मुंबई:
सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने देश में बढ़ती ऑनर किलिंग पर चिंता जताते हुए कि आखिर जाति और धर्म के बंधनों से परे जाकर विवाह करने वाले जोड़ों की सम्मान और इज्जत के नाम पर क्यों हत्या कर दी जा रही है।

उन्होंने कहा कि यह बेहद गंभीर विषय है कि देश में सैकड़ों युवाओं को हर साल ऑनर किलिंग का शिकार होना पड़ता है क्योंकि वो परिवार के खिलाफ जाकर अपनी पसंद से शादी करते हैं या पिर वे दूसरी जाति या धर्म के पार्टनर का चयन करते हैं, उनसे प्यार करते हैं।

मुख्य न्यायाधीश ने यह महत्वपूर्ण प्रश्न शनिवार को मुंबई में आयोजित पूर्व अटॉर्नी जनरल अशोक देसाई के स्मृति व्याख्यान में खड़ा किया।

व्याख्यान के विषय ‘कानून और नैतिकता’ विषय पर बेलते हुए उन्होंने नैतिकता से जुड़े समलैंगिकता को अपराध बनाने वाली धारा 377, मुंबई के बार में नाचने पर लगाई जाने वाली रोक, वेश्यावृत्ति आदि कई ऐसे मसलों का जिक्र किया, जिनमें तय होने वाले आचार संहिता और नैतिकता के मानदंड के कारण एक कमजोर वर्ग को काफी कुछ झेलना पड़ता है।

उन्होंने कहा, “कमजोर और हाशिए पर रहने वालों के पास अपने अस्तित्व को बचाने के लिए पेश की जा रही संस्कृति के सामने आत्मसमर्पण करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है। वह दमनकारी समूहों के हाथों अपमान, तिरस्कार और अलगाव के कारण इतने कमजोर होते हैं कि थोपी जा रही संस्कृति के खिलाफ किसी भी तरह की काउंटर संस्कृति बनाने में असमर्थ होते हैं।”

सीजेआई चंद्रचूड़ ने अपने संबोधन में आगे कहा, “ऐसे कमजोर समूह को विकसित करने, उनमें आत्मविश्वास भरने के लिए, उन्हें और भी शक्तिशाली बनाने के लिए सरकारी समूहों द्वारा प्रयास किया जाना चाहिए। जिससे उनमें आत्मविश्वास पैदा हो और वो भी प्रगति के रास्ते पर चल सकें, जो आज भी सामाजिक संरचना की दृष्टि से काफी निचले पायदान पर संघर्ष कर रहे हैं।”

उन्होंने कहा, “क्या मेरे लिए जो सही है, वह आपके लिए सही नहीं है?’ आखिर क्यों सम्मान के नाम पर सहमति के आधार पर एक हुए बालिगों की हत्याएं होती हैं।”

इस मौके पर उन्होंने साल 1991 में यूपी में ऑनर किलिंग के नाम पर हुई एक पंद्रह साल की बच्ची की हत्या का जिक्र करते हुए कहा, “उस केस में परिजनों ने अपराध करना स्वीकार किया और उनके तरीके से किया गया बर्बर कार्य स्वीकार्य और न्यायोचित था क्योंकि वे उस समाजिक बंधनों में बंधे थे, जहां उसे सही ठहराया जा रहा था। लेकिन दूसरी ओर यह प्रश्न भी खड़ा होता है कि क्या वह सामाजिक बंधन या आचार संहिता तर्कसंगत लोगों द्वारा रखा गया? अगर नहीं तो क्या इसे रोकने के लिए समझदार लोग आगे आएंगे?”