औरंगजेब आलमगीर के उस्ताद शेख मुल्ला अहमद जीवन रह0
मोहम्मद आरिफ नगरामी
अवध वह सरजमीन है जिस की खमीर से ऐस ऐसे आलिमे बाअमल उठे हैं जिनकी जिन्दिगी मशअले राह बनी मुल्ला निजामुद्दीन सहलवी और उनके अखलाफ जिनको उलमाये फिरंमहल के नाम से याद किये जाते हैं, इसी तरह सैयद अहमद शहीद और उनके अखलाफ मौलाना फजलुर्रहमान , गंज मुरादाबादी , मौलाना हाफिज अब्दुल अली नगरामी,और दीगर उलमाये नगराम, इसकी रौशन मिसाल हैं। इसी अवध की सरजमीन अमेठी में एक ऐसी भी शख्सियत थी, जिसमें जब तालीम व तरबियत का बारेगेरां उठाया तो हिन्दुस्तान में इस्लामी हुकूमत का एहसास हुआ। यों तों बहुत पहले ही हिन्दुस्तान में मुसलमानों की हुकूमत थी जिनमेें लोधी ममलूक, खलीजी और दीगर सलातीन शमिल हैं। मुगलों का दौर सबसे ज्यादा तवील रहा। इसके बावजूद इस्लीामी हुकूमत का एहसास उस वक्त हुआ जब औरंगजेब आलमगीर तख्तनशीन हुये, जिनकी तालीम व तरबियत शेख मुल्लाह अहमद जीवन ने की थी। यह उनकी फैजाने नजर का ही नतीजा था कि एक शहंनशाह जिसके खानदान की हिन्दुस्तान पर एक अरसये दराज तक हुकूमत रही और रवादारी के नाम पर इस्लामी नुकतये नजर से उनके कदम हट गये। मगर जब औरंगजेब आलमगीर रह0 मसनदे एक्तेदार पर जलवाअफरोज हुये तो उन्होंने इस्लामी कवानीन का नेफाज शुरू किया। इससे अन्दाजा होता है कि मुल्ला अहमद जीवन,अमेठवी की तरबियत का अन्दाज दूसरे से जुदा था। फतावा आलमगीरी से कौम नवाकिफ है। हिन्दुस्तान मंें फिकहे हनफी की एक ऐसी मुस्तनद किातब है जिसके बेगैर इस्तफता के जवाबात देना कम अज कम हिन्दुस्तानमें मुशकिल है जिसकी तालीफ में उनके शागिर्द अहमद इब्ने मन्सूर गोपामउ का अहेम किरदार है।
मुल्ला अहमद जीवन एक आलिमेें बाअमल थे। उन्होंने अपने दौर में तिशनगाने उलूमे नवबुव्वत को सैराब किया जिसके लिये उन्होंने मदरसा भी कायम किया जहां हजारों की तादाद में तलबा जेरे तालीम थे जिनमें तुर्की, ईरान, समेत कइ्र दीगर मुमालिक के भी तलबा शामिल थे। इस मदरसे की अहमियत का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मुगलिया हुकूमत की तरफ से सालाना एक लाख रू0 दिये जाते थे। अमेठी में आज भी एक मदरवा वार्ड है। कहा तो यह जाता है कि इस पूरे वार्ड में सिर्फ मुल्ला अहमद जीवन का मदरसा था। यहां के मकामी अफराद का कहना है कि घरों की तामीर के लिए अगर बुनियाद की खुदाई की जाती है तो कंकड पत्थर निकलते हैं जो किसी कदीम इमारत की अलामत हैं। मुल्ला अहमद जीवन की वेलादत 25 शामान 1047 हिजरी में अमेठी जिला लखनऊ में हुयी।
