(आलेख : विजू कृष्णन, अनुवाद : संजय पराते)

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के महासचिव कॉमरेड सीताराम येचुरी भारत में वामपंथ के सबसे चर्चित चेहरों में से एक रहे हैं। पिछले दशक में वे कॉरपोरेट-सांप्रदायिक और तानाशाही शासन के सबसे मुखर विरोधियों में से एक रहे हैं। 1974 में स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया के छात्र आंदोलन के जरिए अपनी राजनीतिक सक्रियता शुरू करने के बाद, उनके जीवन के अगले पाँच दशक समाजवाद और जनता की मुक्ति के प्रति अमिट प्रतिबद्धता के रहे।

1970 के दशक के उथल-पुथल भरे वर्षों में ही उनके राजनीतिक विचार प्रखर हुए। वियतनाम में अमेरिकी साम्राज्यवाद की अपमानजनक हार, दुनियां में साम्राज्यवाद-विरोधी आम उभार, चिली में प्रतिरोध के साथ अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता, फिलिस्तीनी मुक्ति आंदोलन, रंगभेद-विरोधी आंदोलन और क्यूबा के लोगों के वीरतापूर्ण प्रतिरोध ने निस्संदेह उनके समय के युवाओं को प्रेरित किया था। इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार द्वारा लगाए गए तानाशाहीपूर्ण आपातकाल के दौरान वे भूमिगत हो गए और प्रतिरोध को संगठित किया, अंततः 1975 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। आपातकाल के बाद, वे एक ही शैक्षणिक वर्ष 1977-78 के दौरान तीन बार जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए। यह सम्मान केवल उनके ही पास है, जो उनकी लोकप्रियता के साथ-साथ कैंपस में उस एसएफआई की मजबूत उपस्थिति का प्रमाण है, जिसके निर्माण में उन्होंने मदद की। वे 1984-86 के दौरान वे एसएफआई के अखिल भारतीय अध्यक्ष रहे। 32 वर्ष की अपेक्षाकृत कम उम्र में ही उन्हें 1984 में सी.पी.आई.(एम.) की केंद्रीय समिति में शामिल कर लिया गया था और अगले वर्ष नवगठित केंद्रीय सचिवालय में शामिल कर लिया गया। 1992 में माकपा के 14वें अखिल भारतीय सम्मेलन में उन्हें पोलिट ब्यूरो के लिए चुना गया था।

पोलिट ब्यूरो में उनका प्रवेश ऐसे समय में हुआ था, जब दुनिया भर में समाजवाद के भविष्य को लेकर तीखी बहस चल रही थी और सोवियत संघ के पतन के बाद ‘इतिहास के अंत’ और उदारवादी नीतियों की जीत की चर्चा हो रही थी। यह वह समय भी था, जब भारत में फासीवादी आरएसएस के नेतृत्व में राजनीतिक दक्षिणपंथी ताकतें उभर रही थीं। उन्होंने सामूहिक नेतृत्व के साथ मिलकर सीपीआई-(एम) को वैचारिक स्पष्टता के साथ आगे बढ़ाया, जिससे कार्यकर्ताओं में निराशा टूटी और उम्मीद की किरण जगी। इस दौरान साम्राज्यवाद, नवउदारवादी आर्थिक नीतियों, सांप्रदायिक ताकतों और हिंदुत्व की विचारधारा पर उनके लेख बहुत प्रासंगिक हैं। भारत में गठबंधन की राजनीति के दौर में उन्होंने नीतियों और साझा न्यूनतम कार्यक्रम को तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, खासकर तब जब पहली यूपीए सरकार बनी थी। यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान वामपंथ की ताकत का इस्तेमाल प्रगतिशील कानूनों जैसे कि मनरेगा, वन अधिकार अधिनियम, सूचना का अधिकार अधिनियम आदि के क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए किया जा सका।

