(आलेख : बादल सरोज)

4 जून को चुनाव नतीजे क्या आए, अयोध्या और अयोध्यावासियों – जिनमे जाहिर है कि राम भी शामिल ही हैं –  की जान ही सांसत में आ गयी है। जैसे किसी ने अचानक से ‘छू’ बोल दिया हो, वैसे ही सारे के सारे भक्त अयोध्या की तरफ ऐसे लपक लिए हैं, जैसे उसे चींथ ही देंगे। सोशल मीडिया पर एंटी-सोशल्स और शाखा श्रृंगालों के हुजूम झुण्ड बनाकर अयोध्या पर धावा बोल रहे हैं ; घोर अपशब्दों की बौछार, गाली गलौज की गूंजती ललकार बमों और मिसाइलों की तरह अयोध्या पर दागी जा रही है। कुछ ऐसा माहौल बनाया जा रहा है, जैसे कि उनकी चली, तो वे अयोध्या का नामोनिशान ही मिटा देंगे। तरह-तरह के मीम बनाए जा रहे हैं। अयोध्या बहिष्कार की सार्वजनिक हिदायतें जारी की जा रही हैं कि देश भर से जो भी राम मंदिर के दर्शन करने जाए, वह अपना खाना-पानी, पूजा सामग्री सब साथ लेकर जाए, न अयोध्या में कुछ खरीदे, न वहां के किसी होटल-मोटल में रुके, मंदिर जाएं – दर्शन करें और बिना रुके उलटे पाँव वापस लौट आये। अयोध्या, खासकर वहां के हिन्दुओं को गरियाते हुए उन्हें जिन विशेषणों से विभूषित किया जा रहा है, वे इतने गलीज और अश्लील हैं कि उन्हें लिखा नहीं जा सकता – इनके अलावा जो हैं, उनमें अयोध्या वालों को  दाल, चीनी, पेट्रोल जैसी ‘तुच्छ’ चीजों के लिए पूंछ हिलाने वाला लालची, तलवार की दम पर सलवार पहनने वाला कायर और न जाने क्या-क्या नहीं कहा जा रहा। मारामारी सिर्फ सोशल मीडिया में ही नहीं है, भाजपा शासन के अयोध्या प्रशासन ने भी अपरोक्ष रूप से बदला लेने का यही काम शुरू कर दिया है। उन गरीबों, मजलूमों के खिलाफ डंडे चलाये जा रहे हैं, जिनके बारे में उन्हें लगता है कि उन्होंने भाजपा का साथ नहीं दिया। शुरुआत रिक्शा चालकों और ठेला खोमचा सब्जी वालों से हुई है।

कथित हिन्दू धर्म रक्षकों का अयोध्या के हिन्दुओं का यह धिक्कार-महोत्सव सिर्फ यूपी तक सीमित नहीं है, अक्खा अखंड भारत में हिन्दुत्व के ये योद्धा मार लंगोटा घुमाये विचर रहे हैं। यूपी और हिंदी पट्टी के बाहर अयोध्या पूरे उत्तर प्रदेश में बदल जाती है। गुजरात के अखबारों में छपी खबर के अनुसार एक भाजपा नेता ने सिर्फ अयोध्या नहीं, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के ‘भैय्यों’ के बहिष्कार का आह्वान कर दिया। अब इन नीचे वाले गदाधारियों की बात ही क्या करें, जब स्वयं अधूरे राममंदिर के रथ पर आरूढ़ होकर भारत फतह करने निकले, राम को लाने का दंभ दिखाने वाले नरेंद्र मोदी ने ही, पहली फुर्सत में ही, राम को वनवास दे दिया और 303 से नीचे गिरकर 240 पर आ जाने की विजय सभा में “जय जगन्नाथ” का जैकारा लगाकर जिस “जै-श्रीराम” के उदघोष से गला बिठा लिया था, उसका परित्याग कर दिया।  

