क्रांतिकारियों के हौसले से हिली ब्रिटिश सरकार
काकोरी कांडः 09 अगस्त पर विशेष
दीवान सुशील पुरी
काकोरी कांड की इस छोटी सी दिखने वाली घटना नें तत्कालीन ब्रिटिश सरकार की नींव हिला कर रख दी थी। काकोरी षड्यंत्र को राष्ट्रीय आंदोलन का एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर माना गया। क्रांतिकारी दल संगठन के पास धन की कमी होने के कारण कोई ठोस कार्यक्रम नहीं हो पा रहा था, कुछ सदस्य यहां जबरदस्ती रुपया वसूल करने की सोच रहे थे, तो कुछ इसके विरुद्ध थे कि ये एक प्रकार की डकैती होगी।
7 मार्च, सन 1925 में बिचपुरी तथा 24 मई 1925 को द्वारकापुर में डकैती डाली गई लेकिन विशेष धन प्राप्त नहीं हो सका। पूर्व निश्चित रईसों के घर डकैती डाली थी, आजाद जी छत पर से गोली चलाते रहे जिसमें एक किसान की गोली लगने से मृत्यु हो गई थी। इस खबर से सबको आत्मग्लानि सी महसूस हुई थी, फिर तय हुआ कि अब देहात में एक्शन बंद कर दिए जाए। जब गांव की डकैती बंद हो गई तो प्रश्न यह था कि किसी बैंक को लूटा जाए या रेल खजाने को। अशफाकउल्ला जी ने इस कदम का कड़ा विरोध किया, यह कहकर कि पार्टी सरकार को चुनौती तो जरूर दे देगी लेकिन पार्टी का भी अंत प्रारंभ हो जाएगा। धन इकट्ठा करने के लिए और कोई चारा नहीं था। इसलिए ट्रेन डकैती की योजना बनाई गई।
“हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन“ के केवल 10 सदस्यों ने इस पूरी घटना को अंजाम दिया था, जो विभिन्न केंद्रों से आकर इकट्ठे हुए थे । इसमें ज्यादातर लोग लखनऊ के ’ छेदीलाल धर्मशाला ’ में ठहरे थे । वे लोग एक टोली में नहीं बल्कि अलग-अलग अपरिचित व्यक्तियों के रूप में ठहरे थे। 8 अगस्त, 1925 को लखनऊ से पश्चिम की ओर रवाना हुए किन्तु अगले स्टेशन के सिग्नल के नजदीक भी नहीं पहुंचे थे कि 8 डाउन सवारी गाड़ी उनके सामने से निकली जा रही थी, उस दिन कोई एक्शन नहीं कर सके।
अगले दिन 9 अगस्त, 1925 को दूसरी योजना पर काम किया गया। सब दोपहर के समय लखनऊ से पश्चिम की ओर जाने वाली गाड़ी पर सवार हुए और काकोरी स्टेशन पर उतर गए। 8 डाउन सहारनपुर लखनऊ पैसेंजर ट्रेन में अशफाकउल्ला खां, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और शचीन्द्रनाथ बख्शी ने सेकंड क्लास के टिकट लिए और सेकंड क्लास में बैठ गए। बाकी सब लोग ट्रेन में आगे बढ़कर साधारण क्लास में बैठ गए। सेकंड क्लास के डिब्बे में बैठे साथियों ने जंजीर खींच ली और गाड़ी रुक गई। यह घटना काकोरी और आलमनगर के बीच हुई। जैसे ही गाड़ी खड़ी हुई सब साथी गाड़ी से उतर पड़े और फौरन गार्ड को पेट के बल लिटा दिया और यात्रियों से बोला हमारी आप से कोई दुश्मनी नहीं है। आप लोग अपने-अपने स्थान पर बैठे रहें।