मुल्ला अहमद जीवन सात बरस की उम्र में न सिर्फ हिफजे र्कुआन मुकम्मल किया बल्कि केरत के वसूल व जवाबी व रमूज व अवकातद से बखूबी वाकफियत हासिल की। उनकी इब्तेदाई तालीम तो वालिद शेख सईद ने शुरू की लेकिन शेख मुल्ला सादिक और मुल्ला लुत्फुल्लाह कोडा, जहांबादी के सामने जानुवे तलम्मुज तय किया। उन्होंने हदीस शरीफ उतलुबुल इलमा व लौ कानत बित्तीन इल्म हासिल करों चाहे चीन जाना पडे। तलबे इल्म के लिये उनकी जद्दोजेहद का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने हैदराबाद, लाहौर, देहली और अजमेर का सफर उस वक्त किया जब सफर दुशवारियेां से भरा हुआ करता था। आमद व रफत के वेसाएल नहंी थे, इन्सान बहुतज ज्यादा जादेराह लेकर नहंी चल सकता था। काफिलों के साथ सफर किया जाता था। ऐसे दौर में मुल्ला अहमद जीवन ने यहां से लाहौर तक सिर्फ हुसूले इल्म के लिये सफर किया जिसके बाद उन्होंने तिश नेगाने उलूमे नुबुव्वत को सैराब करना शुरू किया।
औरंगजेब आलमगीर रह0 की इल्मियत से कौन नावाकिफ है? वह भी मुल्ला अहमद जीवन के शागिर्दों में शामिल हैं, इस फिहरिस्त में अपने वक्त के जलील व कद्र उलमा के नाम शामिल हैं। मसलन अहमद बिन अली मन्सूर, गोपामउ , नवाब मोहम्मद जान देहल्वी, ताबे मोहम्मद लखनवी, सैयद मोहम्मद कादिरी, वारसी बिलग्रामी, मुल्ला अब्दुल कादिर बिन मुल्ला जीवन, जैबुन्निसा बेगम, बिन्ते आलगीर, शेख नेजामुद्दीन औरंगाबादी, वगैरा जिनमें ताबे मोहम्मद लखनवी ने सतेह हनफी पर सिराजुल नेजाम के नाम से एक मोअतबर किताप तालीफ की। इस तरह ओरंगजेम आलमगीर की बेटी जैबुन्निसा की जैबुन मंशियत और जैबुत्तफसीर बडी अहेम किताबेें है। उन्होंने मजमूई तौर से हिन्दुस्तान में फरोगे इल्म में अहेम किरदार अदा किया। यहां से लेकर लाहौर तक मुल्ला अहमद जीवन ने इल्म के दरिया बहायें। तफसीरे वक्फा में मोहतबर किताबों लिखीं ओर तफसीरे अहमदिया यह उनकी दो ऐसी किताबें हैं जिनका गुलगुला आज भी है। इनकी किताब खुतबात जुमा व ईदैन रिसाला इल्म व केरत सवानेह, दरमजाजात, लवाहे मुल्ला जामी, बुखरी मुस्लिम की शरह, तसव्वुफ में मनाकिबुल औलिया और सिर्फ 70 साल पर मुश्तमिल खुदनविश्त तहरीर की, वह सिर्फ एक आलिमे दीन ही नहंी थे बल्कि अदब से भी उनका बडा गहरा रिश्ता था। 25 सौ अशआर पर मौलाना रूम के तर्ज पर एक मसनवी लिखी, 200 अशआर पर मुश्तमिल कसीदा गिरोह के तर्ज पर नातिया कसीदा लिखा और इसी तरह पांच हजार अशार पर हाफिज शीराजी के अन्दाज पर उनका दीवान है। इतना ही नहंीद अरबी जबान में उनके 29 कसाएद मौजूद हैं। मुल्ला अहमद जीवन की इल्मी फतूहात से अन्दाजा लगाया जाउ सकता है कि वह किस पाया के आलिम व अदीब थे। वह सिर्फ इल्म के मैदान ही से वास्ता नहंी रखते थे बल्कि उन्होंने दो साल तक फौज के काजी के तौर पर खिदमात अन्जाम दीं। औरंगजेब आलमगीर ने हज की वापसी के बाद फौज का काजी मुकर्रर किया।