विद्वेष का यह बदबूदार मवाद अचानक से नहीं फूट पड़ा है। यह वह नासूर है जिसे संघ–भाजपा – उनके पालित-पोषित मीडिया ने बड़े जतन से जहरीला बनाया है। और जैसा कि नियम है कि नफरत जब संक्रामक होती है, तब न शक्ल देखती है न धर्म, न इधर देखती है न उधर ;  वही हो रहा है। अब तक जिन्हें दूसरों पर ‘छू’ किया जाता था, इस बार वे हिन्दुओं पर, सो ही अयोध्या के हिन्दुओं पर, छोड़ दिए गए हैं। इस बार वे, जिसे राम की कहा और माना जाता है, उस अयोध्या के लिए आये हैं – कल वे राम के लिए भी आ जाएँ, तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए, क्योंकि हाल ही में जिन्होंने स्वयं के भगवान होने का एलान किया है, उनके ख़ास अमित शाह के लिए भी वे आ गए हैं। ऐसे बीसियों वीडियो हैं, जिनमें भाजपा और हिन्दुत्ववादी कुनबे के भगवा गमछा धारी कार्यकर्ता चुनावी हार के लिए अमित शाह को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। हाल तक शीर्ष पर जिन्हें दो नंबरी माना जाता था, ये उन्हें ‘नकली चाणक्य’ बता रहे हैं, ‘बेटे को बीसीसीआई का सचिव बनाने’ सहित उनकी अनेक कारगुजारियां गिनाते हुए वीडियो तक  जारी कर रहे हैं। यह नयी वर्तनी नहीं है – कुनबा इसे बरतता रहता है ; राजनीतिक इरादे से अधूरे मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा किये जाने और उसके अनुष्ठान के लिए किये जा रहे स्वांग को गलत बताने वाले, सनातन धर्म के शीर्षस्थ धर्मगुरुओं, चारों पीठों के शंकराचार्यों के खिलाफ इसी गिरोह ने लगभग ऐसी ही भाषा का इस्तेमाल किया था। असहमति और प्रतिकूल राय के खिलाफ झुंझलाहट, सन्निपात के उन्माद में बदलने का यह संस्कार – जिसे मोदी ‘इको सिस्टम’ कहते हैं – इन्हीं ने सिखाया है, अब उलट कर कीच इन्हीं पर आ रही है। पढने-लिखने, जानने-समझने से बचने और कतराने के नतीजे ऐसे ही भुगतने पड़ते हैं ; भस्मासुर की कथा पढ़ी होती, तो ऐसे भस्मासुर पैदा करने के परिणामों की माहिती होती।

भाजपा सिर्फ फैजाबाद, जिसमे अयोध्या भी आती है, की लोकसभा सीट ही नहीं हारी है। वह फैजाबाद से लगी सटी प्रायः सभी सीट्स भी हारी है। लगता है जनता ने राम को लाने और पोलिंग बूथ पर बिठाने के दंभ का जवाब तय करके दिया है। पौराणिक कथाओं में राम से जुड़े सभी लोकसभा क्षेत्रों में भाजपा चारों खाने चित्त गिरी है। रामपुर, सीतापुर, प्रयागराज हारी ही,  रामकथा के अनुसार जहां राम ने वनवास के 11 वर्ष काटे थे, उस चित्रकूट और बाँदा और जिस रामटेक में आसरा लिया था, वहां  भी हार गयी। रामकथा से जुड़े सुल्तानपुर और उनके गुरु वशिष्ठ के घर बस्ती में भी पराजय मिली। जिस रामेश्वरम में खुद राम ने  शिवलिंग की स्थापना कर युद्ध शुरू किया था, उस रामेश्वरम में भी करारी हार मिली। जहां सूर्पनखा की नाक काटने का काण्ड बताया जाता है, उस नाशिक में और जिस जगह को हनुमान की जन्मस्थली कहते हैं, उस कोप्पल की जनता ने भी ठुकरा दिया। सिर्फ उत्तर में ही नहीं, दक्षिण में भी यह कोप जारी रहा ; तिरुपति बालाजी की लोकसभा सीट पर भी हार ही मिली। इन वंचक भगत धर्मध्वजाधारियों को दंडित करने के मामले में स्वामी विवेकानन्द भी पीछे नहीं रहे। आख़िरी चरण के मतदान के समय, जहां मोदी 10 कैमरों की संगत में 45 घंटे की ‘साधना’ में लीन थे, उस कन्याकुमारी ने भी भाजपा को विलीन कर दिया। विवेकानंद ने तो जैसे गिन-गिनकर हिसाब चुकाया और अपने जनस्थान की सीट और बेलूर मठ की सीट पर भी भाजपा को हार का स्वाद चखाया। जिसे शिव का खुद का बनारस कहा जाता है, वहां खुद मोदी शुरुआती कुछ घंटों तक पीछे रहने के बाद बमुश्किल जीते। जिन्हें वाराणसी ने 2014 में करीब पौने चार लाख, 2019 में पौने पांच लाख से ज्यादा वोटों से जिताया, उसी बनारस में वे कोई डेढ़ लाख से जीत पाए और इस तरह सबसे कम वोटों से जीतने वाले प्रधानमंत्री होने का रिकॉर्ड बनाया। हालांकि इस जीत को भी लेकर खुद उन्हीं की पार्टी के लोगों ने “कैसे जिताया है हम ही जानते हैं” जैसे दावे किये हैं। सुनते हैं कि इन नतीजों को देखकर उत्तराखंड और हिमाचल के मतदाता पछता रहे हैं, जिन्होंने मीडिया पर भरोसा कर भाजपा की चहुंमुखी जीत के भ्रम में वोट डाल दिया।