12 वर्षों तक सांसद के रूप में, वे सांप्रदायिक-कॉर्पोरेट भाजपा शासन के खिलाफ सबसे प्रभावी आवाजों में से एक के रूप में देखे गए और कई मौकों पर उन्होंने सरकार को कटघरे में खड़ा किया। मजदूर वर्ग, किसानों और उत्पीड़ित लोगों के मुद्दों पर वे संसद के साथ-साथ सड़कों पर भी एक प्रेरक उपस्थिति थे। विशेष रूप से उल्लेखनीय है : भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के दौरान उनकी भूमिका और किसानों के ऐतिहासिक संघर्ष के दौरान उनके समर्थन में विपक्षी दलों को लामबंद करना, जिससे अंततः नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को माफी मांगने और तीन कॉर्पोरेट समर्थक कृषि अधिनियमों को वापस लेने के लिए मजबूर किया जा सका। विभाजनकारी नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ प्रतिरोध का निर्माण करने, संविधान, धर्मनिरपेक्षता, जम्मू और कश्मीर के लोगों के अधिकारों, राज्यों के संघीय अधिकारों, नागरिक स्वतंत्रता, उत्पीड़ितों के अधिकारों की रक्षा में उनकी भूमिका ने भी उन्हें व्यापक सम्मान दिलाया। सार्वजनिक संपत्तियों के निजीकरण, खाद्य सुरक्षा, विमुद्रीकरण के खतरे, जीएसटी और ऐसे ही मामलों के साथ-साथ कॉर्पोरेट भाईचारे के खिलाफ भी उनकी आवाज एक मजबूत आवाज थी। वे जनता के एक उत्कृष्ट शिक्षक भी थे, जिन्होंने पूंजीवादी विकास के साम्राज्यवाद, फासीवाद और नवउदारवादी त्रिशूल का मुकाबला करने के लिए उन्हें वैचारिक रूप से तैयार किया। वर्ग संघर्ष को अस्पृश्यता, सामाजिक उत्पीड़न और भेदभाव के खिलाफ संघर्ष के साथ जोड़ने की आवश्यकता पर उनके विचार की स्पष्टता भी उल्लेखनीय है। अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ-साथ विश्व के नेताओं के साथ उनके व्यापक संपर्क को भी बखूबी मान्यता मिली है और नेपाल में राजशाही विरोधी संघर्ष के बाद और वहां विभिन्न कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ समन्वय सहित लोकतांत्रिक परिवर्तन में उनकी भूमिका को अक्सर उद्धृत किया जाता है।

नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के क्रियान्वयन के साथ कृषि क्षेत्र में उभरते अंतर्विरोधों के बारे में उनकी अंतर्दृष्टि ने आंदोलन के एक सही कॉर्पोरेट विरोधी रुख को विकसित करने में मदद की, बिना इस तथ्य को नजरअंदाज किए कि इस एकता के केंद्र में भूमिहीन, खेत मजदूर और गरीब किसान होने चाहिए, जिनके इर्द-गिर्द एक साझा दुश्मन को हराने के उद्देश्य को पूरा करने के लिए सबसे व्यापक एकता का निर्माण किया जाना चाहिए। उन्होंने अक्सर पार्टी कार्यक्रम के इस पहलू पर जोर दिया कि कृषि क्रांति जनता की जनवादी क्रांति की धुरी है और इसके लिए मजबूत मजदूर-किसान एकता का महत्व को उन्होंने प्रतिपादित किया। कॉमरेड सीताराम ने लगातार भारत में हिंदुत्व फासीवादी ताकतों के उदय को वैश्विक पूंजी के उदय और आधिपत्य के साथ जोड़ा और जोर दिया कि केवल मजदूर-किसान गठबंधन ही इन विभाजनकारी फासीवादी ताकतों का विरोध कर सकता है और उसे पराजित कर सकता है।