मुल्ला अहमद जीवन ने दो हज किये, पहला हज करने के बाद वह 1695 में हिन्दुस्तान वापस आये और दोबारा 1700 मेें फिर वह सफरे हज पर निकले। हिजाज में उन्होंने दो बरस गुजारे, जहां वालिद और वाल्दा के लिये हज्ज्े बदल किया। 1704 में वह अपने वतन अमेठी वापस हुये। दो साल केयाम के बाद, अपने शागिर्दों के साथ देहली चले गये। उस वक्त उनकी उम्र 70 बरस की थी। मुल्लाह अहमद जीवन की मुलाकात शाह आलम अव्वल से 1707 में हुयी जिनके साथ वह लाहौर चले गये। जहां उनके साथ काफी अरसे तक मुकीम रहे। शाह आलम अव्वल की वफात के बाद तकरीबन 1712 में दहली आये। जहां से अपने वतन अमेठी के लिये रवाना हुये।
उनकी जिन्दिगी का जब मुताला किया जाता है तो यह बात सामने आती है कि जोअफ और पीरी के बावजूद उन्होंने इल्म से शगफ जारी रखा। यहां तक कि 83 बरस की उम्र में भी दर्स व तदरीस का सिलसिला बरकरार रखा।
जिस दिन इन्तेकाल हुआ उस दिन भी उन्होने तलबा को उलूमे नबुव्वत से सैराब किया था। 1130 हिजरी को मुल्ला अहमद जीवन का इन्तेकाल, देहली की जामा मस्जिद के जुनूबी दालान की तरफ एक कोठरी में हुआ। उनकी तदफीन पीर मोहम्मद शफी के तकिया में हुयी। चॅॅकि आखिरी अय्याम में उनकी मुल्ला अहमद जीवन की ख्वाहिश थी कि वह अपने वतन जायें लेकिन बीमारी ओर नेकाहत की बिना पर ऐसा न कर सके। इसलिए तजहीज व तदफीन के बाद उनके ख्वाहिश पर गौर व खौज जारी रहा। 50 दिनके बाद 14 मुहर्रमुल हराम 1131 हिजरी को मुल्ला अहमद जीवन का दस्ते खाकी की ताबूत में रख कर देहली से अमेठी लाया गया जहां मदरसा इस्लामिया से मुल्हिक कब्रिस्तान मे तदफीन की गयी। आपकी औलादों में मुल्ला अब्दुल कादिर मोहम्मद मुल्ला अब्दुल बासित, मोहम्म्द और मुल्ला अब्दुल समद थे जो दीनी व असरी उलूम से बहरावर थे।
यों तो इस अवध की धरती से बहुत से उलमा ने जन्म लिया मगर जिस अन्दाज में शेख मुल्ला अहमद जीवन ने तालीम और दर्स व तदरीस के साथ तसनीफ का काम किया, वह वाकइ्र मशअले राह हैं। उन्होंने अपने वक्त के तिशनगाने उलूमे नुबुव्वत को तो सैराब ही किया मगर अपने बाद तसानीफ का वह जखीरा छोड गये जिनसे आज भी जूयाये इल्म इस्तेफादा करते हैं। उनकी किताबों की मोअतबरियत का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि नेसाबों में शामिल रहीं हैं। मुल्ला अहमद जीवन की सादा जिन्दिगी हमें दावते फिक्र देती है कि शहंशाह का उस्ताद सादा मेजाजी से जिया और उसी तरह दुनिया से चला गया। यानी यहां न कोइ्र कुछ लेकर आता है और न लेकर जाता है। सिवाये उन नेकियो के जो उसने दुनिया में की शेख मुल्ला अहमद जीवन और उनके सादगी पसंद शागिर्द औरंगजेब आलमगीर की जिन्दिगी तो यही बताती है कि इन्सान आता तो मुट्ठी बांध कर आता है मगर हाथ खोल कर चला जाता है।