अयोध्या पर इस चढ़ाई को सिर्फ कुछ सिरफिरे और हार से बौखलाए भक्तों का प्रलाप कहकर नहीं छोड़ा जा सकता। इसने जो सामने लाया है, वह बहुत कुछ स्पष्ट कर देता है। उसे दोहराने और दर्ज किये जाने की जरूरत है। इस घोर असभ्यता से, एक बार फिर, साफ़ हो गया है कि भाजपा और संघ का “हिन्दू, हिन्दू” करना सिर्फ पाखंड और स्वांग है, इसका धार्मिकता और उसके प्राचीन ऐतिहासिक प्रतीकों या परम्परा  से कोई रिश्ता नहीं है। बनारस, अयोध्या से लेकर उज्जैन तक व्यावसायिक गलियारे बनाने के लिए सदियों पुराने हजारों मकानों को ही ध्वस्त नहीं किया गया, हजार वर्ष पुराने धार्मिक स्थलों, प्राचीनतम मंदिरों को भी  बुलडोजर से रौंद दिया गया। धर्म, भगवान और धार्मिक स्थान इनके लिए धंधा और व्यवसाय का जरिया है। अयोध्या में हार के बाद आयी प्रतिक्रियाओं में एक यह थी कि मोदी ने अयोध्या को मंदिर उद्योग – टेम्पल इंडस्ट्री – दिया, तब भी अयोध्या ने उन्हें हरा दिया। धीरे-धीरे संकुचित करते-करते अब इस कुनबे ने हिन्दू होने के अधिकार को भी हस्तगत कर लिया है ; अब हिन्दू वही, जो मोदी को जिताए!! पहले राष्ट्र का समानार्थी हिन्दू किया गया, अब हिन्दू का पर्यायवाची मोदी हो गए हैं, उनकी भाजपा हो गयी है। जो मोदी और भाजपा के साथ नहीं, वह हिन्दू नहीं। इस लपेटे में अभी अयोध्या है, मगर उनकी जगह “जगन्नाथ जी की जय” करके संदेशा अयोध्यावासी राम के लिए भी दे दिया गया है। स्वयं को धड़ल्ले से नास्तिक बताने वाले सावरकर ने यही तो कहा था कि वे जिस हिन्दुत्व की बात करते हैं, उसका हिन्दू धर्मं, उसकी धार्मिक मान्यताओं या परम्पराओं के साथ कोई संबंध नहीं है। यह शुद्ध रूप में एक शासन प्रणाली है। इस शासन प्रणाली का बीजक उन्होंने उस मनुस्मृति को बताया था, जिसे वे पांचवा वेद मानते थे। अयोध्या पर चढ़ाई करने वाले न हिन्दू हैं, न धर्म उनकी चिंता में है ; वे सावरकरी हिन्दुत्व की सेना है और उनके हाथ में मनुस्मृति है। उनकी गालीगलौज में अयोध्या वाली लोकसभा सीट फैजाबाद से जीते सांसद की दलित पृष्ठभूमि और उन्हें वोट देने वाले मतदाताओं के दलित और पिछड़े होने का संलग्न समाहित भाव इसी की चुगली खाता है। इसे समझने की जरूरत इसलिए भी है, क्योंकि आगे के चुनावों में वे वोट डलवाने के उस अंदाज को आजमा सकते हैं, जिसका प्रयोग इस बार यूपी और दिल्ली की अनेक सीटों पर चुनिन्दा इलाकों में मतदान की रफ़्तार धीमी करके और ख़ास पहचान के आधार पर मतदाताओं के एक हिस्से को मतदान केन्द्रों से बलपूर्वक खदेड़ कर किया गया है।