संदूक में प्रत्येक स्टेशन से जो खजाना इकट्ठा होता हुआ आया था, उसे धकेल कर नीचे गिरा दिया गया। इस संदूक को तोड़ने के लिए एक बड़ा हथौड़ा और छेनी पहले से ही तैयार की गई थी। कई लोग इस संदूक को तोड़ने में लग गए लेकिन संदूक टूट नहीं रहा था, तो अशफाक जी ने अपना माउजर मन्मथनाथ गुप्त जी को पकड़ा दिया और खुद तोड़ने में लग गए, उन्होंने इस प्रकार हथौड़े की चोटें मारी कि शीघ्र ही संदूक टूट गया और उसमें से 8000/- रुपये निकले, जो इस समय के लाखों के बराबर था। और फिर मन्मथनाथ गुप्त जी से उत्सुकता वश ट्रिगर दब गया और उससे छूटी गोली अहमद अली नाम के एक यात्री को लग गई, जिससे वहीं पर उनकी मृत्यु हो गई।
वहां से भागने पर एक चादर वहां छूट गई। अगले दिन समाचार पत्रों के माध्यम से यह समाचार पूरे विश्व में फैल गया। ब्रिटिश सरकार ने इस डकैती को बड़ी गंभीरता से लिया। खुफिया तसद्दुक हुसैन ने ब्रिटिश सरकार को बताया कि यह सुनियोजित षड्यंत्र है। उसमें धोबी के निशान से इस बात का पता चल गया कि चादर शाहजहांपुर के किसी व्यक्ति की है। धोबियों से पूछने पर पता चला कि चादर बनारसी लाल की है। उससे सारा भेद पुलिस ने ले लिया। इस ऐतिहासिक मामले में 40 व्यक्ति को अपराधी ठहराया गया था। काकोरी कांड में वास्तविक तौर पर 10 लोग ही थे। उनमें राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्लाह ख़ाँ, ठाकुर रोशन सिंह और राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को फाँसी दी गई। राम प्रसाद बिस्मिल को 19 दिसंबर, 1927 को गोरखपुर जेल में फांसी दे दी गई। 18 दिसंबर 1927 को बिस्मिल जी के माता पिता और छोटा भाई सुशील उनसे अंतिम मुलाकात करने जेल गये। माँ को देखकर बिस्मिल जी की आँखों में आँसू आ गये। “लोग मेरे पास मिलने आते हैं, मैं कहती हूँ मेरा बेटा हँसते हँसते फाँसी पर चढ़ेगा। अच्छा होता कि तू मेरी कोख़ से जन्म नहीं लेता।“ इस पर बिस्मिल जी कहते हैं “यह आँसू मेरी कमज़ोरी नहीं बल्कि प्रार्थना है कि मेरा अगला जन्म भी आप जैसी वीरांगना माँ की कोख़ से हो।“
राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को 17 दिसंबर, 1927 को गोण्डा के जिला कारागार में फांसी दे दी गई। राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी सुबह नियमानुसार दंड बैठक लगा कर स्नान किया और गीता का पाठ किया। जेल वाले उनकी गतिविधियों का अवलोकन करते रहे कि जो व्यक्ति 5 मिनट बाद नहीं रहेगा वह दंड-बैठक लगा रहा है और गीता का पाठ पढ़ रहा है। लाहिड़ी जी ने कहा कि मैं समझता हूं मैं कुछ देर बाद नहीं रहूंगा। लेकिन आपको मालूम है, मैं हिंदू हूं, मुझे अटल विश्वास है कि मैं मरने नहीं पुनर्जन्म लेने जा रहा हूँ।