व्यक्तिगत रूप से, मेरा उनसे तीन दशक पुराना जुड़ाव रहा है। 1995 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के एक छात्र के रूप में मैं पहली बार उनसे छात्र संघ द्वारा आयोजित एक सार्वजनिक बैठक में मिला था। इस विश्वविद्यालय का मैं दस साल तक छात्र रहा। इस दौरान, ऐसे अनगिनत अवसर आए थे, जब उन्होंने अपने भाषणों से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया, जिनमें राजनीतिक घटनाक्रमों पर रिपोर्टिंग, उनके व्यापक अनुभवों से जुड़े किस्से, सांस्कृतिक और साहित्यिक संदर्भ होते थे। उनके भाषणों में हास्य और तीखेपन का अद्भुत मिश्रण होता था। जेएनयू छात्र संघ के लिए एक के बाद एक चुनावों में, अंतिम आम सभा के वक्ता के रूप में उनकी मांग सबसे अधिक होती थी। यह आमसभा आमतौर पर चुनाव अभियान का चरमोत्कर्ष होता था, जो संगठित वामपंथ के पक्ष में निर्णायक माहौल बनाता था और हमेशा इसमें सबसे ज्यादा भीड़ होती थी। कई मायनों में हम उनके बोलने के क्रम का अनुमान लगा सकते थे। वे श्रोताओं से यह सवाल पूछते थे कि वे अंग्रेजी में बोलें या हिंदी में या अपनी मातृभाषा तेलुगू में, क्योंकि वे बहुभाषी थे। वे छात्र आंदोलन में अपने अनुभव बताते थे, तीन बार छात्र संघ के अध्यक्ष चुने जाने पर जोर देते हुए बताते थे कि जेएनयू में लोकतंत्र कैसे काम करता है। वे कांग्रेस द्वारा लगाए गए आपातकाल के दमन के बारे में बताते थे और कैसे उन्होंने इंदिरा गांधी को जेएनयू छात्र संघ की वह मांग पढ़कर सुनाई, जिसमें उनसे विश्वविद्यालय के कुलपति पद से हटने के लिए कहा गया था, जिस पर उन्होंने 1977 के चुनावों में अपनी हार के बाद भी कब्जा बनाए रखा था। पी.जी. वोडहाउस से कुछ उद्धृत करते हुए, गंगा छात्रावास में रहने की यादों को ताजा करते हुए, जो उस समय लड़कों का छात्रावास था, वे पूंजीवाद के ‘टीना’ के तर्क का “समाजवाद ही विकल्प है” जवाब देते हुए, मुस्कुराते हुए इसके संक्षिप्त नाम एसआईटीए (सीता) का जिक्र करते थे। यह केवल नए श्रोताओं को बाद में आने वाले अधिक महत्वपूर्ण मुद्दों की ओर आकर्षित करने के लिए एक तैयारी होती थी। वे जाति उत्पीड़न और सांप्रदायिक राजनीति की तीखी आलोचना के साथ-साथ विश्व घटनाक्रम, साम्राज्यवादी आक्रमण और राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य का विश्लेषण भी करते थे। समसामयिक मुद्दों पर व्यापक तरीके से चर्चा करने वाला उनके भाषण का यह अंतिम भाग सबसे अधिक अंतर्दृष्टिपूर्ण होता था और अध्यक्ष पद की बहस के लिए स्वर और भाव निर्धारित करता था और साथ ही मतदाताओं पर अपनी छाप छोड़ता था। जटिल मुद्दों से निपटते हुए भी सरल और आकर्षक तरीके से अपनी बात कहने की उनकी क्षमता, चाहे भाषण में हो या लेखन में, विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

वे असाधारण शैक्षणिक योग्यता वाले व्यक्ति थे और आपातकाल के तुरंत बाद तेजी से बदलते राजनीतिक घटनाक्रम के कारण उन्हें अपनी पीएचडी छोड़नी पड़ी थी। मुझे बहुत प्यार से उनका यह आग्रह याद आता है कि मैं उनकी तरह और उनके कई अन्य साथियों की तरह अपनी पीएचडी पूरी करने से पहले बीच में न छोडूं। मैं वास्तव में इसे पूरा करने में कामयाब रहा। जब से मैंने अपनी अध्यापन की नौकरी छोड़ी और पार्टी और अखिल भारतीय किसान सभा में पूर्णकालिक रूप से काम करना शुरू किया, तब से कई ऐसे अवसर आए, जब हमने मुद्दों पर, आंदोलन की दिशा के बारे में और व्यापक सहमति बनाने के लिए बातचीत की। ऐसे भी अवसर आए, जब उन्होंने सलाह ली या ऐसे मुद्दों को ध्यान में लाया, जो हमारी प्रतिक्रिया के योग्य थे। पिछले तीन दशकों में, कई बार अलग-अलग बहसों के विपरीत पक्षों पर होने के बावजूद, उन्होंने हमेशा गर्मजोशी से भरा व्यवहार बनाए रखा और मेरे विचारों को आकार देने में भी भूमिका निभाई।

उनसे मेरी आखिरी बातचीत नागा लोगों की ओर से शांति प्रक्रिया की प्रगति के बारे में की गई थी और उन्होंने आश्वासन दिया था कि वे विपक्षी दलों को प्रधानमंत्री को पत्र लिखने के लिए प्रेरित करने में भूमिका निभाएंगे और उनके इन बड़े-बड़े दावों पर सवाल उठाएंगे कि उन्होंने मामले को सुलझा लिया है। यह काम अधूरा रह गया। अलविदा प्रिय कॉमरेड! लाल सलाम कॉमरेड सीताराम!!

(लेखक माकपा के केंद्रीय सचिवमंडल सदस्य और अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव हैं। संपर्क : 98188 64006. अनुवादक छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)