इस जहरीले प्रचार की निंदा या खंडन में किसी भी भाजपाई का दिखावटी बयान तक न आना यह साबित करता है कि सतह से तलहटी तक पूरा कुनबा इसमें शामिल है। अभी कल ही सरसंघ संचालक मोहन भागवत भी “चुनाव के दौरान दोनों पक्षों द्वारा मर्यादा के उल्लंघन” पर तो बोले हैं, मगर चुनाव के बाद की इन सब बातों पर चुप ही लगा गए हैं। उनके हालिया भाषण में एक और रोचक बात दो वर्ष बाद मणिपुर की याद आना है। इस रफ़्तार से लगता है, अपने कुनबे की अयोध्या चढ़ाई पर भी वे बोले, तो शायद दो-चार साल बाद ही बोलें।

मोदी ने हार के कारण ढूंढ लिए हैं। वे इसके लिए वामपंथियों को कोसते दिखे। उन्होंने कहा कि इन वामपंथियों ने अफवाहें फैलाई, लोगों को संविधान बदलने का डर दिखाया। पता नहीं, उन्हें यह पता भी है कि नहीं कि ‘400 पार करना है क्योंकि संविधान बदलना है’ का नारा देने वालों में सिर्फ अनत हेगड़े नहीं थे, अयोध्या से हारे भाजपा प्रत्याशी लल्लू सिंह भी थे। देश की जनता को सिर्फ आशंका नहीं थी, उसे यकीन था कि यदि अकेले बहुमत भी मिल गया, तो संविधान और लोकतंत्र खतरे में पड़ने वाला है। वैसे एक तरह से मोदी चुनाव नतीजों को सही-सही पढ़ रहे हैं। पूरे चुनाव अभियान का नैरेटिव बदलने और मंदिर, मुसलमान, मंगलसूत्र के उन्माद को उलटने में उन संघर्षों की निर्णायक भूमिका रही, जिन्हें छेड़ने, उसके साथ देश की जनता के विराट हिस्से को जोड़ने, उन संघर्षों को चलाने, उन्हें बिखेर देने की साजिशों को असफल करने और निर्णायक मुकाम तक पहुंचाने में वामपंथ की केन्द्रीय भूमिका रही। नवउदार दौर में आमतौर से, मोदी राज में खासतौर से, यह वामपंथ ही था, जिसने कौमी एकता, फासिस्ट होती तानाशाही और जीवनयापन के सवालों से जूझ रहे सारे मनकों को पिरोने में डोरी की, सबको जोड़कर रखने में गोंद और फेवीकोल की भूमिका निबाही। इस कठिन चुनाव में जीती गयी 8 सीटों से वामपंथ की ताकत को आंकना उसके असर और शक्ति का मूल्यांकन नहीं है। किसानों की ऐतिहासिक लड़ाई वाला संयुक्त किसान मोर्चा, मजदूरों की सारी तंजीमों का एकजुट समन्वय, देश भर के विद्यार्थियों, महिलाओं, सांस्कृतिक कर्मियों की साझी मुहिमें, हर रंग की लोकतंत्र हिमायती ताकतों की जुटान वामपंथ का असली योगदान है। मेहनतकश जनता के साथ नाभि-नाल संबंध उसकी ताकत की असली पहचान है। उन्हें भली-भांति पता है कि 4 जून का परिणाम देश के लिए राहत की एक सांस है – मगर असली राहतें अभी बाकी हैं। अयोध्या जिनके गले की फांस बनी है, उन्हें राजनीति के कूड़ेदान में दफन करने के लिए कोशिशें तेज करने का यह सही समय भी है, अवसर भी है।  

(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)