ठाकुर रोशन सिंह को 19 दिसंबर, 1927 को मलाका/नैनी जेल, इलाहाबाद में फांसी हो गई। श्री रामकृष्ण खत्री जी, गोविंद चरण कर, योगेश चटर्जी, मुकुंदी लाल तथा राजकुमार को 10 -10 साल की सजा सुनाई गई, बाद में मुख्य न्यायालय में याचिका दायर करने के बावजूद गोविंद चरण कर, योगेश चटर्जी और मुकुंदी लाल को 10 वर्ष से बढ़ाकर उम्रकैद कर दी । प्रेम कृष्ण खन्ना, राम दुलारे त्रिवेदी, भूपेंद्र सान्याल को 5 – 5 साल की सजा सुनाई गई । कुछ लोग फरार थे, जैसे चंद्रशेखर आजाद, अशफाकउल्ला खां, शचीन्द्रनाथ बख्शी और कुंदन लाल। फरार क्रांतिकारियों में अशफाकउल्ला खां को दिल्ली और शचीन्द्रनाथ बख्शी को भागलपुर से, उस समय अवरुद्ध किया, जब काकोरी काण्ड के प्रकरण का फैसला सुनाया जा चुका था। विशेष न्यायाधीश जे.आर.डब्ल्यू. बैनट की न्यायलय में काकोरी षड़यंत्र का प्रकरण दर्ज हुआ और 13 जुलाई, 1927 को इन दोनों पर सरकार के विरुद्ध साजिश रचने का संगीन आरोप लगाते हुए अशफाकउल्ला खां को फांसी और शचीन्द्रनाथ बख्शी को आजन्म काला पानी की सजा हुई।
मुक़दमे के दौरान अशफाकउल्ला खां जी ने एक शेर कहा था, “ चलो-चलो यारों रिंग थियेटर दिखाएं तुमको। वहाँ पर लिबरल, जो चंद टुकड़ों पर सीमोजर का नया तमाशा दिखा रहे हैं।“ दरअसल यह शेर मुख्य केस के सरकारी वकील पंडित जगत नारायण मुल्ला पर सुनाया गया था। ब्रिटिश सरकार ने लखनऊ के लोअर कोर्ट में सुनवाई के लिए खान बहादुर सैयद ऐनुद्दीन को स्पेशल मजिस्ट्रेट नियुक्त किया और लगभग 6 महीने लोअर कोर्ट केस की सुनवाई हुई। बाद में अंग्रेजों के नाट्य घर रिंग थिएटर में (जो अब लखनऊ में जनरल पोस्ट ऑफिस है)। वहां पर 1 साल केस चला। बाद में 6 अप्रैल 1927 को इस केस का फैसला सुनाया गया।
गाजीपुर में उदासीन साधुओं का मठ था। उसकी आय काफी अच्छी थी। रामकृष्ण खत्री जी से महंत का परिचय था। महंत बीमार हो गया और खत्री जी से बोला कोई शिष्य बताओ जो मेरी सेवा कर सके। मठ की सारी ज़िम्मेदारी उसे देना चाहता हूँ। खत्री जी के साथ चंद्रशेखर आज़ाद भी सुन रहे थे। आज़ाद जी यह बात सुनकर एकदम तैयार हो गए और बोले – “मैं जात का पंडित हूँ, मुझसे अच्छा कोई शिष्य नहीं हो सकता“। उनके साथियों ने कहा तुम पागल हो गए हो, पार्टी का कार्य कौन करेगा। सिर मुंड़वाना पड़ेगा, गुरुमुखी पढ़नी, पड़ेगी गोबर उठाना पड़ेगा। आज़ाद जी बोले मैं सब कुछ कर लूँगा। सभी क्रांतिकारियों की इच्छा से उन्हें मठ पहुँचा दिया गया। लेकिन महंत ठीक हो गया, रोज दो किलो दूध पीता था। फिर आज़ाद जी भाग कर बनारस वापस आ गये। धन इकठ्ठा करने का कोई चारा नज़र नहीं आ रहा था इसलिए काकोरी काण्ड को अंजाम दिया गया।
यह ट्रेन डकैती नहीं थी, क्रांतिकारियों का मकसद था पैसा लूटकर हथियार खरीदना ताकि अंग्रेजों से देश को मुक्त कराया जा सके।
(लेखकः “शहीद स्मृति समारोह समिति“के उपाध्यक्ष एवं कोषाध्यक्ष हैं।)