समस्याएं पैदा कीं।
क्या राहुल गाँधी के पास इस माडल को बदलने का कोई कार्यक्रम है? या वह भी सत्ता में आने पर गरीबी-उन्मूलन की योजना ‘खैरात’ पर ही केंद्रित रखेंगे?
लेकिन फ़िलहाल राहुल गाँधी के पास शासन का कोई रेडिकल माडल नहीं है। उनका सर्वाधिक फोकस अभी तक अडानी-अंबानी के भ्रष्टाचार पर रहा है, जो सिर्फ भारत के बौद्धिक वर्ग की समझ में आता है। लेकिन आम जनता के मुद्दे शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार से जुड़े हैं। ये सारी चीजें सार्वजनिक क्षेत्र से दूर कर दी गई हैं। राहुल गाँधी सरकारी संपत्तियों को अडानी-अंबानी को बेचे जाने की बात तो करते हैं, पर यह नहीं बताते कि कांग्रेस की सत्ता में बेचीं गई संपत्तियां वापस ली जाएँगी या नहीं? वह यह भी नहीं स्पष्ट नहीं करते कि कांग्रेस सरकार की नीतियां पूंजीवादी होंगी या समाजवादी, निजीकरण की होंगी या राष्ट्रीयकरण की? जनता यह क्यों न जानना चाहेगी कि भाजपा के रथ को कांग्रेस कैसे रोकेगी? जब राहुल गाँधी के पास भाजपा से अलग कोई आर्थिक एजेंडा ही नहीं है, तो क्या जनता यह नहीं समझ रही है कि कांग्रेस सरकार में भी उसे इन्हीं समस्याओं से जूझना पड़ेगा, जिनसे वह आज जूझ रही है?
ऐसा नहीं है कि जनता बदलाव नहीं चाहती। वह बदलाव चाहती है। लेकिन कांग्रेस को जितने प्रतिशत वोट मिला है, वह बदलाव के लिए ही मिला है, ऐसा नहीं है। उसमें काफ़ी हद तक कांग्रेस का परम्परागत वोट शामिल है, जो कांग्रेसी जनता का वोट हो सकता है, परन्तु बदलाव का वोट वह होता है, जो एक लहर के रूप में आता है, एक सुनामी की तरह आता है, और एक आंधी की तरह आता है। उस वोट के लिए राहुल गाँधी को अपने मूर्खतापूर्ण नरम हिन्दुत्व के एजेंडे को छोड़ना होगा, और यह सोचकर नहीं कि सवर्ण मित्र नाराज हो जायेंगे, बल्कि यह सोचकर कि दलित-ओबीसी, मुस्लिम और आदिवासी बहुसंख्यक समाज का सशक्तिकरण कैसे हो, इस पर मंथन करके उन्हें अपना नया आर्थिक एजेंडा तैयार करना होगा।